Thursday 16 June, 2011

वाराणसी :जलमार्ग पर तने मकान

कम लोगों को पता होगा कि कभी सारनाथ तक मालवाहक नावें भी चला करती थीं। लंदन के टेम्स नदी सरीखे उस जलमार्ग के किनारे लोगों के आशियाने व आश्रम थे। भगवान बुद्ध की तपोभूमि तक श्रद्धालुओं के पहुंचने के लिए कभी यह प्रमुख मार्ग था। लगभग 17 सौ वर्ष पूर्व गुप्तकाल में सारनाथ से अकथा होते हुए वरुणानदी में मिलने वाले नरोखर रजवाहा जिसे आज लोग नरोखर नाले के रूप में जानते हैं, का उपयोग जलमार्ग के रूप में होता था। आज उसका अस्तित्व खतरे में है। भू माफियाओं से लेकर सरकारी मशीनरी तक ने गुप्तकाल की इस धरोहर का विनाश करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। लगभग 26 सौ वर्ष पूर्व महात्मा बुद्ध सारनाथ आए थे। उनके महाप्रयाण के बाद सम्राट अशोक के समय स्तूप, मंदिर आदि के निर्माण के लिए पत्थरों की आवश्यकता हुई। नावों के जरिए चुनार (मीरजापुर) से पत्थर गंगा नदी के रास्ते बनारस तक पहुंचा। सारनाथ तक उन विशालकाय पत्थरों को पहुंचाने को एकमात्र रास्ता जलमार्ग था। नाव सरायमोहना से वरुणा में नक्खीघाट तक तो पहुंची लेकिन वहां से सारनाथ के लिए कोई रास्ता नहीं था। तब कामगारों ने सलारपुर के पास पुराना ओवरब्रिज के समीप से जलमार्ग तैयार करना शुरू किया। 20 से 35 फीट तक चौड़ा लगभग 15 किलोमीटर लंबा यह जलमार्ग टडि़या, अकथा, तिसरिया, परशुरामपुर, गंज, खजुही होते हुए सारनाथ तक पहुंचा। बाढ़ के दौरान सारनाथ इलाका कहीं डूब न जाए, उस समय की दक्ष इंजीनियरिंग का नमूना पेश करते हुए कामगारों ने 84 बीघे में नरोखर ताल का निर्माण किया और उसे चारों ओर भीटा से घेर कर बांध की शक्ल दी ताकि बढ़ा हुआ पानी वहां इकट्ठा हो सके। बौद्ध धर्म के अनुयायी व वहां रहने वालों के लिए विशालकाय ताल स्नान आदि का प्रमुख स्थल बना। समय का पहिया घूमने के साथ ही नरोखर रजवाहा पर भू माफियाओं ने कब्जा करना शुरू कर दिया। जिसे जहां जगह मिली वहीं ईट से घेरकर अपनी नेमप्लेट लगा ली। आलम यह है कि रजवाहा कहीं दस तो कहीं चार फीट रह गया है। गनीमत है कि उसका कुछ नामोनिशान वन विभाग के डीयर पार्क के चलते अभी बचा है। ऐसा ही कुछ हाल नरोखर ताल का भी है। भीटे पर सरकार ने कछुआ प्रजनन केंद्र व जिला शिक्षा प्रशिक्षण खोल दिया। भू माफियाओं ने ताल की जमीन के साथ भीटे को काटकर दर्जनों बीघे जमीन की प्लाटिंग कर डाली। भू माफियाओं की इस करतूत में नगर निगम व तहसील प्रशासन ने उनका खूब साथ दिया। बीते दस वर्षो के भीतर सैकड़ों मकान ताल, भीटा पर खड़े हो गए। अनुमति के बगैर जगह-जगह पुलिया का निर्माण कर दिया गया। नरोखर ताल में ही वर्तमान में पर्यटन विभाग की ओर से लोटस पार्क बनाने की तैयारी चल रही है। दूसरी ओर चौबेपुर से गंगा नदी से एक पाइपलाइन नरोखर ताल तक लाई जा रही है ताकि वहां एकत्र पानी का शोधन कर पेयजल की सप्लाई की जा सके।

Saturday 11 June, 2011

Celebrating’ Ganga when its offsprings are losing life

GANGA DUSSEHRA (JUNE 11) SPECIAL

Varanasi: Local administration has geared up to celebrate the Ganga Utsav on the occasion of Ganga Dussehra on Saturday, but the condition of its two tributaries in Varanasi — Varuna and Asi— is highly deplorable. While Asi, a river of mythological importance, died silently and people just kept on watching the metamorphosis of a stream of fresh water into a nullah of sewage and wastewater, Varuna— another important river— is on the verge of dying. On the eve of Ganga Dussehra on Friday, TOI tried to take stock of the condition of the Ganga and its two tributaries in Varanasi. While as per the direction of the district administration, the riverbank was cleaned to celebrate the occasion, sewage continued to flow into the Ganga through Asi and Varuna at their confluence. “It is good to hold programmes for public awareness, but just formalities like Ganga Utsav will deliver nothing if its tributaries remain polluted. Asi has already lost its existence while Varuna is just a channel of sewage, gradually moving towards its end,” lamented Surya Bhan, a native of Shivpur area and an active member of ‘Hamari Varuna Abhiyan’, a campaign to save the Varuna. Asi Ghat constitutes the southern end of the city. According to district records, many references about this ghat are found in early literature like Matsypurana, Again Purana, Kurma Purana, Padma Purana and Kashi Khanda. Mythology says Goddess Durga after killing demon Shumbha- Nishumbha had thrown her sword on the ground. A stream of water (Asi) appeared at the place, where the sword had fallen. In Kashi Khand, it is referred to as Asi “Saimbeda Tirtha”, where one gets ‘punaya’ (blessing) of all the Tirthas (religious places) by taking a dip. Celebrated poet Tulsidas authored the epic ‘Ramcharitmanas’ at this very ghat. “What are you talking about? Don’t you see that it is just a drain carrying sewage,” wondered Raghunath, a local native. The Varuna originates from Phulpur in Allahabad district and is an important tributary of the Ganga. It meets the Ganga at Sarai Mohana. Varanasi is situated between the Varuna and Asi. “But, today, Varuna has become one of the most polluted rivers,” said Surya Bhan, adding about 51-52 drains fall into the rivers in the city area. He said “the Save Varuna Movement (Hamari Varuna Abhiyan) is an effort by local people to create awareness for the conservation of the river.”

डॉल्फिन बचेगी तब, अगर . . .

