Wednesday 20 June, 2012

वरुणा की निर्मलता को किया यज्ञ




Story Update : Wednesday, June 20, 2012     2:15 AM
सेवापुरी। वरुणा की अविरलता-निर्मलता की अलख जगाने के बाद भी यह मुहिम जारी है। काशी प्रांत के गोरक्षा प्रमुख राधेश्याम सिंह उर्फ लल्लू बाबा के नेतृत्व में बड़ी संख्या में लोगों ने मंगलवार की सुबह कई गांवों का भ्रमण करने के बाद दानूपुर स्थित काली मंदिर के परिसर में यज्ञ का आयोजन किया। इस दौरान लोगों ने हवन कर वरुणा की अविरलता और निर्मलता की कामना की।
यज्ञ में शामिल लोगों ने वरुणा की अविरलता की कामना मां काली से की। वरुणा के विरुद्ध कदम उठाने वालों की बुद्धि शुद्धि के लिए प्रार्थना की। तड़के बड़ी संख्या में लोग हाथी, सराहूपुर, बरनी, पचवार, बेसहूपुर, गोसाईपुर, दानूपुर आदि गांवों में भ्रमण कर लोगों को जागरूक किया। इसके बाद काली मंदिर पहुंच कर सात बजे से यज्ञ शुरू किया।

Monday 18 June, 2012

"मेरे शहर में "


esjs 'kgj esa]
                                          
                                               & MkWŒ O;kses’k fp=oa’k ,MoksdsV

          esjk ’kgj bl le; xehZ ds rki ls yjt jgk gSA lwjt ls cjlrs vaxkjs vkSj /kjrh ls fudyrh rfi’k ds lkFk ikjs us Åij vkSj Åij p<+us dh gksM+ yxk j[kh gSA fdruk vthc gS ufn;ksa ds uke ij clk xaxk ds [kwclwjr ?kkVksa okyk ;g ’kgj vkt [kqn esa gSjku o ijs’kku gSA ijs’kku Hkh D;ksa u gks\ ’kgj dks uke nsus okyh ufn;kW ;k rks foyqIr gks pqdh ;k foyqIr gksus ds dxkj ij gS vkSj xaxk ds ?kkV\ vkg! tc dy xaxk gh ugh jgsxh rks ;s ?kkV D;k djsxsa\ eq>s ;kn ugha dgkWaa++ ysfdu dgha lquk Fkk fd ,d ckj ekW ikoZrh us Hkxoku 'kadj ls iwNk Fkk fd cukjl dh mez D;k vkSj fdruh gksxh rks vo/kwr Hkxoku ’kadj us dgk Fkk fd ^^;g vkfn dky ls Hkh igys vukfn dky ls clh gS ;kfu ekuo lH;rk ds vkfne bfrgkl dk’kh ls tqM+rs gS vkSj tc rd lqjlj xkfeuh HkxhjFk ufUnuh xaxk cukjl ds ?kkV ij jgsxh rc rd dk’kh v{kq..k jgsxhA** rks D;k xaxk ds ?kkVksa dks NksM+us ds lkFk gh esjk ’kgj-------\  vkSj dgha vUnj rd eu dks fgyk nsrh gS ;g Hk;kud dYiuk! ;kn vkrk gS] *puk pcsuk xaxk ty T;ksa iqjoS djrkj] dk’kh dcgq¡ u NksfM+;s fo’oukFk njckjA* vc rks u xaxk esa ^xaxk ty* jg x;k] u gh lcds fy;s eqvLlj ^fo’oukFk njckj*A vc rks nksuksa gh ljdkjh fuxgokuh esa fnYyh vkSj y[kuÅ ds b’kkjksa ij feyrs gSaA ekW xaxk vkSj Hkxoku fo’oukFk ds ljdkjhdj.k ls vius ’kgj dh fLFkfr mruh ugha [kjkc gqbZ ftruh ge cukjfl;ksa ds uo HkkSfrdoknh lksp vkSj ^rksj ls c<+dj eksj okyh* vilaLd`fr us vius 'kgj dk uqdlku fd;kA 'kgj c<+rk x;k vkSj gekjh lksp dk nk;jk fldqM+rk x;kA dHkh yaxM+s vke o cjxn ds isM+ksa vkSj ydM+h ds f[kykSus ds fy, e’kgwj cukjl esa isM+ksa dh Nk¡o vc fxus pqus mnkgj.k cudj jg x;hA ^esjs ?kj dh uhao iM+ksl ds ?kj ls uhph u jgs D;ksafd ÅWps ukd dk loky gSA* bl ^ukd* ds loky us cjlkrh ikuh ds jkLrksa dks lhoj tke] ukyh tke ds HkqyHkqYkS;k esa my>k fn;k rks ^iM+kslh ds nks gkFk ds cnys gekjh pkj gkFk lM+d dh tehu* dh lksp us bl ’kgj dks ,d ubZ leL;k ^vfrØe.k* ds uke ls nhA rkykc iks[kjksa dk rks irk gh ugha] dq;sa D;k ge bu vkyh’kku edkuksa ds cslesUV esa eksecRrh tykdj
      dgus dks rks cgqr dqN gS ysfdu yCcksyqvkc ;g gS fd ’kgj dh lsgr Bhd ugh gSA bu iafDr;ksa ds izdkf’kr gksus rd vxj dgha ekulwu vk x;k rks vke ’kgjh dh fpUrk ;gh gS fd xehZ dh rfi’k rks de gks tk;sxh ysfdu ukys cus xM<+snkj lM+dksa ls ?kj dSls igqWpsxsa\ blh ls rks cjlkr pkgrs gq, Hkh eu esa ,d nch lh pkgr gS fd nks pkj fnu vkSj ekulwu Vy tk;s rks ’kk;n-----------A
      viuh gh ugh lkjs ’kgj dh ckr dgsa rks ,d 'ksj ;kn vkrk gS&
            lhus esa tyu] vkWa[kksa esa rwQku lk D;wW gSA
            bl ’kgj esa gj 'k[l ijs’kku lk D;wWa gS\

                              ¼ys[kd fof/k O;olk;h ,oa ^gekjh o:.kk* vfHk;ku  ds la;kstd gS½

Saturday 16 June, 2012

यूपी की एक दर्जन नदियों का अस्तित्व खतरे में

पूर्वी उत्तर प्रदेश में बढ़ता जा रहा है जल संकटवाराणसी (डीएनएन)। प्रदूषण और अंधाधुंध दोहन से पूर्वी उत्तर प्रदेश की एक दर्जन नदियां मृतप्राय हो चुकी है और जो बची हैं उनका भी अस्तित्व खतरे में है। इनमें अधिकतर गंगा एवं यमुना की सहायक नदियां हैं। जल ही जीवन है और पानी बचाओ जैसे नारे बेमानी हो चुके हैं। इन नदियों के प्रति न तो सरकार और न जनता जागरूक है। नदियां प्रदूषण से कराह रही हैं। इनका अंधाधुंध दोहन जारी है। शहरों का गंदा जल एवं कारखानों का कचरा इन नदियों में बेरोक टोक गिर रहा है। गंगा एवं यमुना समेत तमाम नदियां या तो प्रदूषण की मार झेल रही हैं या सूखने की त्रासदी। पूर्वी उत्तर प्रदेश में जल संकट बराबर बढ़ता जा रहा है। नदियों से मनुष्य का नाता किसी से छुपा नहीं है। पीने के पानी, नहाने, धोने से लेकर सिचाई तक आदमी नदियों पर निर्भर है। यहां तक कि सारे संस्कार एवं धार्मिक अनुष्ठान नदियों के किनारे सम्पन्न होते हैं। धार्मिक नगरी वाराणसी में गंगा प्रदूषण के चलते काली पड़ गयी है। उनका बहाव नाम मात्न को रह गया है। अब तो हाल यह है कि लोग गंगा स्नान करने से कतराने लगे हैं। वरुणा एवं अस्सी जिनके योग से वाराणसी नाम पड़ा नाले के रुप में परिवति॔त हो चुकी है। इन दोनों नदियों में पानी कम कचरा अधिक नजर आता है। उधर से गुजरने वाले लोग बदबू के चलते नाक पर कपड़ा रखने को मजबूर होते हैं। असी नदी में शहर के बड़े हिस्से का गंदा पानी बह रहा है। वरुणा में बड़े-बड़े गन्दे नाले बेरोकटोक गिर रहे हैं। नदी के दोनो किनारों पर अवैध कब्जा कर अट्टालिकाएं बन रही है। कालोनियों का सारा गंदा पानी नदी में गिर रहा है यही नही शहर का सारा कचरा इनके किनारों पर डाला जा रहा है। जौनपुर में भी पीली एवं सई नदी प्रदूषण की मार झेल रही है। गोमती नदी की हालत भी खस्ता है। इलाहाबाद में यमुना एवं गंगा में दर्जनों गंदे नाले गिर रहे हैं। फैजाबाद मे बहने वाली मडहा एवं विषही नदियों में बरसात को छोड़ अन्य दिनों में पानी नही रहता। सिल्ट जमा होने के कारण दोनों नदियां छिछली हो गयी है। रामचरित मानस में वíणत तमसा नदी का भी वजूद खतरे में हैं। मिर्जापुर में खतुही नदी सूखने के कगार पर है। सोन नदी भी सिकुड़ कर नाला बन गयी है। इन नदियों के सूखने से जल स्तर तेजी से घट रहा है। गर्मी शुरु होते ही हैन्डपम्प कुएं एवं नलकूप सूख जाते हैं। नदियों को आपस में जोडने की बात तो होती है पर अमल में नही लाया जाता। सैकड़ों गांवों की प्यास बुझाने वाली गाजीपुर की मन्गई नदी में गर्मी आते आते इतना भी पानी नहीं बचता की खुद अपनी प्यास बुझा सके। मई जून में तो इसकी तलहटी में धूल उड़ती है। पर्यावरणविदों का कहना है कि समय रहते हम नही चेते तो गंगा यमुना का यह क्षेत्र न केवल भयंकर जल संकट से जूझेगा बल्कि देश की सांस्कृतिक पहचान ये नदियां इतिहास के पन्नों की चीज रह जाएगी एवं हरा भरा मैदान रेगिस्तान में बदल जाएगा।