5 अक्टूबर को सम्पन्न गंगा प्राधिकरण की पहली बैठक में जो महत्वपूर्ण निर्णय हुआ वह यह कि गंगा में निवास करनेवाली डॉल्फिन को राष्ट्रीय जलचर घोषित कर दिया गया. बाघ और मोर के बाद डाल्फिन को राष्ट्रीय महत्व का दर्जा दिया जाना डाल्फिन को उसकी गरिमा तो दिलाता है लेकिन हकीकत यह है कि देश के नदियों के पवित्र जल में निवास करनेवाली डाल्फिन का अस्तित्व खतरे में है. वर्ष 1979 में जहां देश की विभिन्न नदियों में डॉल्फिन की संख्या चार से पांच हजार थी, वहीं अब इनकी संख्या सिमट कर महज दो हजार के लगभग रह गई है।मां गंगा का सवारी समझी जाने वाले जलचर डॉल्फिन का अस्तित्व खतरे में है, इसे संरक्षित करने की कवायद बड़े जोरशोर से शुरू की गई है, नदियों के प्रदूषण ने इसके जीवन को सबसे बड़ा खतरा पैदा किया है, डॉल्फिन को बचाने की पहल कितनी सार्थक होगी इस पर कुछ भी स्पष्ट नहीं कहा जा सकता। दरअसल बाघ और मोर की तरह डॉल्फिन भी कागज की शोभा बनने के कगार पर आ खडी हुई हैं।उत्तर भारत की पांच प्रमुख नदियों यमुना, चंबल, सिंध, क्वारी व पहुज के संगम स्थल ‘पंचनदा’ डॉल्फिन के लिये सबसे खास पर्यावास समझा जा रहा है। क्योंकि यहां पर एक साथ 16 से अधिक डॉल्फिनों को एक समय में एक साथ पर्यावरण विशेषज्ञों ने देखा, तभी से देश के प्राणी वैज्ञानिक पंचनदा को डाल्फिनों के लिये संरक्षित स्थल घोषित करने का मांग कर रहे थे। फलस्वरुप बाघ और मोर के बाद डॉल्फिन को राष्ट्रीय जलीय जीव का दर्जा प्रदान करके डॉल्फिन को बचाने की दिशा में केन्द्र सरकार ने एक अहम कदम उठाया है। पूरे देश में करीब 2000 डॉल्फिन इस वक्त आंकी जा रही है।गंगा और इसकी सहायक नदियों में डॉल्फिन पाई जाती हैं। वन्य जीवों के संरक्षण की दिशा मे काम कर रही देश की एक बडी पर्यावरणीय संस्था डब्लूडब्लूएफ के 2008 के सर्वेक्षण में उत्तर प्रदेश में चंबल नदी में 78,यमुना नदी में 47,बेतवा नदी में 5,केन नदी में 10,सोन नदी में 9,गंगा में 35 और घाघरा नदी में सबसे अधिक 295 डॉल्फिनों को रिकार्ड किया गया। इसके अलावा पूरे देश में डालफिन गंगा, ब्रह्मपुत्र और मेघना के भारत, नेपाल और बंग्लादेश तक पाई जाती हैं।डॉल्फिन स्तनघारी जीव हैं जो मीठे पानी में रहने के कारण मछली होने को भ्रम पैदा करती है, सामान्यत इसे लोग सूंस के नाम से पुकारते है, इसमें देखने की क्षमता नहीं होती हैं लेकिन सोनार यानी घ्वनि प्रक्रिया बेहद तीब्र होती हैं, जिसके बलबूते खतरे को समझती है। मादा डॉल्फिन 2.70 मीटर और वजन 100 से 150 किलो तक होता है, नर छोटा होता है, प्रजनन समय जनवरी से जून तक रहता है। यह एक बार में सिर्फ एक बच्चे को जन्म देती है। डॉल्फिन बचाने की कवायदडॉल्फिन को बचाने की दिशा में सबसे पहला कदम 1979 में चंबल नदी में राष्ट्रीय सेंचुरी बना कर किया गया। डॉल्फिन को वन्य जीव प्राणी संरक्षण अघिनियम 1972 में शामिल किया गया। 1991 में बिहार के विक्रमशिला में गंगा नदी के सुल्तानगंज से लेकर पहलगांव तक ‘गैंगटिक रिवर डॉल्फिन संरक्षित क्षेत्र’ बना कर किया गया है।इनकी सबसे बड़ी खासियत है कि नदियों के संगम स्थलों पर सबसे अधिक डॉल्फिन नजर आती हैं। यही एक कारण है कि उत्तर प्रदेश के इटावा जिले में पंचनदा पर वर्ष 2000 में एक साथ 16 डॉल्फिन देखी गयीं। 1982 में देश की सभी नदियों में डॉल्फिनों की संख्या 4000 से लेकर 5000 के बीच आंकी गयी थी,जो अब सिमट कर 2000 के करीब रह गई है। हर साल एक अनुमान के मुताबिक 100 डॉल्फिन विभिन्न तरीके से मौत की शिकार हो जाती हैं, इनमें मुख्यतया मछली के शिकार के दौरान जाल में फंसने से होती है, कुछ को तस्कर लोग डॉल्फिन का तेल निकालने के इरादे से मार डालते हैं। दूसरा कारण नदियों का उथला होना यानी प्राकृतिक वास स्थलों का नष्ट होना,नदियों में प्रदूषण होना और नदियों में बन रहे बांध भी इनके आने-जाने को प्रभावित करते हैं।डॉल्फिन ऐसा जलचर जीव है, जिसका अस्तित्व खतरे में है। पिछले डेढ़ दशक से इनकी संख्या में पचास फीसदी से अधिक की गिरावट आई है। डाल्फिन को बचाने के लिए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने पहल करते हुए इसे राष्ट्रीय जलीय जीव तो घोषित कर दिया है, परंतु जिस प्रकार से देश की नदियों में कारखानों का कचरा गिर रहा है, उससे ऐसा लगता है कि जलीय जीव कहीं किताबों का ही हिस्सा न बन जाएं।कहना न होगा कि डॉल्फिन के अस्तित्व को बचाने के लिए जिस प्रकार से प्रधानमंत्री ने पहल की है यदि जलीय जीव प्राणी को बचाने के लिए प्रत्येक व्यक्ति अपनी जिम्मेदारी समझे तो इस मनमोहक जीव को बचाया जा सकता है। आंकड़े बताते हैं कि देश में गंगा, घाघरा, गिरवा, चंबल, बृह्मपुत्र सहित गंगा की सहायक नदियों में डॉल्फिन पाईं जातीं हैं। आंकड़े गवाह है कि प्रतिवर्ष तकरीबन एक सैकड़ा से अधिक डॉल्फिन की मौत विभिन्न कारणों से हो रही है जो पर्यावरणविदों के लिए चिंता का सबब बनी हुई है।अवैध शिकार भी डॉल्फिन की संख्या में लगातार गिरावट ला रहा है। अवैध शिकार की वजह है कि डॉल्फिन के शिकर से इसके जिस्म से निकलने वाले तेल को मर्दानगी बढ़ाने एवं हडि्डयों को मजबूत करने के लिए प्रयोग किया जाता है। यही कारण है कि इसके तेल की बाजार में कीमतें भी अधिक होती हैं। इसलिए शिकारियों की नजरों में डॉल्फिन एक धन कमाने का जरिया बन चुकी है।वर्ष 2008 में डॉल्फिन के किए गए अध्ययन से खुलासा होता है कि सबसे अधिक डॉल्फिन घाघरा में पाईं गईं जिनकी संख्या 295 थी और इसके बाद चंबल में 78 थी। जबकि गंगा में 35, यमुना में 47, बेतवा में 5, केन में 10, सोन नदी में 9 डॉल्फिन पाईं गईं थीं। ये आंकड़े सिर्फ उत्तर प्रदेश से गुजरने वाली नदियों के हैं जबकि डॉल्फिन भारत के अतिरिक्त नेपाल और बांग्लादेश की नदियों में भी पाई जातीं हैं।डाल्फिन को बचाने के लिए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने पहल करते हुए इसे राष्ट्रीय जलीय जीव तो घोषित कर दिया है, परंतु जिस प्रकार से देश की नदियों में कारखानों का कचरा गिर रहा है, उससे ऐसा लगता है कि जलीय जीव कहीं किताबों का ही हिस्सा न बन जाएं।डॉल्फिन की संख्या में दिनों दिन आ रही कमी से जलीय जीव विशेषज्ञ चिंतित हो रहे हैं। हालांकि प्रधानमंत्री की पहल के बाद इन विशेषज्ञों में उत्साह आया है परंतु इन्हें बचा पाना कितना आसान होगा, इसका जबाब शायद किसी के पास नहीं है। प्रख्यात जलीय जीव विशेषज्ञ सोसायटी फॉर कन्जरवेशन ऑफ नेचर के डॉ. राजीव चौहान डॉल्फिन को राष्ट्रीय जलीय जीव घोषित किए जाने से बेशक उत्साहित हैं। परंतु वे कहते हैं कि डॉल्फिन को बचाने के लिए सभी को पहल करनी होगी। वे डॉल्फिन के बारे में जानकारी देते हुए बताते हैं कि डॉल्फिन शुड्यूल वन प्रजाति का जलीय जीव है जो पूरी तरह से नेत्रहीन है। यह जीव किसी को नुकसान नहीं पहुंचाता है बल्कि मानव के साथ मित्रवत संबंध बनाने को आतुर रहता है। उनकी मांग है कि पंचनदा को डालफिन के संरक्षण केन्द्र हो सकता है। डॉल्फिन का शिकार दंडनीय अपराध है। शिकार करते हुए पकड़े जाने पर आरोपी को छ: साल के कारावास तथा पचास हजार रुपये जुर्माना का प्रावधान है। सामाजिक वानिकी प्रभाग के प्रभागीय निदेशक सुदर्शन सिंह बताते हैं कि डॉल्फिन के अस्तित्व पर सबसे बड़ा संकट प्रदूषित पानी ने डाला है। वे बताते हैं कि डॉल्फिन पानी से निकल कर पांच मिनट में खुले में सांस लेती है और फिर आठ घंटे तक यह गहरे पानी में चली जाती है और आसानी से पानी के अंदर सांस लेती रहती है। सांस लेने के लिए जब यह पानी से उछाल लेती है तो इसका उछाल देखने लायक होता है। प्रदूषित, उथली और मर रही नदियों को बचाए बिना डॉल्फिन कैसे बचेगी, पता नहीं।

ऐसे तो नहीं रुकेगा नदियों का प्रदूषण

गंगा दशहरा अर्थात गंगा के अवतरण का पर्व। गंगा हमारे देश की जल संपदा की प्रतीक है। गंगा यानी नदी, जो सिर्फ जलराशि नहीं, जीवनदायिनी है। लेकिन आज हम अपनी नदियों के महत्व को भुला बैठे हैं। हम उनका सिर्फ दोहन ही कर रहे हैं। लेकिन हमारे देश में नदियों का प्रदूषण बेहद गंभीर रूप ले चुका है। अनेक नदियों के प्रदूषण को रोकने के प्रयास तो हो ही नहीं रहे हैं, चिंताजनक बात यह है कि गंगा और यमुना जैसी जिन नदियों को उच्चतम प्राथमिकता देकर उनमें प्रदूषण रोकने के लिए विशेष एक्शन प्लान बनाए गए और उन्हें काफी धन उपलब्ध करवाया गया, उनका प्रदूषण भी आज तक गंभीर चिंता का विषय बना हुआ है। अब तक के इस निराशाजनक अनुभव के बाद समय आ गया है कि नदियों के प्रदूषण को रोकने के बारे में प्रचलित मान्यताओं को खुलकर चुनौती दी जाए तथा इस बारे में ऐसी नई सोच को आगे आने दिया जाए, जो नदियों को प्रदूषण मुक्त करने की वास्तविक उम्मीद प्रदान करती हो। अब तक के प्रयासों में इस मान्यता को चुनौती नहीं दी गई कि सीवेज व्यवस्था के माध्यम से घरों के मल-मूत्र एवं उद्योगों के खतरनाक द्रव्यों को नदियों की ओर बहाया जाएगा। इस बारे में यह पहले से मानकर चला गया कि इस गंदगी को तो नदियों में ही जाना है, बस चिंता केवल इसके ट्रीटमेंट की करनी है। पर ट्रीटमेंट काफी महंगा होने के साथ सीमित मात्रा में ही हो सकता है और इसके बाद भी काफी मात्रा में गंदगी का प्रवेश नदियों में होता ही रहता है। इसलिए घरों के मल-मूत्र या उद्योगों के खतरनाक द्रव्यों को नदियों में बहाने की अवधारणा का तोड़ ढूंढना होगा। वैसे भी, ठंडे दिमाग से सोचिए, तो यह सोच बुनियादी तौर पर कितनी गलत है कि अपने घर के मल-मूत्र को हम प्रतिदिन उस नदी की ओर बहाते रहें, जिसे हम पवित्र मानते हैं। इस तरह, एक ओर तो दीर्घकालीन स्तर पर हम अपने ही जीवन और पर्यावरण की क्षति करते हैं, दूसरी ओर अपनी ही आस्था का अपमान करते हैं। इस तरह के सवाल उठाने पर प्रायज् जल व शहरी विकास विशेषज्ञ कहते हैं कि मौजूदा व्यवस्था इस कारण से चल रही है, क्योंकि इसका कोई विकल्प ही नहीं है। वे कहते हैं कि इस घरेलू व औद्योगिक गंदगी को नदियों में न छोडें, तो कहां छोड़ें? जितने हमारे संसाधन हैं, उसके अनुसार जितना संभव होता है, उतना उसका ट्रीटमेंट हम अवश्य कर लेते हैं। लेकिन इस तरह की दलीलों के जवाब में यह कहना जरूरी है कि वर्तमान व्यवस्था के विकल्प उपलब्ध हैं, पर वे विकसित तभी होंगे, जब उनकी जरूरत पर समुचित ध्यान दिया जाए। वैकल्पिक सोच का मूल आधार यह होना चाहिए कि किसी भी एक यूनिट, मोहल्ले व बस्ती का सीवेज नियोजन इस आधार पर हो कि उस यूनिट में जितनी भी सीवेज जनित होती है, उसको उस यूनिट के अंदर ही खपाया जाएगा, उसके बाहर नहीं भेजा जाएगा। इस यूनिट के भीतर ही इसका ट्रीटमेंट होगा, इससे खाद अलग किया जाएगा, सिंचाई लायक पानी अलग किया जाएगा, पानी की जितनी री-साइकिलिंग संभव है, वह की जाएगी और उपयुक्त पेड़-पौधों के हरे-भरे क्षेत्र तैयार कर वहां इस पानी का उपयोग किया जाएगा। खतरनाक अवशेषों वाले उद्योगों को अपने औद्योगिक क्षेत्र के भीतर ही अधिकतम ट्रीटमेंट करने को कहा जाएगा, ताकि अधिक खतरनाक अवशेषों वाला पानी वहां से बाहर न निकले। जब किसी क्षेत्र की सीवेज को ठिकाने लगाने का कार्य उस क्षेत्र के भीतर ही होता है, तो यह संभावना बढ़ती है कि लोग इससे जुड़े महत्वपूर्ण मुद्दों पर विचार करेंगे एवं इसे सुलझाने के प्रयास करेंगे। सीवेज के प्रति यह दृष्टिकोण अनुचित है कि किसी नागरिक की जिम्मेदारी बस फ्लश करने भर की है और इससे आगे उसे कुछ सोचने की जरूरत नहीं है। दरअसल, आम नागरिक भी मजबूर है, क्योंकि आवास व सीवेज व्यवस्था इस अनुचित प्रणाली के अनुकूल ही बनाई गई है। जो अनुचित व्यवस्था हर जगह चल रही है, अपने दैनिक कार्य उसके अनुकूल करने को सभी मजबूर हैं। यह तो सच है, पर एक लोकतंत्र में हर जागरूक नागरिक का यह कर्त्तव्य है कि जो व्यवस्था उसे अनुचित लगे उसके विरुद्ध वह किसी न किसी माध्यम से आवाज उठाए और उसमें बदलाव लाने का प्रयास करे। पर सीवेज व गंदगी को तो बस हम फ्लश के माध्यम से अपने से दूर कर देना चाहते हैं। हम सबकी इस गलती के कारण ही जीवनदायिनी नदियां इतनी प्रदूषित हो रही हैं, उनमें रहने वाले जीव मर रहे हैं एवं पेयजल का संकट भी लगातार विकट हो रहा है। अत: हमें मिलकर इस पूरी व्यवस्था में बुनियादी बदलाव की मांग उठानी पडे़गी।