"गंगा एक्शन प्लान" के सूत्रधार प्रो. बी.डी. त्रिपाठी की चेतावनी

"गंगा एक्शन प्लान" के सूत्रधार प्रो. बी.डी. त्रिपाठी की चेतावनी


अनर्थ हो जाएगा!!
प्रो. बी.डी. त्रिपाठी देश के जाने-माने पर्यावरण विशेषज्ञ हैं। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के वनस्पति शास्त्र विभाग में पिछले 30 वर्षों से गंगा, पर्यावरण आदि विषयों पर वह अध्ययन-अध्यापन एवं अनुसंधान कर रहे हैं। प्रो. त्रिपाठी को राष्ट्रपति द्वारा "पर्यावरण मित्र" का पुरस्कार भी मिल चुका है। गंगा के प्रदूषण मुक्ति अभियान के लिए केन्द्र सरकार द्वारा बनाए गए "गंगा एक्शन प्लान" से उनका प्रारंभ से ही जुड़ाव रहा है। 1981 में संसद में श्री एस.एम. कृष्णा ने गंगा में बढ़ते प्रदूषण पर जो पहला प्रश्न पूछा था, वह प्रो. त्रिपाठी के अनुसंधान पर ही आधारित था। प्रो. त्रिपाठी ने उसी समय चेताया था कि गंगा में प्रदूषण बढ़ रहा है, सरकार और समाज इस ओर ध्यान दे। प्रो. त्रिपाठी राष्ट्रीय पर्यावरण संरक्षण परिषद के अध्यक्ष भी हैं और प्रयाग उच्च न्यायालय द्वारा "गंगा एक्शन प्लान" के तकनीकी विशेषज्ञ भी नियुक्त किए गए हैं। यहां प्रस्तुत है उनसे "गंगा एक्शन प्लान" और टिहरी बांध के पर्यावरणीय पहलुओं पर हुई बातचीत के मुख्य अंश -
वैज्ञानिक प्रयोगों द्वारा यह सिद्ध किया जा चुका है कि गंगाजल अद्भुत विशेषताओं से युक्त है। इसके जल में आक्सीजन की मात्रा बहुत ज्यादा होती है तथा इसमें बैक्टीरियोफाज पाया जाता है, जिससे इसके जल में कीड़े नहीं पड़ते। पड़ते भी हैं तो यह बैक्टीरियोफाज उन्हें समाप्त कर देता है। यानी इसमें प्रदूषण को दूर करने की अपनी ताकत है, जो किसी अन्य नदी में नहीं पाई जाती। इसीलिए हमारे पुरखों ने गंगा जल को औषधि कहा, इसके गुण गाए।
टिहरी बांध के अधिकारियों का यह कहना कि एक पाइप द्वारा गंगा की अविरल धारा जारी है, मुझे तरस आता है। यह तो वैसे ही हुआ कि मानो वरुणा नदी में आठ-दस बाल्टी गंगा जल छोड़कर हम कहें कि लीजिए साहब, वरुणा नदी अब गंगा हो गई। यह कहते हुए उन्हें शर्म भी नहीं आती।
सरासर झूठ बोला जा रहा है। गंगा का मूल प्रवाह ही वास्तव में रोक दिया गया है। इसका प्रभाव विनाशकारी होगा। वस्तुत: हमारे पापों की सजा गंगा को मिल रही है। लेकिन शीघ्र ही लोगों को समझ में आएगा कि हम अनर्थ की ओर बढ़ रहे हैं। इसका असर उत्तर भारत, विशेषत: उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल की कृषि पर भी होगा। यहां के पौधे गंगा जल की गुणवत्ता से वंचित होंगे। जल की गुणवत्ता का पौधे पर काफी असर होता है।
जहां तक "गंगा एक्शन प्लान" का विषय है, 1981 में प्रधानमंत्री (स्व.) श्रीमती इंदिरा गांधी के समय इसकी शुरुआत हुई थी। इन्दिरा गांधी 1981 में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में 68वीं विज्ञान कांग्रेस का उद्घाटन करने आई थीं। उनके साथ भारतीय कृषि वैज्ञानिक एवं योजना आयोग के सदस्य डा. एम.एस. स्वामीनाथन भी थे। उस समय दोनों लोगों ने मुझे बुलाकर गंगा में बढ़ते प्रदूषण पर जानकारी ली थी। इन्दिरा जी ने उस समय कहा था कि हर हाल में गंगा में बढ़ता प्रदूषण रुकना चाहिए। दिल्ली लौटकर उन्होंने उत्तर प्रदेश, बिहार व प. बंगाल के मुख्यमंत्रियों को इस सन्दर्भ में पत्र लिखा ताकि गंगा में प्रदूषण रोकने के लिए एक समग्र कार्यक्रम शुरू हो सके। बाद में श्री राजीव गांधी ने गंगा को प्रदूषण मुक्त करने का मुद्दा कांग्रेस के चुनाव घोषणा पत्र में डाला और 1984 में कांग्रेस सरकार बनने के बाद "गंगा एक्शन प्लान" बना। इसके अन्तर्गत केन्द्र सरकार ने 500 करोड़ रुपए भी तत्काल स्वीकृत कर दिए और काशी, कानपुर और पटना में बड़े-बड़े मल व्ययन संयन्त्र (सीवेज ट्रीटमेन्ट प्लान्ट) के निर्माण का कार्य प्रारम्भ कर दिया गया। उस समय मैंने इस योजना की खामियों की ओर सरकार का ध्यान आकृष्ट किया और पत्र लिखकर कहा कि, "जल्दबाजी में गंगा प्रदूषण नियंत्रण का कार्य प्रारम्भ मत करिए। इस सन्दर्भ में कोई योजना बनाने के पूर्व वैज्ञानिकों की टीम से विचार-विमर्श अवश्य हो, ताकि जो भी कार्यक्रम बने वह परिणामकारी हो।" लेकिन मेरी बात अनसुनी कर दी गई। परिणाम यह निकला कि करीब 5-6 वर्षों के बाद वाराणसी मल व्ययन संयन्त्र के महाप्रबंधक ने हस्तक्षेप करने पर उच्च न्यायालय को बताया कि, " उद्योगों से जो भारी प्रदूषक तत्व गंगा में डाले जा रहे हैं, हमारा संयन्त्र इस प्रदूषण को दूर कर पाने में अक्षम है।" तब उच्च न्यायालय ने तकनीकी विशेषज्ञ के रूप में मुझसे सलाह ली थी। मैंने न्यायालय के समक्ष तब यही कहा था कि, "ये सही बात है कि यह संयन्त्र गंगा में औद्योगिक प्रदूषण को दूर कर पाने में अक्षम है। लेकिन इसकी जानकारी तो सरकार को हमने पहले ही दे दी थी।" मैंने न्यायालय के समक्ष यह भी कहा कि, "यह जानते हुए भी कि प्रदूषण कम होने की बजाय बढ़ रहा है, सरकार ने 500 करोड़ रुपए का व्यय गंगा-प्रदूषण रोकने के नाम पर क्यों किया?" मेरे इसी तर्क पर उच्च न्यायालय ने "गंगा एक्शन प्लान" के द्वितीय चरण का 1200 करोड़ रुपया, जो स्वीकृत किया जा चुका था, रोकने का आदेश दिया। न्यायालय ने छह सदस्यीय समिति बनाकर यह भी कहा कि जो भी कार्यक्रम आगे बनेगा, इस समिति की संस्तुति पर ही बनेगा। लेकिन सरकारी रवैया ढुलमुल ही रहा।
मुझे दु:ख होता है कि सरकार ने गंगा के सवाल पर सदैव अदूरदर्शिता ही दिखाई है। वैज्ञानिकों- विशेषज्ञों के प्रामाणिक अनुसंधानों को दरकिनार कर योजनाओं का क्रियान्वयन किया गया है। टिहरी बांध के विषय में भी मैंने विरोध किया, कई अन्य वैज्ञानिकों ने विरोध जताया। इसके विपरीत कुछ वैज्ञानिकों की टोली ने सर्वोच्च न्यायालय में रपट दाखिल की थी कि टिहरी बांध से पर्यावरण पर कोई बुरा प्रभाव नहीं पड़ेगा। मैं मानता हूं कि ऐसी रपटें देने वाले ये लोग वैज्ञानिक नहीं, सरकार के आश्रित- जीवी हैं। सरकार जब चाहती है अपने उपकृत वैज्ञानिकों द्वारा मनमाफिक रपट बनवा लेती है। मैं किसी का नाम नहीं लेना चाहता लेकिन ये जरूर कहूंगा कि जिन लोगों ने कभी गंगा को देखा नहीं, कभी गंगा पर जिन्होंने कोई अनुसंधान कार्य नहीं किया, सरकार की नजरों में वही आज गंगा- विशेषज्ञ हैं, वैज्ञानिक हैं।

जीवन दायिनी नदी असी


विश्व विख्यात वाराणसी शहर जिन दो नदियों के नाम से जाना जाता है-वाह हैं वरुणा और असी। इन दोनों नदियों का पौराणिक महात्म्य है । जैसा कि वामन पुराण में भगवान विष्णु ने भोलेनाथ को बताया है कि ,प्रयाग में योगशायी जोकि विष्णु के ही अंशावतार थे उनके बाये पैर से वरुणा और दाहिने से असी नदी निकली हुई है । इतना ही नहीं भगवान् विष्णु भोलेनाथ को असी और वरुणा में स्नान कर दशास्व्मेध पर निवास कि सलाह भी देते हैं ,और बताते हैं कि ये दोनों ही नदियाँ अति पुण्यदायी और पापनाशक हैं। उस क्षेत्र को जहा से असी और वरुणा निकली हैं इसे योगशायी का क्षेत्र कहा जाता था ,लेकिन क्षोभ कि आज इन दोनों नदियों में असी को तो नदी बताने पर लोग हस्ते हैं,नाला ही उसकी पहचान हो चली है,और वरुणा भी उसी रह पर है। देश विदेश से अरबो खरबों रूपये गंगा के नाम पर आये लेकिन गंगा सेवकों द्वारा इसको बोझ समझ इस कदर बहाया गया कि पैसा नहीं बस रेट दीखता है। हालाँकि असी जैसी हालत गंगा कि कभी भी नहीं होगी ये तय है लेकिन अगर ये सरे कृत्य सिर्फ भविष्य में किसी पूर्व अनुदानित को हटाकर खुद के खाते को खजाना बनाने कि तयारी साबित हुई तो निश्चित असी हो जाएगी,और उसके जिम्मेदार हम सब होंगे।
हमें अपनी जिम्मेदारिओं से मुह नहीं मोदनी चाहिए,मुट्ठी भर सरकारी लोग हर चीज को सही सात जनम में नहीं कर पाएंगे ,वो दाल में घी बन सकते हैं दाल नहीं ,वो बात दीगर है कि घी कौन सा डालेंगे भगवान ही जाने। अतः निवेदन है वाराणसी कि जनता से घबराइये नहीं हम आगे आइये पीछे आइये कि बात नहीं करेंगे बल्कि ये कहेंगे कि लोभ से ऊपर उठे जहाँ भी इसके साथ छल हो रहा है ,अतिक्रमण हो रहा है,वो आदमी ही कर रहा है,संतोष करे सीमित संसाधनों में जीने कि आदत डालें ,नदी क्या पूरा देश फिर से चमक उठेगा।

Tuesday 12 June, 2012

एक दिवंगत नदी के सबक.



वाराणसी। गूगल सर्च कर दुनिया के हर सवालों को जवाब देने वाले कंप्यूटर दा लोगों के सामने भी लाख टके का एक सवाल अनुत्तरित है कि असि (अस्सी) नदी गई कहां। हरहराती वरुणा नदी अचानक मैला ढोने वाले बडे नाले में तब्दील कैसे हो गई। लगभग 35 करोड लोगों को जीवन देने वाली गंगा का यह हाल हुआ कैसे। इस सवाल से ही जुडे दूसरे सवाल का जवाब भी गायब है कि क्या कोई इस बात की गारंटी दे सकता है कि आने वाले दिनों में गंगा का हाल भी असि नदी जैसा नहीं हो जाएगा। सवाल खडे होने की वजहें बिल्कुल साफ हैं। यह शहर पहले ही अपनी एक नदी खो चुका है। बात सुनने में हैरतअंगेज भले ही लगे पर सच यही है कि बनारस के भूगोल से असि का इतिहास तकरीबन मिट चुका है। हैरत की कुछ वजहें और भी हैं। मसलन कुआं, सडक, खेत, खलिहान यहां तक कि पगडंडियों व नाला-नालियों तक का हिसाब रखने के लिए पटवारी से लगायत कलेक्टर तक के भारी भरकम अमले की ऐन नजर के सामने से अचानक एक मुकम्मल नदी असि गायब हो गई, .कैसे, सवाल का जवाब नदारद है। असि नदी के अवसान की दर्द भरी दास्तान कोई पौराणिक युग की घटना नहीं है। यह सब कुछ हुआ है चार पांच दशक के अंदर। अब वरुणा नदी भी उसी राह पर है। कमाल यह भी है कि इन्हीं दो नदियों के नाम पर इस शहर का नाम वाराणसी रखा गया, आज यही दो नदियां धरातल से हटकर इतिहास में अमर होने के मुहाने पर खडी हैं।
अब बारी गंगा की- किसी भी बडी नदी को प्रवाहमान रखने के लिए प्रकृति का अपना एक सिस्टम होता है। छोटी नदियां उससे संगम कर उसे प्रवाह प्रदान करती हैं। गंगा के साथ भी ऐन यही है। बिल्कुल सामान्य समझ वाली बात है कि वाराणसी नगर के सामनेघाट छोर पर असि नदी का जल गंगा को फोर्स देता था। इससे नगर की गंदगी आगे बढ जाती थी। पुन: आदिकेशव घाट छोर पर वरुणा नदी का जल गंगा में संगम कर गंदगी को और आगे बढा देता था। अब असि रही नहीं। वह नगवा नाले के रूप में हो गई। इससे उस गंगा का पूरा प्रवाह ही बाधित हो गया जो टिहरी के चलते वैसे ही तमाम बाधाओं का सामना कर रही है। पानी की भारी किल्लत ने अब गंगा को अपनी चपेट में ले लिया है। अफसोस यह कि स्थानीय प्रशासन गंगा के मसले को केंद्र का मामला बताकर बडे आराम से पल्ला झाडता रहा है लेकिन स्थानीय असि व वरुणा नदी के मामले में .जो कि पूरी तरह स्थानीय अफसरों की जिम्मेदारी है, एकदम मौन साध लेता है। उदासीनता और कर्म बोध के प्रति गैर जिम्मेदाराना रूख ने जल समृद्ध काशी को अब जल कंगाली के उस मुहाने पर लाकर खडा कर दिया है जहां से उबरने के लिए एक भगीरथ प्रयास की आवश्यकता महसूस होती है। संत समाज का अविरल-निर्मल गंगा अभियान इसी दिशा में एक प्रयास है। विशेषज्ञों की अनदेखी से हाल खराब बीएचयू में गंगा रिसर्च सेंटर के संस्थापक प्रो. यूके चौधरी कहते हैं कि विशेषज्ञ लगातार चेताते रहे हैं कि काशी की नदियों का भविष्य खतरे में है। असि तो नाला में तब्दील हो चुकी है, यदि गंगा और वरुणा को नहीं बचाया गया तो काशी को भी नहीं बचाया जा सकेगा। बकौल प्रो. चौधरी 15 वर्षो से वह शासन प्रशासन को अगाह करते आ रहे हैं कि नदियों का आपसी तालमेल जिस अनुपात में बिगडेगा, उससे जुडी काशी की स्थिरता व भूमिगत जल उपलब्धता उसी अनुपात में बिगडती चली जाएगी। इसके बाद भी हुक्मरानों की तंद्रा भंग नहीं हुई। नतीजा, काशी में सिमटती सिकुडती और बडे नाले के रूप में तब्दील हो रही यह नदियां सबके सामने हैं।