कराहती नदियां

कभी जीवनदायिनी रहीं हमारी पवित्र नदियां आज कूड़ा घर बन जाने से कराह रही हैं, दम तोड़ रही हैं। गंगा, यमुना, घाघरा, बेतवा, सरयू, गोमती, काली, आमी, राप्ती, केन एवं मंदाकिनी आदि नदियों के सामने ख़ुद का अस्तित्व बरकरार रखने की चिंता उत्पन्न हो गई है। बालू के नाम पर नदियों के तट पर क़ब्ज़ा करके बैठे माफियाओं एवं उद्योगों ने नदियों की सुरम्यता को अशांत कर दिया है। प्रदूषण फैलाने और पर्यावरण को नष्ट करने वाले तत्वों को संरक्षण हासिल है। वे जलस्रोतों को पाट कर दिन-रात लूट के खेल में लगे हुए हैं। केंद्र ने भले ही उत्तर प्रदेश सरकार की सात हज़ार करोड़ रुपये की महत्वाकांक्षी परियोजना अपर गंगा केनाल एक्सप्रेस-वे पर जांच पूरी होने तक तत्काल रोक लगाने के आदेश दे दिए हों, लेकिन नदियों के साथ छेड़छाड़ और अपने स्वार्थों के लिए उन्हें समाप्त करने की साजिश निरंतर चल रही है। गंगा एक्सप्रेस-वे से लेकर गंगा नदी के इर्द-गिर्द रहने वाले 50 हज़ार से ज़्यादा दुर्लभ पशु-पक्षियों के समाप्त हो जाने का ख़तरा भले ही केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय की पहल पर रुक गया हो, लेकिन समाप्त नहीं हुआ। गंगा और यमुना के मैदानी भागों में माफियाओं एवं सत्ताधीशों की मिलीभगत साफ दिखाई देती है। नदियों के मुहाने और पाट स्वार्थों की बलिवेदी पर नीलाम हो रहे हैं।बड़ी मात्रा में रेत खनन के चलते जल जीवों के सामने संकट पैदा हो गया है। गंगा की औसत गहराई वर्ष 1996-97 में 15 मीटर थी, जो वर्ष 2004-2005 में घटकर 11 मीटर रह गई। जलस्तर में गिरावट निरंतर जारी है। आईआईटी कानपुर के एक शोध के अनुसार, पूरे प्रवाह में गंगा क़रीब चार मीटर उथली हो चुकी है। गाद सिल्ट के बोझ से बांधों की आयु घटती जा रही है। जीवनदायिनी और सदा नीरा गंगा कानपुर के पास दशक भर पूर्व 15 से 20 मीटर गहरी थी, जबकि पहाड़ी इलाक़ों में इसकी गहराई मात्र चार मीटर ही थी। जलवायु विशेषज्ञ परमेश्वर सिंह अपनी पुस्तक पर्यावरण के राष्ट्रीय आयाम में नदियों के घटते दायरे पर चिंता जता चुके हैं। वह कहते हैं, बात केवल गंगा तक ही सीमित नहीं है। पिछले एक दशक में बूढ़ी गंडक 6 से 4 मीटर, घाघरा 6 से 4 मीटर, बागमती 5 से 3 मीटर। राप्ती 4.5 एवं यमुना की औसत गहराई 3।5 से दो मीटर तक कम हो चुकी है। नदियों का पानी पीने लायक तक नहीं बचा है। कभी बेतवा नदी का पानी इतना साफ एवं स्वास्थ्यवर्द्धक होता था कि टीबी के मरीज़ इस जल का सेवन करके स्वस्थ हो जाते थे। आज बेतवा के किनारे स्थित बस्ती के लोग उसमें गंदगी डाल रहे हैं। बेतवा में नहाने वाले लोग चर्म रोग का शिकार हो रहे हैं। यमुना नदी में पुराने यमुना घाट से लेकर पुल तक बड़ी संख्या में शव प्रवाहित किए जा रहे हैं। हमीरपुर का गंदा पानी पुराने यमुना घाट पर नाले के ज़रिए नदी में डाला जा रहा है। नदी की सफाई करने वाली मछलियां, घोघे एवं कछुए समाप्त हो गए हैं। यहां लोग पानी का आचमन करने से भी डरते हैं।डुमरियागंज से निकली आमी नदी रुधौली, बस्ती, संत कबीर नगर, मगहर एवं गोरखपुर ज़िले के क़रीब ढाई सौ गांवों से होकर बहती है। यह नदी कभी इन गांवों को हरा-भरा रखती थी। गोरख, कबीर, बुद्ध एवं नानक की तपोस्थली रही आमी आज बीमारी और मौत का पर्याय बन चुकी है। यह नदी 1990 के बाद तेज़ी से गंदी हुई।रुधौली, संत कबीर नगर एवं 93 में गीडा में स्थापित की गईं फैक्ट्रियों से आमी का जल तेज़ी से प्रदूषित हुआ। इन फैक्ट्रियों से निकलने वाला कचरा सीधे आमी में गिरता है। आमी के प्रदूषित हो जाने के चलते इलाक़े से दलहन की फसल ही समाप्त हो गई। गेहूं और तिलहन का उत्पादन भी खासा प्रभावित हुआ है। पेयजल का भीषण संकट है। नदी तट से तीन-चार किमी तक हैडपंपों से काला बदबूदार पानी गिरता है। आमी तट के गांव में जब महामारी आई तो सीएमओ की टीम ने अपनी जांच में पाया कि सभी बीमारियों की जड़ आमी का प्रदूषित जल है। आमी के प्रदूषण के चलते मगहर, सोहगौरा एवं कोपिया जैसे गांवों के अस्तित्व पर संकट आ गया है।आमी का गंदा जल सोहगौरा के पास राप्ती नदी में मिलता है। सोहगौरा से कपरवार तक राप्ती का जल भी बिल्कुल काला हो गया है। कपरवार के पास राप्ती सरयू नदी में मिलती है। यहां सरयू का जल भी बिल्कुल काला नज़र आता है। बताते हैं कि राप्ती में सर्वाधिक कचरा नेपाल से आता है। उसे रोकने की आज तक कोई पहल नहीं हुई। पिछले दिनों राप्ती एवं सरयू के जल को इंसान के पीने के अयोग्य घोषित किया गया। यह पानी पशुओं के पीने के लायक तो माना गया, मगर इन नदियों के तट पर बसे गांवों के लोग पशुओं को यह जल नहीं पीने देते।ऐसा लगता है कि अपनी दुर्दशा पर नदी संवाद करती हुई कहती है, मैं काली नदी हूं। मानों तो काली मां। भूल तो नहीं गए! ऐसा इसलिए कि आजकल मेरे पास कोई आता कहां है। सभी ने मुझे अकेला छोड़ रखा है मरने के लिए। वैसे भी मैं ज़िंदा हूं कहां? मेरा पानी न पीने लायक है, न सिंचाई लायक। पर्यावरणविद् तो मुझे मुर्दा बता चुके हैं। मैं हूं ही ऐसी। किसी प्यासे को जीवन नहीं दे सकती। जिस ज़मीन को छू लूं, वह बंजर हो जाए। मेरी दशा हमेशा से ऐसी नहीं थी। मेरा भी बचपन था, जवानी थी…क्या दिन थे वे! ख़ूब बारिश होती थी। सारे ताल-तलैया और नाले लबालब हो उठते थे। धुआंधार बारिश के बीच ही क़रीब 150 साल पहले मुज़फ़़्फरनगर के गांव उंटवारा में मेरा जन्म हुआ था। इसमें खतौली के पास स्थित गांवों निठारी एवं जंढेडी के योगदान को भला कैसे भूल सकती हूं। यहीं की बारिश का पानी मेरे लिए ऑक्सीजन देता था। यह न मिलता तो मेरा नामोनिशान कब का मिट चुका होता। यहां से शुरू हुआ मेरा सफर 374 किलोमीटर दूर तक पहुंचा। इस दौरान मेरे निकट 1200 गांव, क़स्बे और शहर आए। मेरठ, गाजियाबाद, बुलंदशहर, अलीगढ़, कांशीराम नगर, एटा, फर्रुखाबाद और कन्नौज ने मुझे अपनाया, रास्ता दिया। शुरू में सभी का स्नेह मिला। किसानों ने सूखती फसलों को मेरा पानी दिया। वे लहलहा उठीं। मछलियां, कीड़े-मकोड़े सभी ख़ूब अठखेलियां करते, गोते लगाते। जलीय पौधे भी स्वस्थ रहते थे।लेकिन आज ख़ुद को देखती हूं तो हूक सी उठती है। मृत्युशैय्या पर पड़ी हूं, आख़िरी सांसें ले रही हूं। मेरा सब कुछ लुट चुका है। जलीय जीव-जंतु सब मर चुके हैं। मेरे पानी में ऑक्सीजन की मात्रा घटती चली गई। अलीगढ़ आने के पहले तक कुछ ज़िंदा रहने की गुंजाइश भी थी, लेकिन यहां अब दो मिलीग्राम प्रति लीटर डिसाल्व ऑक्सीजन में कैसे बचते जलीय जीव-जंतु? साधु आश्रम के पास मेरे पानी में ज़िंदा रहने लायक कुछ नहीं बचा। अब ख़ुद को ज़िंदा लाश न मानूं तो क्या करूं? किसी से कहूं भी तो क्या? जिन्हें ज़िंदगी भर बेटे की तरह माना, वही आस्तीन के सांप निकले। वे अपनी फैक्ट्रियों और सीवर का कचरा मेरे ऊपर उड़ेल रहे। इससे मेरी काया काली होती गई, पानी ज़हर बनता गया। पर्यावरणविद्‌ मेरी प्रकृति को क्षारीय बता रहे हैं। कन्नौज में मेरा हाल एकदम सीवर के पानी जैसा हो चुका है। मैं यह बोझ अब और नहीं झेल सकती। बड़ी मां गंगा ही मेरा उद्धार करेंगी, लेकिन सुना है कि मोक्षदायिनी मां गंगा भी मैली होती जा रही हैं। मैं तो आख़िरी सांसें गिन ही रही हूं। मेरे साथ जो सलूक किया, वैसा कम से कम मोक्षदायिनी गंगा मइया के साथ मत करना। यही मेरी अंतिम इच्छा है। क्या पूरी करेंगे आप सब? प्रख्यात पर्यावरणविद् प्रो. वीरभद्र मिश्र को इस बात से थोड़ी तसल्ली ज़रूर है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह क्लीन गंगा मिशन में व्यक्तिगत रुचि ले रहे हैं, लेकिन पुराने अनुभव प्रो। मिश्र को आशंकाओं से मुक्त नहीं कर पा रहे। वह कहते हैं कि प्रधानमंत्री ने 2020 तक गंगा में गिरने वाले नालों को पूरी तरह रोकने और सीवेज के ट्रीटमेंट का भरोसा दिलाया है, लेकिन इसके लिए प्रस्तावित उपायों का ख़ुलासा नहीं किया। फिर यह सवाल भी उठना लाज़िमी है कि तब तक केंद्र में किसकी सरकार होगी और उसका गंगा को लेकर नज़रिया क्या होगा? प्रो. मिश्र ने गंगा के मामले में सैद्धांतिक से कहीं ज़्यादा व्यवहारिक पक्ष को महत्व दिए जाने पर जोर दिया। राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण के सदस्य प्रो. मिश्र ने कहा कि आज सबसे बड़ा संकल्प यह होना चाहिए कि गंगा में एक भी नाला नहीं गिरने दिया जाएगा। गंगा तट पर वाराणसी समेत 116 शहर बसे हैं, जिनकी आबादी एक लाख से ज़्यादा है। इन शहरों के नालों से गिरने वाली गंदगी ही गंगा के 95 फीसदी प्रदूषण का कारण है। ज़रूरत इस बात की है कि नालों को डायवर्ट कर शोधन की त्रुटिविहीन व्यवहारिक व्यवस्था लागू की जाए। प्रो. मिश्र इस बात से पूरा इत्ते़फाक रखते हैं कि गंगा में पर्याप्त जल होना चाहिए, लेकिन साथ ही उन्होंने स्पष्ट किया कि केवल ज़्यादा पानी छोड़े जाने भर से प्रदूषण कम नहीं होगा। वह पर्यावरण असंतुलन के लिए प्राकृतिक चक्र में व्यवधान को कारण बताते हैं। उनका कहना है कि मनुष्य अपने फायदे के लिए प्राकृतिक स्रोतों का ज़बरदस्त दोहन कर रहा है। यही वजह है कि कहीं बाढ़ तो कहीं सूखा विनाशकारी साबित हो रहे हैं। प्रकृति में वेस्ट नामक कोई चीज नहीं रही। सब कुछ री-साइकिलिंग से नियंत्रित हो रहा है।मानसून के बल पर सदनीरा बनने वाली नदियां वर्षा की बूंदों को अपने आंचल में छुपाकर एक लंबी यात्रा के साथ हमारे होंठो को तरलता देकर जीवन चक्र को गतिमान करती हैं। प्रकृति के इस विराट खेल का अंदाज़ा इसी बात से चल जाता है कि भारत के पश्चिमी तट पर क़रीब 75 अरब टन जल बरसता है। मैदानी इलाक़ा 15 लाख किमी के क्षेत्र में फैला है। इस क्षेत्र में 1.7 सेमी औसत दैनिक वर्षा का अर्थ हुआ कि पश्चिमी तट से भारत में प्रवेश करने वाली वाष्प का एक तिहाई भाग जल में परिवर्तित होता है। जल है तो कल है, का नारा लगाने वाले भारतीय मानसून नामक अरबी शब्द से अपनी सारी आशा-आकांक्षाएं प्रकट करते हैं। इस एक शब्द ने सदियों से लोगों को इतना प्रभावित किया है कि हमारी जीवनशैली एवं संस्कृति मानसून और नदियों के इर्द-गिर्द सिमट गई है। गंगा और यमुना का मैदानी भाग दुनिया का सबसे उपजाऊ क्षेत्र माना जाता है। लेकिन अब गंगा ही नहीं, बेतवा, केन, शहजाद, सजनाम, जामुनी, बढ़ार, बंडई, मंदाकिनी एवं नारायन जैसी अनेक छोटी-बड़ी नदियों के सामने संकट खड़ा हो गया है। ललितपुर में बीच शहर से निकलने वाली शहजाद नदी का हाल बेहाल है। प्रदूषण की शिकार इस नदी को लोगों ने अपने आशियाने के रूप में इस्तेमाल करने के लिए आधे से ज़्यादा पाट दिया हैं। यही हाल इससे मिलने वाले नालों का है। उन पर आलीशान मकान खड़े हो गए हैं। बंडई नदी मड़ावरा ब्लॉक में जंगली नदी के रूप में बहती है। इससे जंगली जानवरों के लिए पीने का पानी सुलभ होता है। इसकी भी असमय मौत हो रही है। चित्रकूट में बहने वाली मंदाकिनी नदी के सामने प्रदूषण का ख़तरा मंडरा रहा है। नदियों को प्रदूषण मुक्त करने के लिए केंद्र और राज्य सरकारें अनाप-शनाप पैसा फूंक रही हैं। गोमती नदी को प्रदूषण मुक्त करने के लिए 285.6857 करोड़ रुपये अवमुक्त हो चुके हैं, लेकिन गोमती का हाल ज्यों-का-त्यों बना हुआ है। बेशक़ीमती प्रकृति स्रोत प्रदान करने वाली नदियों-नालों के साथ हो रही छेड़छाड़ ने संकट खड़ा कर दिया है। कराहती नदियां अपनी पीड़ा कहें तो किससे कहें? कौन सुनेगा उनकी अकाल मृत्यु की शोक गाथा! कौन मनाएगा मातम!
गंगा को प्रदूषित करते शहरआबादी में छोटे एवं मंझोले शहरों की श्रेणी में आने वाले छह शहर ऐसे हैं, जिनके नालों का गंदा पानी परोक्ष रूप से गंगा में मिलकर उसे मैला करता है और उसे साफ करने के लिए सीवेज शोधन संयंत्र (एसटीपी) लगाए जाने की कोई भावी योजना भी नहीं है। इनमें बबराला, उझेनी एवं गुन्नौर (बदायूं), सोरों (एटा) और बिल्हौर (कानपुर) शामिल हैं। गंगा की निगरानी कर रही उत्तर प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की इकाई ने इन्हें चिन्हित करते हुए इनमें एसटीपी के लिए कोई योजना न बनाए जाने पर चिंता जताई है। दरअसल, हाल में राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण के गठन के बाद गंगा नदी में पर्यावरण की दृष्टि से विकास की शर्त रखी गई है। बोर्ड अब तक गंगा में सीधे गिर रहे सीवेज पर ही नज़र रखता था। बोर्ड की मुख्य पर्यावरण अधिकारी डॉ। मधु भारद्वाज ने बताया कि छोटे एवं मंझोले शहरों के पुनरुत्थान के लिए बनी यूआईडीएसएसएमटी के तहत फर्रुखाबाद, मिर्ज़ापुर, मुगलसराय, गाज़ीपुर, सैदपुर, गढ़मुक्तेश्वर, बिजनौर, अनूपशहर एवं चुनार आदि में गंगा में सीधे गिर रहे सीवेज प्रबंधन के लिए योजनाएं बनकर स्वीकृत हैं। रिपोर्ट के मुताबिक़, बबराला (बदायूं) के दो नालों का दो मिलियन लीटर गंदा पानी (एमएलडी) प्रतिदिन वरद्वमार नदी में सीधे गिरता है, जो आगे चलकर गंगा में मिलती है। उझेनी (बदायूं) का आठ एमएलडी गंदा पानी गंगा से तीस किमी दूर स्थित तालाब में गिरता है, जो आगे नालों में मिलता है। गुन्नौर (बदायूं) के दो नालों का तीन एमएलडी गंदा पानी एक तालाब में गिरता है, जो आगे चलकर वरद्वमार नदी से होता हुआ गंगा में मिलता है। सोरों (एटा) के तीन नालों का चार एमएलडी गंदा पानी गंगा में सीधे नहीं गिरता, पर आगे चलकर उसमें ही मिलता है। बिल्हौर (कानपुर) के नालों का तीन एमएलडी सीवेज ईशान नदी में सीधे गिरता है। यह भी आगे चलकर गंगा में ही मिलता है।