ओह! काशी का भी कंठ सूखा



वाराणसी। सदानीरा के सिरहाने बसे शहर और उसके आंचल में कल्लोल करती वरुणा व असि नदियां, लुप्त होने के बाद भी अनेक कुंड और सरोवरों से घिरी काशी का कंठ पानी के लिए सूखने लगा है। अचरज यह भी है कि कभी नदी, नद नालों व विभिन्न जल धाराओं वाले घिरे रहने वाली प्राचीन नगरी की जलभरी कोख प्रदूषण की भेंट चढ चुकी है।
गंगा और वरुणा नदियों के प्रवाह की अनदेखी से जहां इन नदियों का पारिस्थितिकी तंत्र (इको सिस्टम) असंतुलित होता जा रहा है वहीं शहर के गिरते भूजल स्तर से निर्जलीकरण के हालात बनते जा रहे हैं। नदी, कुंड सरोवरों पर कब्जे और कुदृष्टि भी निर्जलीकरण के महत्वपूर्ण कारण रहे हैं।
विशेषज्ञ लगातार चेता रहे हैं कि गंगा और वरुणा के सूखने से भूमिगत जल के रिसाव की गति नदियों की ओर बढती जा रही है जो बडे खतरे का संकेत है। सूखते कुएं, जवाब देते हैंडपंप, रिबोर की जरूरत महसूस कर रहे ट्यूबवेल इस बात के संकेत हैं कि जिस गति से पानी नीचे जा रहा है उसी अनुपात में जमीन के नीचे मृदाक्षरण भी बढता जा रहा है। भूजल विभाग की रिपोर्ट कहती है कि पिछले वर्ष बरसात के पूर्व जहां भूमिगत जलस्तर औसतन 21 से 24 मीटर के बीच था वहीं इस वर्ष औसतन 22 से 25.20 के बीच आंका गया।
क्या है इको सिस्टम-जैविक-अजैविक पदार्थो के बीच संतुलन बनाना ही पारिस्थितिकी तंत्र है। नदी में पानी की मात्रा, उसका बहाव, जीव-जंतु और बेसिन क्षेत्र की वनस्पतियां मिल कर एक वातावरण तैयार करते हैं जिसे हम नदी का इकोसिस्टम अथवा पारिस्थितिकी तंत्र कहते हैं। साइंस जैविक पदार्थ की श्रेणी में वनस्पति और जीव-जंतु को रखता है तो अजैविक में पानी, मिट्टी और हवा को।

‘वरुणा’ का अस्तित्व खतरे में



वाराणसी। पर्यावरणीय संकट के दौर से गुजर रहे देश में पूर्वांचल की एक नदी घाटी संस्कृति का आने वाले दिनों में नामोनिशान मिट सकता है। जी हां, गंगा पर शोर मचाने वालोंको यह जानकर झटका लगेगा कि वाराणसी की पहचान के तौर पर विख्यात वरुणा न सिर्फ डायलसिस पर पड़ चुकी है, बल्कि किसी भी समय उसका अस्तित्व खत्म हो सकता है। कसबों, गांवों, शहरों के बेतहाशा प्रदूषण, तटीय अतिक्रमण और सरकारी उपेक्षा के मकडज़ाल में घिरी इस नदी को बचाना कितना कठिन होगा इसे उसके दफन होते किनारों को देख समझा जा सकता है। माना जा रहा है कि इसे पुनर्जीवित करने के ठोस प्रयास जल्द शुरू नहीं हुए तो भोले की नगरी के पौराणिक, सांस्कृति महत्व को चौपट होने से रोका नहीं जा सकेगा।
पूर्वांचल की 162 किमी लंबी नदी घाटी को खत्म करने में सबसे बड़ा हाथ बेहद कमजोर और अनियोजित सीवर प्रणाली का माना जाएगा। ट्रांस वरुणा से लगे इलाकों में किनारों को पाट कर बहुमंजिली इमारतें खड़ी करने वाले कालोनाइजर और उनके संरक्षणदाताओं को इसके लिए कटघरे में खड़ा किया जा सकता है। इलाहाबाद के मेल्हन से निकलकर जौनपुर होते हुए बढऩे वाली वरुणा भदोही में सर्वाधिक प्रदूषित हुई है। वहां कालीन उद्योग से निकलने वाले रासायनिक कचरे को नालों के जरिए नदी में बहाए जाने से ज्यादा दुर्गति हुई। उससे आगे सत्तनपुर से रामेश्वरम तीर्थ के बीच बस्तियों के नाले भी इसमें गिर रहे हैं। हालांकि वरुणा को सर्वाधिक झटका बनारस में कैंट के पास से लगना शुरू हो जाता है। वहां से आदि केशव घाट के पास सराय वरुणा मोहना तक छावनी क्षेत्र, पांडेयपुर और कचहरी इलाके के बड़े नालों के बहाव का वरुणा माध्यम बना दी गई है। छिछले नाले का रूप ले चुकी वरुणा में काला, बदबूदार अवजल इस कदर भरा है कि नदी के पेटे में तटीय बस्तियों के लोग झांकते तक नहीं। पशु-पक्षी भी प्यास बुझाने की हिम्मत नहीं जुटा पाते।
  • 162 किमी लंबी वरुणा नदी अब पहचान खोने की कगार पर
  • 150 मीटर चौड़ा किनारा सिकुड़कर कहीं 17 तो कहीं 30 मीटर तक आ गया
  • 05 से अधिक शहरों, कसबों के नालों के बहाव का माध्यम बनी नदी
दुर्दशा के कारण
  • शहरों, बस्तियों में अवजल निकास की ठोस योजना का अभाव होना
  • नदी के बाढ़ प्रभावित इलाकों में किनारों का बेतहाशा अतिक्रमण
  • तटवर्ती तालाबों, पोखरों और जोहड़ों का पाटा जाना
  • तटीय इलाके में कंक्रीट के विस्तार के चक्कर में जल संचय करने वाले पेड़ों की कटान
  • वरुणा बेसिन में बगीचों का खत्म होना