प्रदूषण की भेंट चढ़ती गंगा

Source: Author: रोहित कौशिकपिछले कुछ वर्षों में गंगा को स्वच्छ बनाने हेतु अनेक परियोजनाएं लागू की गई हैं लेकिन इसका प्रदूषण लगातार बढ़ता जा रहा हैं। गंगा के प्रदूषण को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट और इलाहाबाद हाई कोर्ट भी अनेक बार दिशा-निर्देश जारी कर चुके हैं लेकिन इस बाबत अभी तक नतीजा ढाक के तीन पात ही रहा है।गौरतलब है कि गंगा के किनारे अनेक शहर, कस्बे और गांव स्थित हैं। प्रतिदिन इस आबादी का लगभग 1.3 बिलियन लीटर अपशिष्ट गंगा में गिरता है। गंगा के आस-पास स्थित सैकडों फैक्ट्रियाँ भी गंगा को प्रदूषित कर रही हैं। एक अनुमान के अनुसार प्रतिदिन लगभग 260 मिलियन लीटर औद्योगिक अपशिष्ट गंगा में जहर घोल रहा है। गंगा में फेंके जाने वाले कुल कचरे में लगभग अस्सी फीसद नगरों का कचरा होता है जबकि पंद्रह फीसद औद्योगिक कचरा।जहां एक ओर नागरीय कचरा विभिन्न तौर-तरीकों से गंगा के प्राकृतिक स्वरूप को नष्ट कर रहा है वहीं औद्योगिक कचरा विभिन्न रसायनों के माध्यम से गंगा को जहरीला बना रहा है। पिछले कुछ दशकों में जनसंख्या विस्फोट के कारण गंगा किनारे की आबादी तेजी से बढ़ी है। विडम्बना यह है कि किनारे बसी इस आबादी ने भी गंगा को साफ-सुथरा रखने की कोई सुध नहीं ली बल्कि इसे प्रदूषित ही किया। पिछले दिनों जब वाराणसी में गंगा के नमूनों की जांच की गई तो प्रति 100 मिलीलीटर जल में हानिकारक जीवाणुओं की संख्या 50 हजार पाई गई जो नहाने के पानी के लिए सरकार द्वारा जारी मानकों से 10 हजार फीसद ज्यादा थी। इस प्रदूषण के कारण ही आज हैजा, पीलिया, पेचिश और टाइफायड जैसी जल-जनित बीमारियां बढ़ती जा रही है। एक अनुमान के अनुसार भारत में लगभग 80 फीसद स्वास्थ्यगत समस्याएं और एक तिहाई मौतें जल-जनित बीमारियों के कारण ही होती हैं।गौरतलब है कि ऋषिकेश से इलाहाबाद तक गंगा के आस-पास लगभग 146 औद्योगिक इकाइयां स्थित हैं। इनमें चीनी मिल, पेपर फैक्ट्री, फर्टिलाइजर फैक्ट्री, तेलशोधक कारखाने तथा चमड़ा उद्योग प्रमुख हैं। इनसे निकलने वाला कचरा और रसायन युक्त गंदा पानी गंगा में गिरकर इसके पारिस्थितिक तंत्र को भारी नुकसान पहुंचा रहा है। इन फैक्ट्रियों से निकलने वाले अपशिष्ट में मुख्य रूप से हाइड्रोक्लोरिक एसिड, मरकरी, भारी धातुएं, तथा कीटनाशक जैसे खतरनाक रसायन होते हैं। ये रसायन मनुष्यों की कोशिकाओं में जमा होकर बहुत सी बीमारियां उत्पन्न करते हैं। गंगा किनारे होने वाले दाह-संस्कार, श्रद्धालुओं द्वारा विसर्जित फूल और पॉलीथिन भी गंगा को बीमार बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं।यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि गंगा को स्वच्छ करने की योजना के तहत वर्ष 1985 से 2000 के बीच गंगा एक्शन प्लान एक और दो के क्रियान्वयन पर लगभग एक हजार करोड़ रुपये खर्च हो चुके हैं लेकिन गंगा अभी भी प्रदूषण की मार झेल रही है। गंगा को स्वच्छ रखने के लिए 3 मई 2010 को इलाहाबाद हाई कोर्ट ने यूपी तथा उत्तराखंड सरकार को गंगा में पर्याप्त पानी छोड़ने और गंगा के आस-पास पॉलीथिन को प्रतिबन्धित करने का आदेश दिया था लेकिन अभी भी इन क्षेत्रों में पॉलीथिन पर रोक नहीं लगाई जा सकी है। वर्ल्ड वाइल्ड लाइफ फंड के अनुसार गंगा विश्व की उन दस नदियों में से एक है जिन पर एक बड़ा खतरा मंडरा रहा है। गंगा में मछलियों की लगभग 140 प्रजातिया पाई जाती हैं। हाल ही में हुए एक अध्ययन में पता चला है कि गंगा को स्वच्छ बनाने में सहायक मछलियों की अनेक प्रजातियां प्रदूषण के कारण विलुप्त हो चुकी हैं। हमें यह समझना होगा कि केवल सरकारी परियोजनाओं के भरोसे ही गंगा को स्वच्छ नहीं बनाया जा सकता बल्कि इसके लिए एक जन-जागरण अभियान की जरूरत है।

वॉटर मैनेजमेंट के लिए भेजा प्लान

बगावत पर उतारू पाताल, पानी का साथ छोड़ते कुंए, तालाब, ताल-तलैया और सूखते हलक को देखते हुए अब वॉटर मैनेजमेंट पर सोचना बेहद जरूरी हो गया है। एक तरफ गंगा को बचाने की गंभीर चुनौती हमारे सामने है तो दूसरी तरफ पेयजल और सिंचाई सुविधा को बरकरार रखने की जरूरत। ऐसे में खासतौर से सरकारी स्तर पर पानी को लेकर मजबूत व ठोस पॉलिसी बनानी पड़ेगी जिससे पेयजल व सिंचाई के लिए गंगा व भूमिगत जल के बेहिसाब दोहन पर अंकुश लगे। इस बाबत राष्ट्रीय गंगा नदी घाटी प्राधिकरण के वैज्ञानिक सदस्य और बीएचयू के पर्यावरणविद् प्रो. बीडी त्रिपाठी ने वॉटर मैनेजमेंट पर आधारित एक अध्ययन रिपोर्ट प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को प्रेषित की है। साथ ही इसकी एक प्रति गंगा बेसिन मैनेजमेंट प्लान के लिए गठित आईटियन्स ग्रुप के कोआर्डिनेटर प्रो. विनोद तारे को भी भेजी है। प्रो. त्रिपाठी ने बताया कि हाल ही में राष्ट्रीय गंगा नदी घाटी प्राधिकरण की बैठक में उन्होंने अगाह किया कि हालात को देखते हुए राष्ट्रीय स्तर पर वॉटर मैनेजमेंट पॉलिसी तैयार करने की जरूरत महसूस की जाने लगी है अन्यथा गंगा घाटी क्षेत्र को ड्राईजोन में तब्दील होने से रोका नहीं जा सकेगा। इस बाबत उनसे सुझाव मांगे गए थे। बुधवार को भेजे गए अपने पत्र में उन्होंने बताया है कि, गंगा का प्रवाह घटने से जहां प्रदूषण की मात्रा बढ़ती जा रही है तो बालू जमाव बढ़ने से जल-जीव मर रहे हैं। बड़ा संकट यह है कि गंगा और इसकी घाटी का ईको सिस्टम लड़खड़ा रहा है। ऐसे में गंगा का फ्लो बढ़ाना पहली प्राथमिकता होनी चाहिए। साथ ही ध्यान यह भी रखना होगा कि सिंचाई व पेयजल के नाम पर गंगा का दोहन संतुलित मात्रा में किया जाए। खासतौर से सिंचाई के लिए तो हरहाल में विकल्प तलाशनें होंगे। इसके लिए हमारे पास री-साइकलिंग ऑफ वेस्ट वॉटर तकनीक मौजूद है। हमें सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट के शोधित जल को गंगा में गिराने के बजाए उसे आसपास के कैनाल व नहरों के हवाले कर उसे सिंचाई में प्रयोग करने की योजना बनानी होगी। इससे जहां कैनालों में पानी की उपलब्धता बढ़ेगी तो खेतों की उर्वरा शक्ति बढ़ाने में भी कामयाब होंगे। हमें फ्लड एरिगेशन सिस्टम की जगह माइक्रो एरिगेशन तकनीक व्यवहार में लाना होगा ताकि कम पानी में बेहतर सिंचाई कर सकें। ट्रीटमेंट वॉटर के आधार पर नहरों को थोड़ा और विस्तार दे दिया गया तो ये नहर हमारे ग्राउंड वॉटर को रिचार्ज करने में भी सहायक हो सकती हैं। ठीक इसी तरह पेयजल के लिए हमें वर्षाजल को संरक्षित करने के संसाधनों को हरहाल में विकसित करना होगा। पुराने कुएं, तालाब, बावड़ी, कुंड को वजूद में लाना होगा। ये हमारे भूमिगत जल स्तर को न केवल बढाएंगे बल्कि एक तरफ गंगा जल के दोहन पर हद तक अंकुश लगाएंगे। साथ ही ये हमारे इकोनामिक ग्राफ को भी बढ़ाएंगे। मखाना, मछली पालन, सिंघाड़ा आदि पानी तो लेते नहीं उल्टे धन जरूर दे जाते हैं। हमें वॉटर मैनेजमेंट पॉलिसी तैयार करते समय लोकल स्तर पर भी मॉनीटरिंग कमेटी के गठन पर विचार करना होगा।

गोमती जो एक नदी थी

गोमती नदी की कलकल धारा लोगों की आस्था और विश्वास का संगम थी। उसका साफ और नीला अंजुलियों में भर कर लोग सर-माथे से लगाते थे। लेकिन प्रदूषण ने गोमती के जल को काला कर डाला है। नदी के अतीत और वर्तमान पर निगाह डाल रहे हैं हरिकृष्ण यादव।दियरा में गोमती के दोनों किनारों को पुल ने मिला डाला था, यह देख कर खुशी हुई। साल में एक बार गोमती के पार जाना ही पड़ता है। पुल नहीं था तो नाव से गोमती पार करने के सिवा कोई चारा न था, लेकिन पुल के निर्माण से हुई खुशी नदी के तट पर पहुंचते ही काफूर भी हो गई। पहले जब भी जाना हुआ नाव पर चढ़ने से पहले साफ नीले जल से हाथ-पैर धोकर एक-दो घूंट पानी जरूर पीता था। पर इस बार पानी इतना गंदा था कि घूंट भरना तो दूर पांव तक धोने की इच्छा न हुई। वैसे तो हर साल जेठ के महीने में दशहरे के दिन लाखों श्रद्धालु पवित्र गोमती में स्नान करते हैं। इस बार दशहरे पर नाले में बदल गई गोमती में श्रद्धालु डुबकी लगाने की आस्था कैसे निभाएंगे।दियरा घाट पर पुल देख बचपन की योद ताजा हो गई। बड़े भाई का गौना था। भैया की ससुराल जाने के लिए ज्यादातर रिश्तेदार या तो साइकिल से गए या पैदल। अलबत्ता बच्चों और बुजुर्गों के लिए बैलगाड़ी का बंदोबस्त था। इससे पहले कभी कोई नदी नहीं देखी थी। इसलिए बैलगाड़ी हमें लेकर गोमती के किनारे पहुंची तो लगा कि यह कोई बड़ा तालाब है। सोच में पड़ गया कि बैलगाड़ी आगे कैसे जाएगी। थोड़ी देर में नाव घाट पर आई।बालगाड़ी के पहियों के सामांतर दो पटरे लगा कर बैलगाड़ी को नाव पर धक्का देकर चढ़ाया गया। जबकि बैलों को रस्सी के सहारे नदी पार कराया गया। वापसी में बैलगाड़ी पर बोझ बढ़ गया था। नदी के पास एक नाले में बैलगाड़ी रेत में फंस गई. इस पर मेरे बाबा झुंझला गए। बोले-कोई अंजुरी भर सोना भी देगा तो भी मैं इस पार अपने बच्चों के ब्याह नहीं करूंगा। यह बात अलग है कि झुझलाहट में किए गए उनके संकल्प के बावजूद कइयों का ब्याह नदी पार के गांवो में ही हुआ। बाबा होते तो गोमती पर पुल देखकर खुश होते।गोमती नदीपुल बनने से जहां इलाके लोगों को खासी राहत मिली है। जेठ के दशहरे के मौके पर धोपाप पहुंचने वाले श्रद्धालुओं को जोखिम से छुटकारा भी मिलेगा। जोखिम तो होता ही था क्योंकि जल्दी पहुंचने के चक्कर में श्रद्दालु नाव पर सवार होने से पहले उसकी क्षमता भी नहीं देखते थे। इस वजह से अक्सर नाव पलट जाती थी। कितने ही श्रद्धालुओं की हादसे में जान भी चली गई। इस इलाके में प्रचलित मान्यता है कि रावण का वध करने के बाद भगवान राम ने ब्राह्मण हत्या के पाप से मुक्ति पाने के लिए गोमती में डुबकी लगाई थी। और जिस जगह उन्होंने अपने पाप को धोया था वही कालांतर में धोपाप के नाम से पहचानी गई। धोपाप में गोता लगाने के बाद भगवान राम ने गोमती के तट पर दीया जला कर जहां पूजा की थी, वह दियरा के नाम से चर्चित हो गया। बाद में यह दियरा बाकायदा एक रियासत बन गई। किदवंती तो यह भी है कि दियरा के राजा ने धोपाप में भव्य मंदिर बनाने की शुरुआत की थी। पर कामयाबी नहीं मिली। उसके बाद उन्होंने दियरा में जहां भगवान राम ने पूजा अर्चना की थी, गोमती किनारे वहीं विशाल मंदिर बनवाया। साथ में पांच मंजिला धर्मशाला भी। जिसकी पहली मंजिल तो नदी में ही समाई है। बताते हैं कि नदी के बीच में लगभग सौ मीटर चौड़ी सीढ़ियां हैं। मंदिर के पिछवाड़े फूलों का बगीचा है। बगीचे के बीचों-बीच एक कुआं है। मंदिर इतना सुंदर है कि उसे चाहे कितनी भी देर तक देखते रहें, आंखों थकती नहीं हैं। मंदिर के छज्जे पर लगी विभिन्न मुद्राओं वाली पत्थर की मानव मूर्तियां भी कम आकर्षक नहीं हैं। इन मुद्राओं में नृत्य करती स्त्रियां और ढोल-मजीरे सहित कई वाद्ययंत्र बजाते कलाकार हैं।मंदिर के पश्चिम में करीब एक किलोमीटर के फासले पर राजा का प्राचीन महल है। दरवाजा इतना विशालकाय है कि सजे-धजे हाथियों के इससे गुजरने की कहानी पर कतई अविश्वास नहीं होता। राजमहल के पिछवाड़े किस्म-किस्म के फलदार पेड़ों का विशाल बगीचा था तो दक्षिण में मीलों में फैला आंवे और अमरूद का बगीचा। दरवाजा तो अब भी बचा है। पर लंबे-चौड़े क्षेत्र में बना राजमहल वक्त के साथ खंडहर में तब्दील हो गया है। रख-रखाव की कमी ने हरे-भरे बाग-बगीचे को भी वीरान बना डाला है। दरवाजा सलामत रहने की भी वजह है। दरअसल उसके दोनों किनारों पर कई कमरे बने हैं। जिनमें एक इंटर कालेज चलता है। अपनी भी कुछ पढ़ाई इसी स्कूल में हुई। किशोरावस्था के वे तीन साल खासे मस्ती भरे थे। इसीलिए जब भी इस तरफ से दियरा घाट की तरफ जाता हूं, यहां की तमाम पुरानी यादें ताजा हो जाती हैं।नदी के तट पर स्थित धर्मशाला में राजा ने जूनियर हाई स्कूल चलाने की अनुमती दी थी। रियासतें खत्म होने लगी तो राजा ने अपनी धर्मशाला से इस स्कूल को बाहर करना चाहा। पर गणित के एक अध्यापक अदालत चले गए। अदालत ने राजा के खिलाफ फैसला सुनाया। लिहाजा धर्मशाला में स्कूल का वजूद बना रहा। पढ़ाई के दौरान ही गोमती को कई रूपों में देखा। गर्मी और सर्दी में शांत भाव से बहने वाली गोमती बरसात के मौसम में विकराल रूप धर लेती है। दियरा में चंद्राकार बहने वाली गोमती में जब भी बाढ़ आती, वह कई धाराओं में बहने लगती। तट के गांवों और खेत-खलिहानों को समेटती हुई जब उफान पर होती तो उसे देख कर डर लगता था। स्कूल में भी पानी भर जाता और पढ़ने वालों की छुट्टी हो जाती थी। हालांकि इस तरह छुट्टी मिलना बचपन में बड़ा सुखद लगता था। पानी उतरने पर जब हम लोग स्कूल आते तो पाते के सबसे नीचे वाली मंजिल बालू से अटी पड़ी है। उसकी सफाई में महीनों लग जाते। बाढ़ के बाद पानी उतरता तो उल्टी दिशा में जाते सूंस दिखाई देते. इस विशाल जल जंतु को पंद्रह-बीस मिनट के अंतराल पर पानी में उछल-कूद करते देखना रोमांच पैदा करता था। गर्मियों के दिनों में दोपहर बाद स्कूल की छुट्टी होने पर सीढ़ियों पर बस्ता रख, कपड़े उतार कर नदी में छलांग लगाते। हम ऐसा घंटों करते। हम तैर कर नदी के दूसरे छोर पर निकलते। किनारे पर खड़े पेड़ों से तोड़ कर जंगली जलेबी का मजा लेते। फिर रेत से दांत साफ करते। अब तो चाह कर भी नहीं लौट-सकते बचपन के उस दौर में। धोपाप की पौराणिक महत्ता के कारण जहां हर साल गंगा सागर जाने वाले तीर्थयात्री अयोध्या में भरत कुंड पर पिंडदान करने के बाद यहां डुबकी जरूर लगाते हैं, वहीं जेठ के दशहरे पर दूर-दराज से हजारों की संख्या में श्रद्धालु पहुंचते हैं। गोमती गंगा से भी पुरानी नदी मानी जाती है। मान्यता है कि मनु-सतरूपा ने इसी नदी के किनारे यज्ञ किया था और इसी के तट पर नैमिषारण्य में तैंतीस करोड़ देवी-देवताओं ने तपस्या की थी।
सरकार भी मानती है कि गोमती में प्रदूषण का स्तर बढ़ा है। आईटीआरसी के शोधपत्र के मुताबिक चीनी मिलों और शराब के कारखानों के कचरे के कारण यह नदी प्रदूषित हो चुकी है। गोमती में जो कुछ पहुंचता है वह पानी नहीं बल्कि औद्योगिक कचरा होता है।गोमती पीलीभीत जिले के माधो टांडा के पास एक झील से निकल कर बनारस के पास गंगा में मिलती है। लखनऊ में आमतौर पर गोमती साफ रहती है। सरकार भी मानती है कि गोमती में प्रदूषण का स्तर बढ़ा है। आईटीआरसी के शोधपत्र के मुताबिक चीनी मिलों और शराब के कारखानों के कचरे के कारण यह नदी प्रदूषित हो चुकी है। गोमती में जो कुछ पहुंचता है वह पानी नहीं बल्कि औद्योगिक कचरा होता है। जानकार बताते हैं कि गोमती की दुर्दशा के लिए चीनी मिलें ज्यादा जिम्मेदार हैं। जो अपना कचरा इस नदी में उड़ेलती हैं।दो दशक पहले तक भी लखनऊ और सुल्तानपुर शहरों के आसपास भले गोमती का पानी मटमैला होता था, पर दियरा घाट पर वह हमेशा साफ रहता था। पानी तकनीकी दृष्टि से भले प्रदूषिक हो, पर दिखने में स्वच्छ और पीने में स्वादिष्ट होता था। इस बार पूरी नदी का काला रूप देखा तो बचपन की सारी यादें बेमानी लगने लगीं। एक तो पानी पहले ही काफी प्रदूषित हो चुका है ऊपर से नए बने पुल पर रोजाना हजारों वाहन गुजरेंगें तो स्वाभाविक है कि यहां की आबोहवा भी प्रदूषित हुए बिना न रहेगी। विकास का मतलब अगर प्राकृतिक संसाधनों का विनाश है तो ऐसे विकास का फायदा क्या है।