Monday 11 June, 2012

खेल का मैदान बनी जलविहीन वरुणा







वाराणसी। वरुणा के कारुणिक हालात पर्यावरण प्रेमियों को स्याह कर देंगे। त्रेता युग में जहां कभी भगवान राम ने पड़ाव डाला था, उस रामेश्वर तीर्थ से लगे इलाकों में पांच स्थानों पर वरुणा जलराशि विहीन होकर खेल का मैदान बन गई है। भूगर्भीय जलस्रोतों के दबकर नष्ट होने से कई मुसीबतें पैदा हो गई हैं। तटवर्ती बस्तियों के तालाब-पोखरे सूख गए हैं तो कुओं का पानी सड़न के चलते पीने लायक नहीं है। इसके चलते पेयजल संकट गहरा गया है। वाटर रिचार्जिगिं की दिशा में शीघ्र कदम नहीं उठाए गए तो पशु-पक्षी भी पानी के लिए तरस जाएंगे। 
रामेश्वर तीर्थ के पास ही वरुणा काशी में प्रवेश करती है। यहां कोरौत नाले के अलावा आधा दर्जन से अधिक बस्तियों का भी अवजल वरुणा में जहर घोलता रहा है। जगह-जगह सूख चुके नदी के पेटे देख कोई भी सिहर जाएगा। यह गुनाह किसने किया? आखिर किन वजहों से जीवनदायिनी नदी अस्तित्व खोने के कगार पर चली गई? ऐसे तमाम सवाल अनसुलझे हुए हैं। न जनता यह गुनाह कबूलने को तैयार है और प्रशासन। रसूलपुर, औसानपुर, तेंदुई, रामेश्वर, लच्छीपुर घाटों पर पानी न होने से बच्चे गिल्ली-डंडा खेलने लगे हैं। वहीं तटीय इलाकों में जलस्रोत मिटने से जग्गापट्टी, पांडेयपुर, परसीपुर, खंडा, इंदरपुर, अनौरा एवं चक्का जैसी डेढ़ सौ से अधिक बस्तियों में पेयजल संकट गहरा गया है। कुएं प्रदूषित हो गए हैं। हैंडपंपों का पानी खिसक कर नीचे चला गया है। खास बात यह है कि इन बस्तियों के लोग सिंचाई, पेयजल, पशुपालन से लेकर कर्मकांड तक के लिए वरुणा पर ही निर्भर हैं। नदी को पुनर्जीवित करने के उपाय न हुए तो वरुणा कहानी-किस्सा का हिस्सा बन जाएगी।


*05 स्थानों पर रामेश्वर तीर्थ के बाद सूख गई नदी 
*150 से अधिक तटीय बस्तियों में पानी को लेकर चिंता बढ़ी
*20 से ज्यादा तालाब-पोखरे सूखने से बढ़ गई है मुसीबत 

मंत्री का भरोसा टूटने से जनता के तेवर तल्ख 
रामेश्वर। वरुणा की दुर्दशा पर जहां इलाके की जनता चिंतित है, वहीं लोक निर्माण एवं सिंचाई राज्य मंत्री सुरेंद्र पटेल की पहल बेकार जाने से आमजन के तेवर तल्ख हो गए हैं। नागरिकों की गुहार पर मंत्री ने फोन पर भरोसा दिलाया था कि लिफ्ट कैनाल से वरुणा में पानी भरवा दिया जाएगा लेकिन अफसरों को या तो जानकारी नहीं मिली या फिर उन्होंने जानबूझकर नदी की रिचार्जिगिं पर अमल नहीं किया। 

दिल का चैन खा रही वरुणा






वाराणसी। वरुणा अब तटीय शहर में लोगों की रात की नींद और दिन का चैन खाने लगी है। घरों में दम घुटने, शुद्ध हवा न मिलने से तिल-तिल कर जीने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा है। वजह है बढ़ती आबादी के दबाव से नदी के आकार में चौड़ा होकर बहता बघवा नाला। अकेले इस नाले से प्रतिदिन 10 लाख लीटर से अधिक बहने वाली सीवर की धारा तटीय जन जीवन के लिए खतरे की घंटी साबित हो रही है। अवजल की इस बड़ी मात्रा को रोकने, शोधित करने के शीघ्र उपाय नहीं किए गए तो बड़ा संकट खड़ा होने से इनकार नहीं किया जा सकता।
किसी जमाने में बरसाती पानी के निकास के तौर पर वरुणा से मिलने वाला बघवा नाला शहर के विस्तार के साथ ही अवजल निकास का जरिया बना गया। अब तो 40 से अधिक मोहल्लों का घरेलू डिस्चार्ज सीधे बघवा नाले से बहाया जा रहा है। नगर निगम के छह बड़े वार्डों में रमरेपुर, लालपुर, पांडेयपुर, खजुरी, नई बस्ती, हुकुलगंज की करीब डेढ़ लाख की आबादी का अवजल बहाने के लिए इस नाले के अलावा दूसरा माध्यम नहीं है। अगर प्रति व्यक्ति 50 लीटर पानी की खपत को आधार बनाया जाए तो सिर्फ साढ़े सात लाख लीटर घरेलू डिस्चार्ज बघवा नाला से होता है। साड़ी कारखानों, पीतल बर्तन उद्योग के अलावा चर्म शोधन केंद्रों से ढाई लाख लीटर भी रासायनिक अवजल की मात्रा का डिस्चार्ज माना जाए तो कुल 10 लाख लीटर अवजल प्रतिदिन वरुणा में मिल रहा है। इस तरह देखा जाए तो नगर निगम, जल संस्थान, गंगा प्रदूषण नियंत्रण इकाई ही नहीं वरुणा को बेजान बनाने में पार इलाके के घर-घर के लोग जिम्मेदार माने जाएंगे। जल निकास पर प्रतिवर्ष करोड़ों खर्च के बाद भी शहर के उत्तरी विस्तार में सीवरेज सिस्टम का अभाव सक्षम एजेंसियों के लिए गंभीर जांच का विषय बन सकता है। हुकुलगंज में बघवा नाले के पास रहने वाले राहुल, मुकेश सोनकर, मोहनचंद्र, प्रेम कुमार हालात बताते हुए रो पड़ते हैं। उनकी मानें तो इस उमस में हवा चलने पर खिड़कियां बंद न की जाएं तो दुर्गंध से दम घुटने लगता है। सिर्फ 15 साल पहले तक जहां इस इलाके के लोग खाना बनाने, प्यास बुझाने तक के लिए वरुणा पर ही निर्भर थे. वहीं अब उसमें कपड़े तक नहीं धोना चाहते।

गंगा की छोटी वहन मानी जाती है वरुणा

स्पर्श के भी योग्य नहीं रहा सहायक नदी का पानी 


*10 लाख लीटर अवजल रोज बघवा नाला से जा रहा है वरुणा में
*1.5 लाख की आबादी के घरेलू डिस्चार्ज का सीधा माध्यम है यह नाला
*50 से अधिक साड़ी कारखानों का रासायनिक कचरा भी गिरता है
*08 कारखाने पीतल के बर्तन, मूर्तियां और सिंहासन बनाने के हैं
*03 चर्म शोधन केंद्र भी चल रहे हैं गुपचुप तरीके से

वरुणा की कीमत चुकाने को जनता लामबंद





वाराणसी। दुनिया में गिनती के प्राचीन शहरों में से एक सांस्कृतिक नगरी वाराणसी की जन्मदाता नदी वरुणा को पुनर्जीवित करने के लिए जनता शनिवार को मुखर हो उठी। नदी के अंतिम छोर पर बसे सरायमोहना के लोग खौल उठे। दोपहर बाद चिलचिलाती धूप की परवाह किए बगैर बच्चे-महिलाएं तक वरुणा बचाओ संघर्ष में कूद पड़े। इस दौरान जुलूस निकाल कर जमकर नारेबाजी की गई। प्रदर्शनकारी वरुणा में गिरने वाले नालों को तत्काल बंद करने की जिला प्रशासन से मांग कर रहे थे।
अमर उजाला में वरुणा के सूखने की खबर प्रमुखता से प्रकाशित होने के बाद तटीय बस्ती के लोगों का धैर्य जवाब दे गया। जहां-तहां स्वस्फूर्त चेतना जागृत होने लगी। शनिवार की दोपहर बाद सराय मोहना में बड़ी तादाद में लोग वरुणा की रक्षा के लिए उठ खड़े हो गए। बस्ती के लोगों के साथ मानवाधिकार जन निगरानी समिति के कार्यकर्ता भी आ गए। बस्ती में लामबंद लोग शासन-प्रशासन के विरोध में नारेबाजी करने लगे। बस्ती से जुलूस निकला। इसमें महिलाओं ने बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया। जुलूस गांव से होकर गंगा-वरुणा संगम स्थल पर पहुंचा। यहां मावाधिकार जन निगरानी समिति के आनंद कुमार निषाद, नीता साहनी, डॉ. राजेश सिंह का कहना था कि पछुआ हवा बहने पर घरों में भी चैन से रहना दुश्वार हो गया है। सड़े नाले की बदबू गंगा किनारे से लेकर पूरी बस्ती में फैल जा रही है। करीब आठ हजार की आबादी वाली सराय मोहाना बस्ती के लोगों का दर्द था कि वह गंगा में स्नान तक नहीं कर पा रहे हैं। नाले का अवजल संगम से होकर नदी में फैल जा रहा है। स्नान करने वालों के शरीर पर चकत्ते पड़ने और खुजली की शिकायत होने से हर किसी के माथे पर चिंता की लकीरें खिंच गई हैं। ऐसे में जितना जल्दी हो सके नालों का गिरना रोका जाना चाहिए। प्रदर्शन करने वालों में मोहन लाल निषाद, बलराम प्रसाद, नीता साहनी, रामजी, राजकुमार, चिंता देवी, बगेसरा देवी, केशव प्रसाद समेत तमाम लोग शामिल थे।

- अंतरगृही यात्रा तीर्थ का सबसे बड़ा पड़ाव है सराय मोहना

-अंतिम छोर से उठी नदी की रक्षा की आवाज बेसिन में फैली तो बड़ा आंदोलन तय

रणनीति
- गांव-गांव में जन जागरूकता टोलियों का गठन करना
- वरुणा बचाओ संघर्ष से हर घर से एक सदस्य को जोड़ने की तैयारी
- नदी घाटी को पुनर्जीवन प्रदान करने के लिए नागरिक खुद आगे आएं

मोरवा व वरुणा लड़ रही अस्तित्व की जंग

: भारत सरकार भले ही गंगा जैसी बड़ी नदियों के अस्तित्व को बचाने के लिए करोड़ों रुपये खर्च कर रही है लेकिन अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही वरुणा व मोरवा जैसी छोटी नदियों के लिए सरकार के पास कोई योजना नहीं है।
मैली गंगा को साफ करने के नाम पर प्रतिवर्ष अरबों रुपये पानी में बहाए जा रहे हैं। अन्य बड़ी नदियों को लेकर भी केंद्र सरकार सजगता बरत रही है, ताकि भविष्य में इन नदियों का अविरल प्रवाह कहीं थम न जाए लेकिन जनपद के हृदय से बहने वाली मोरवा व वरुणा जैसी छोटी नदियां अपने अस्तित्व के संघर्ष की लड़ाई खुद लड़ रही हैं। इन नदियों में जगह-जगह हो रहे अवैध खनन के कारण कुछ स्थानों पर नदी का नामोनिशान ही मिट गया है। बारिश के दिनों में इन नदियों का पानी फैल कर बहता है, जबकि गर्मी के दिनों में पशु-पक्षियों को भी इनमें पानी तलाश करना पड़ता है। ढाई से तीन दशक पहले यह दोनों नदियां पशुओं को नहलाने व पानी पिलाने में गर्मी के मौसम अहम भूमिका निभाया करती थीं।
स्थानीय प्रशासन अथवा शासन स्तर से इन नदियों को बचाने की दिशा में कोई कारगर प्रयास नहीं किया गया। वैसे भी अवर्षा के चलते इन नदियों में जलधारा का अभाव रहता है, जबकि इधर-उधर से बहकर पहुंचने वाला थोड़ा बहुत पानी भी गंगा नदी में निकल जाता है। शासन स्तर से इन छोटी नदियों में बंधी का निर्माण कर जल संरक्षण की कवायद शुरू की जा सकती है। नदियों में पानी का सरंक्षण सुनिश्चित कर पानी को सिंचाई के काम में लाया जा सकता है बशर्ते इसके लिए सरकार को गंभीरता से विचार करना होगा।