गांधी के पथ पर संत

Source: दि संडे पोस्टशिवानंद महाराजसाधारण सा धोती-कुर्ता और खड़ाऊं पहने दुबली-पतली काया वाले एक संत बाकी संतों से कुछ अलग हैं। यह न बड़े पण्डाल में बैठ प्रवचन देते हैं, न ही टेलीविजन चैनलों में, पर गांधी को भूल चुके उनके अनुयायियों के लिए ये एक सीख की तरह हैं। इनके गाँधीवादी तरीके से जारी आंदोलनों ने कई बार शासन को अपनी नीतियाँ बदलने को मजबूर किया। गंगा को खनन माफियाओं से बचाने की इनकी लड़ाई लगातार जारी है। ये संत हैं हरिद्वार के कनखल में गंगा किनारे बने मातृसदन के कुटियानुमा आश्रम में रहने वाले शिवानंद महाराज स्टोन क्रेशर माफिया और शासन-प्रशासन की कैद में खोखली होती गंगा को मुक्त कराने का एक दशक से भी लंबा इनका संघर्ष किसी से छुपा नहीं है। शिवानंद महाराज की गंगा को प्रदूषण मुक्त कराने की प्रतिबद्धता ऐसे दौर में भी लगातार बनी हुई है जब गंगा के नाम पर खूब राजनीति हो रही हैराष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने सत्याग्रह की शुरूआत दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद के खिलाफ सबसे पहले की थी। इस आंदोलन की बड़ी विशेषता अनशन को हथियार बना सत्ता तक अपनी बात पहुंचाना और मनवाना था। गांधी जी ने बाद में राष्ट्रीय स्वाधीनता संग्राम में इसको बार-बार अंग्रेजी सत्ता के खिलाफ अपना सबसे ताकतवर हथियार बना इस्तेमाल किया। वे कुल 17 बार अनशन पर बैठे थे। गांधी अनशन को सबसे श्रेष्ठ प्रकार की पूजा कहते थे। हरिद्वार मातृसदन के महात्मा शिवानंद महाराज गांधी जी से प्रेरणा ले अनशन को खनन माफियाओं और संवेदनहीन सरकार के विरुद्ध हथियार बना एक अनूठी लड़ाई लड़ रहे हैं। हिंसक माफियाओं के खिलाफ उन्हें इस अहिंसक युद्ध में कई बार जान की बाजी तक लगानी पड़ी है लेकिन वे पीछे हटने को तैयार नहीं हैं।बिहार के दरभंगा जिले में सझुआर गांव के मूल निवासी शिवानंद महाराज के पिता बचपन में ही गुजर गए थे। इनका पालन पोषण मां ने किया। आठवीं कक्षा से ही इनका झुकाव अध्यात्म की ओर हो गया। बिहार विश्वविद्यालय से कैमिस्ट्री में बीएससी करने के बाद कोलकाता के जादवपुर विश्वविद्यालय से एमएससी की डिग्री ली। पढ़ाई पूरी कर केशोराम इंटर कॉलेज कोलकाता में प्रवक्ता बन गए। अपनी पढ़ाई का खर्च उठाने के लिए इन्हें छोटे मोटे काम भी करने पड़े।अध्यात्म के प्रति झुकाव ने इन्हें तीर्थ यात्रा करने के लिए प्रेरित किया। कॉलेज की छुट्टियों में शिवानंद महाराज उत्तराखण्ड की घाटियों में आने लगे। यह 1970 का दशक था। सत्तर के दशक से ही इनकी उत्तराखण्ड की नियमित यात्रा शुरू हुई। शिवानंद महाराज कहते हैं'उत्तराखण्ड की घाटियों और जंगलों में आकर सुकून मिलता था। यहां की प्रकृति बार-बार आकर्षित करती थी। छुट्टियों में यहां ध्यान करता था।' तभी से संन्यास को इन्होंने आधार बनाया। जून 1994 में कॉलेज की छुट्टियों के समय शिवानंद महाराज बदरीनाथ आए थे। बदरीनाथ में ही इन्होंने घर त्यागने का फैसला लिया। 1995 में घर बार छोड़कर पूरी तरह संन्यासी जीवन अपना लिया। भिक्षा मांग कर अपना जीवन चलाने लगे। शुरूआती दिनों में ब्रज को इन्होंने अपना स्थान बनाया लेकिन 1996 में ये हरिद्वार आ गए। हरिद्वार के कनखल में एक बगीचे में रहने लगे। उस वक्त इनके आठ-दस अनुयायी भी थे जो इनके साथ रहते थे। हरिद्वार में आकर इन्होंने भिक्षा फंड बनाया और इसी में मिलने वाले दान से ये और इनके शिष्य जीवन यापन करने लगे।हरिद्वार आने वाले विदेशी श्रद्धालुओं की मदद से मातृसदन को स्थापित किया गया। डरबन विश्वविद्यालय में फाइन आर्ट्स की प्रोफेसर ललिता जवाहरी लाल ने मातृसदन की स्थापना में अहम भूमिका निभाई। ललिता हरिद्वार ध्यान के लिए आती थीं लेकिन सुबह चार बजे से ही हरिद्वार में बजने वाले लाउडस्पीकरों के चलते वे ध्यान नहीं कर पाती थीं। इस दौरान वे शिवानंद महाराज के संपर्क में आईं और उनकी शिष्य बन गईं। कनखल में गंगा के किनारे करीब पांच एकड़ जमीन खरीदकर उन्होंने मातृसदन आश्रम बनाया। गंगा किनारे तप कर रहे शिवानंद महाराज ने 1997 से गंगा को बचाने की मुहिम शुरू की। पहले उत्तर प्रदेश फिर उत्तराखण्ड शासन में लंबी लड़ाई के बाद पिछले साल इन्हें आंशिक सफलता मिली है।महाकुंभ 2010 से पहले खनन माफियाओं के दबाव में प्रदेश सरकार ने कुंभ मेला क्षेत्र को गंगा तट से सिमटाकर अन्य क्षेत्रों में फैला दिया। इस फैलाव में पौड़ी एवं देहरादून जिले के कई इलाकों को शामिल किया गया था। लेकिन हरिद्वार के मुख्य गंगा तट की तरफ इसे कम कर दिया गया। कुंभ मेला 1998 और वर्तमान कुंभ मेला 2010 के नक्शे से यह स्पष्ट होता है। इसकी मुख्य वजह इलाहाबाद उच्च न्यायालय का वह फैसला माना जाता है जिसमें कुंभ मेला क्षेत्र में खनन पर रोक लगाई गई थी। गंगा किनारे हो रहे खनन वाले क्षेत्र को कुंभ क्षेत्र से निकालकर सरकार ने अपनी मंशा जाहिर कर दी थी कि खनन में उसकी सहमति और भागीदारी है। इस साजिश को नाकाम करने के लिए मातृसदन के महात्मा सौ से अधिक दिनों तक आमरण अनशन पर बैठे। राज्य सरकार ने इनकी बात सुनने के बजाय इन्हें प्रताड़ित करने में अपनी ताकत झोंक दी। दिल्ली से एक केंद्रीय मंत्री तक मातृसदन के महात्माओं से मिलने पहुंच गए लेकिन राज्य सरकार की नींद नहीं खुली। कुंभ के दौरान हरिद्वार में बढ़ने वाली श्रद्धालुओं की भीड़ तथा राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मीडिया की शहर में उपस्थिति से सरकार पर भारी दबाव था। आखिरकार सरकार ने 18 मार्च 2010 को आदेश (जीओ) जारी कर कुंभ क्षेत्र को गंगा तट की ओर बढ़ाया। एक सप्ताह बाद 26 मार्च 2010 को एक और सरकारी आदेश (जीओ) में कुंभ क्षेत्र में खनन पर रोक लगा दी गई। फिर भी गंगा में चल रहे खनन पर विराम नहीं लग सका। खनन कर रहा हिमालयन स्टोन क्रेशर कोर्ट की शरण में पहुंच गया और वहां से स्टे ले आया। मातृसदन के अनुसार बिना सरकार और दूसरे पक्ष को सुने न्यायालय ने खनन माफिया को स्टे दे दिया।गौरतलब है कि वर्ष 1998 में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने खनन माफियाओं से गंगा को बचाने के लिए कुंभ क्षेत्र में खनन एवं स्टोन क्रेशरों पर पूर्ण प्रतिबंध लगाने का आदेश दिया था। उस वक्त उच्च न्यायालय के आदेश का पालन करते हुए प्रशासन ने गंगा किनारे चल रहे सात स्टोन क्रेशरों में से छह को बंद करा दिया था। लेकिन प्रशासन यहां चल रहे हिमालयन स्टोन क्रेशर को पूर्णतः बंद कराने में नाकाम रहा। बताया जाता है कि हिमालयन स्टोन क्रेशर में भाजपा के एक मंत्री की हिस्सेदारी है। इसलिए जब भी प्रदेश में भाजपा की सरकार बनती है, यह स्टोन क्रेशर यहां चालू हो जाता है। हरिद्वार में कुंभ मेला शुरू होने के पहले से ही सरकार पर इस खनन माफिया का भारी दबाव था। यही वजह है कि सरकार ने इस बार कुंभ मेला 2010 के क्षेत्र को गंगा तट की तरफ कनखल तक सीमित कर दिया ताकि हाईकोर्ट के आदेश की अवहेलना पर शासन-प्रशासन अपना पल्ला झाड़ सके। वर्ष 1998 के कुंभ मेला क्षेत्र में जगजीतपुर, अजीतपुर, मिस्सरपुर एवं जियापोता शामिल था। हिमालयन स्टोन क्रेशर मिस्सरपुर और अजीतपुर घाट पर ही है। इसलिए इस बार मिस्सरपुर, अजीतपुर सहित जगजीतपुर और जियापोता को कुंभ मेला क्षेत्र से बाहर कर दिया गया। इस बात का पता चलते ही पिछले बारह साल से गंगा बचाने की लड़ाई लड़ रहे मातृसदन के महात्मा आमरण अनशन पर बैठ गए। 15 अक्टूबर 2009 से ये कुंभ क्षेत्र बढ़ाने की मांग के साथ अनशन पर बैठे। एक सौ से ज्यादा दिन बीत जाने के बाद भी राज्य सरकार का कोई प्रतिनिधि इनसे बात करने के लिए नहीं पहुंचा। इसी बीच केंद्रीय पर्यावरण एवं वन राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार) जयराम रमेश ने अपने हरिद्वार दौरे के दौरान मातृसदन पहुंचकर पूरे मामले की जानकारी ली और कार्रवाई करने के आदेश दिए थे। केंद्रीय मंत्री के आने के बाद भी राज्य सरकार का कोई नुमाइंदा तत्काल इनसे मिलने नहीं आया।उस वक्त शिवानंद महाराज ने कहा था कि ' कुंभ मेला क्षेत्र को गंगा तट से कम करने के पीछे का सरकारी मकसद साफ है। सरकार खनन को रोकना नहीं चाहती। हमारे अनशन पर रोक लगा दी जाती है और अनशन खत्म होते ही खनन फिर शुरू हो जाता है। इस दौरान रात-दिन खनन कर माफिया साल भर का स्टोन जमा कर लेते हैं। बाद में उसका व्यापार करते हैं।' सरकार के रवैये को देखते हुए मातृसदन के महात्माओं ने घोषणा की 'यदि सरकार खनन पर स्थायी रोक नहीं लगाती तो मेले में वे पूर्ण आहुति देंगे।' इसके बाद हरिद्वार के जिलाधिकारी ने मामले की गंभीरता को देखते हुए महात्माओं की मांग की संस्तुति कर सरकार के पास भेजा। 24 जनवरी 2010 को जिलाधिकारी हरिद्वार के भेजे गए पत्र में स्पष्ट लिखा था कि मातृसदन के महात्मा पूर्ण आहुति के लिए अमादा हैं। ये बिना स्थायी समाधान के मानने को तैयार नहीं हैं। जिलाधिकारी ने यह भी आशंका व्यक्त की थी कि हरिद्वार में चल रहे कुंभ मेले में देश-विदेश से संत महात्मा एकत्रित हो रहे हैं। शहर में राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय मीडिया भी उपस्थित है। इसलिए यदि इसका तत्काल समाधान नहीं किया गया तो मेले में अवांछनीय घटना हो सकती है। जो सरकार और प्रशासन के लिए कठिनाइयां उत्पन्न कर सकती है। जिलाधिकारी के इस पत्र के बाद ही सरकार ने 18 मार्च 2010 और 26 मार्च 2010 को जीओ जारी किया था।गौरतलब है कि 'दि संडे पोस्ट' ने 15 नवंबर 2009 के अंक में खनन माफिया पर विस्तृत रिपोर्ट प्रकाशित की थी। इसमें बताया गया था कि गंगा बचाने की मुहिम में जुटे मातृसदन के महात्माओं को प्रशासन ने प्रताड़ित करने के साथ कैसे उन पर कई झूठे मामले दर्ज किए। आमरण अनशन पर बैठे दो महात्माओं संत दयानंद तथा यजनानंद ब्रह्मचारी को गिरफ्तार कर जेल भी भेजा गया था। अनशन के दौरान यजनानंद ब्रह्मचारी ने कुछ भी खाने-पीने से मना कर दिया था। जबरदस्ती करने पर उन्होंने जिंदगी भर पानी तक नहीं पीने की धमकी दी थी। फिर भी पुलिस ने उन्हें त्रयोदशी व्रत के दिन जबरदस्ती नली से तरल पदार्थ दिया। जेल में उनकी तबीयत बिगड़ने पर पुलिस उन्हें आश्रम छोड़कर चली गयी। संत कई दिनों तक अस्पताल के आईसीयू में भर्ती रहे। वहीं आश्रम में शांतिपूर्ण ढंग से अनशन पर बैठे महात्मा शिवानंद पर भी प्रशासन का डंडा समय-समय पर चलता रहा।बाद में जेल भेजे गए महात्माओं पर लगाए गए सभी आरोप निराधार साबित हुए। आरोपों की जांच कर रही पुलिस जांच टीम इस पर अपनी फाइनल रिपोर्ट में सभी आरोप फर्जी बताए। इस रिपोर्ट के बाद पुलिस प्रशासन को मुंह की खानी पड़ी। महात्माओं को जेल भेजने के अलावा आश्रम की सुरक्षा में तैनात रहे सुरक्षाकर्मियों के शासकीय शुल्क के रूप में करीब 25 लाख रुपये वसूलने का दबाव बनाया गया। जबकि यह सुरक्षाकर्मी आश्रम को निःशुल्क प्रदान किए गए थे।शिवानंद महाराज की गंगा बचाने की मुहिम पिछले साल तब रंग लाई जब सौ से भी ज्यादा दिनों तक इनके आमरण अनशन के बाद उत्तराखण्ड सरकार ने गंगा किनारे स्टोन क्रेशर पर पाबंदी लगाने का आदेश जारी किया। यह आदेश 18 और 26 मार्च 2010 को जारी किया गया था। तब स्टोन क्रेशर मालिक कोर्ट जाकर इस आदेश पर स्टे प्राप्त कर लिया था। मातृसदन के संस्थापक शिवानंद महाराज ने न्यायाधीश बीएस वर्मा के समक्ष इस पर रोक के लिए याचिका दायर की थी। लेकिन कोर्ट ने बिना इनका पक्ष जाने पर्यावरण कानून का उल्लंघन होने के बावजूद इनकी याचिका को खारिज कर दिया। यह आश्चर्यचकित करने वाला फैसला था। न्यायाधीश बीएस वर्मा के इस फैसले से शिवानंद महाराज की लड़ाई को झटका लगा लेकिन वे पीछे नहीं हटे। इन्होंने पिछले साल एक बार फिर अनशन शुरू कर दिया जिसके बाद राज्य सरकार ने 10 दिसंबर 2010 को कुंभ क्षेत्र से खनन पर पूर्णतः रोक लगा दी। इस बार मातृसदन के महात्माओं की ओर से कोर्ट में कैबेट दाखिल किया गया था। इसके बाद उक्त मामले को चुनौती देने वाले किसी याचिका के दाखिल होने पर कैबेट देने वाले व्यक्ति को जानकारी दी जाती है तथा उन्हें अपना पक्ष रखने का मौका दिया जाता है। इस सरकारी आदेश के बाद हिमालयन स्टोन क्रेशर मालिक ने 27 दिसंबर को नैनीताल हाईकोर्ट के न्यायाधीश तरुण अग्रवाल के समक्ष याचिका दाखिल कर दी। इस मामले पर मातृसदन द्वारा कैबेट दर्ज कराए जाने के कारण कोर्ट को उन्हें अपना पक्ष रखने का मौका दिया जाना चाहिए था लेकिन ऐसा नहीं किया गया। हिमालयन स्टोन क्रेशर मालिक को याचिका दाखिल करने के दूसरे दिन ही स्टे दे दिया गया। नियमतः सरकारी आदेश पर स्टे लगाने की याचिका पर सरकार से जवाब मांगा जाता है और कैबेट दाखिल करने वाले को भी पक्ष रखने का मौका दिया जाता है।इस फैसले से आहत होकर मातृसदन के संस्थापक शिवानंद महाराज ने दो जनवरी से फिर अनशन पर बैठने का फैसला लिया था लेकिन कुछ विशेषज्ञों ने उन्हें सलाह दी कि अनशन के पहले हाईकोर्ट के डबल बेंच में अपील करनी चाहिए। 6 जनवरी को नैनीताल हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश बारेन घोष और न्यायाधीश वीके बिष्ट की बेंच में याचिका दाखिल की गयी। सुनवाई के दौरान मुख्य न्यायाधीश की बेंच ने रोक लगाने की बात कही थी लेकिन सुनवाई के बाद जब मातृसदन वालों को फैसले की कॉपी दी गई तो उसमें स्टे पर रोक नहीं लगायी गयी। मातृसदन के महात्माओं ने जब इस पर खोजबीन की तो आश्चर्यचकित करने वाले नतीजे सामने आए। शिवानंद महाराज कहते हैं 'हाईकोर्ट के रजिस्ट्रार एनडी तिवारी ने बेंच के आदेश को बदल दिया है। अब कोर्ट में भी भ्रष्टाचार सामने आने लगा है। जब पूरी शासन व्यवस्था को भ्रष्टाचार की दीमक खा रही है तो ऐसे में न्यायपालिका पर सबकी उम्मीदें टिकी रहती हैं। हमने देखा कि हमारे मामले में न्यायाधीश वर्मा और न्यायाधीश तरुण अग्रवाल ने कानून को नजरंदाज कर फैसला सुनाया। इन दोनों न्यायाधीशों के खिलाफ हमने शिकायत की है।'

हमेशा के लिए ना रूठ जाए गंगा

देश में गंगा का अगर कहीं बहुत ही खूबसूरत रूप दिखता है तो वो है वाराणसी, लेकिन, गंगा अब काशी के लोगों को अपना डरावना रूप दिखा रही है. पहली बार वाराणसी के घाटों से गंगा दूर हो गई है और काशी के लोगों को अब ये डर सता रहा है कि कहीं उनसे हमेशा के लिए ना रूठ जाए गंगा