..तो इतिहास बन जाएंगी वरुणा व मोरवा

 अवर्षा, अतिक्रमण, गंदगी व प्रशासनिक उपेक्षा का यही हाल रहा तो जनपद के बीच से होकर गुजरने वाली मोरवा व वरुणा इतिहास के पन्नों में सिमटकर रह जाएंगी।
मोरवा व वरुणा जैसी नदियां जनपद में पूरी तरह अपनी पहचान खो चुकी हैं। मनरेगा हो या सड़क निर्माण के लिए मिंट्टी की जरूरत लोग इनके किनारे पहुंच जाते हैं। इससे नदियां कई स्थानों पर खेतों का स्वरूप धारण कर चुकी हैं, जहां किसान जोताई कर खेती भी कर रहे हैं। यही कारण है कि बारिश के मौसम में भले ही नदियों में पानी दिख जाए अन्य मौसम में ये नदियां खुद प्यास जाती हैं। 

विष बनता जा रहा पानी
इन नदियों में पानी तो कम ही देखने को मिल रहा है। कहीं दिखता भी है तो कालीन के डाइंग व वाशिंग प्लांटों का विषैला रसायनयुक्त पानी। जो पशुओं के लिए भी पीने लायक नहीं रहता। भूले भटके पशुओं ने यदि प्रदूषित पानी पी भी लिया तो वे पेट की गंभीर बीमारियों के शिकार हो जाते हैं।
सिकुड़ रहीं नदियां
अतिक्रमण के कारण नदियों की चौड़ाई भी प्रभावित हुई है। यही कारण है कि कई स्थानों पर तो नदियों की पहचान ही लुप्त हो गई है। मोरवा नदी की चौड़ाई कहीं दो सौ मीटर तो कहीं सात सौ मीटर से भी अधिक थी किन्तु आज यह नाले से भी बदतर हालत में नजर आ रही हैं। कमोवेश यही स्थिति वरुणा की भी है।

गुम हुए पानी ने बदली कहानी
नदियां भारतीय संस्कृति व सभ्यता की पहचान भी हैं। शादी विवाह, छठ सहित अन्य पूजन-प्रायोजन महिलाएं नदियों पर ही करती रहीं। बदलते परिवेश में नदियों से गुम होते पानी ने समूची कहानी ही बदल डाली है। लोग सूखी नदी के चलते पोखरे व तालाबों से ही काम चला रहे हैं। सूखी मोरवा की अपेक्षा तालाबों में तो कुछ पानी भी मिल जा रहा है।

मानो तो मै गंगा मां हूं..
गोपीगंज (भदोही): जनपद के दक्षिणी छोर से होकर गुजरी मोक्षदायिनी का स्वरूप भी बिगड़ता जा रहा है। कोनिया में पश्चिम वाहिनी गंगा दो फाड़ में विभक्त होकर अपनी व्यथा सुना रही हैं तो रामपुर, बेरासपुर, सेमराध, बारीपुर समेत अन्य कई गंगा घाटों प्रवाहित की जा रही गंदगी से भी प्रदूषण बढ़ रहा है। पर्यावरण पर कार्य कर रही संस्था नेशनल इको-हेल्थ सोसायटी के सचिव कमलेश शुक्ल की माने तो वाराणसी-इलाहाबाद के मध्य जनपद में भी गंगा को कई तरह से प्रदूषित किया जा रहा है, जिसमें मरे मवेशियों को फेंकने, शव के साथ अन्य सामान गंगा में प्रवाहित करना आदि शामिल है।

पातालगामी हुई सुरसरि और वरुणा

वाराणसी। कभी पानी की दौलत से आबाद काशी नगरी के अब बेपानी होने का खतरा मंडराने लगा है। असि नदी नाले में लुप्त हो चुकी है, वरुणा नाला बनने के कगार पर है तो गंगा भी पाताल की ओर रुख करती जा रही हैं। हालात यही रहे तो वह समय दूर नहीं जब हमारे सामने एक तरफ होगा विशाल नाला तो दूसरी तरफ अकाल जैसे हालात।
विशेषज्ञ लगातार चेताते आ रहे हैं कि गंगा को बचाना ही संभावित संकटों का एक मात्र विकल्प है। यहां बताते चलें कि जो ढाल वर्षा जल को नदी की ओर निस्तारित करे वह भू-भाग उस नदी का बेसिन होता है। यह निस्तारण सतही और भूमिगत जल के रूप में होता है।
ये प्रमुख रूप से चार होते हैं। एक बेसिन की ढाल, दूसरा बाढ़ क्षेत्र का ढाल, तीसरा किनारे का ढाल और चौथा नदी के तल का ढाल। इसे गंगा की शक्ति भी कहते हैं। ये चारो ढाल ही वातावरण को संतुलित करने के साथ नदी की व्यवस्था को भी नियंत्रित करते हैं। अब इसे काशी नगरी और गंगा के संदर्भ में देखा जाए तो पहले यह नगरी तीन नदियों से घिरी थी। पूरब में गंगा, दक्षिण में असि और उत्तर में वरुणा। ढाल के हिसाब से ही ये तीनों नदियां अपने-अपने बेसिन क्षेत्र को पानी से लबालब किये रहती थी। गर्मी के दिनों में जब इनका जलस्तर गिरता था तो इनके बेसिन क्षेत्र के तालाब, कुंड, कुएं अपना पानी देकर गंगा के जलस्तर को बरकरार रखते थे। बेहिसाब जल दोहन और शहर भर का अवजल गिराए जाने से असि नदी का स्वरूप बदल कर नाले में तब्दील हो गया। इस नदी की भूमि पर देखते-देखते कंक्त्रीट की इमारतें खड़ी हो गई।
कमोवेश गंगा और वरुणा भी दिनों दिन इसी गति की शिकार होती जा रही है। पहले गंगा का दोहन सीमित था तो प्रदूषक तत्वों का गंगा की ओर निस्तारण भी कम हुआ करता था। कुंड, तालाब, कुएं आदि गंगा के वॉटर बैंक हुआ करते थे, जो गर्मी के दिनों में भूमिगत जल के रूप में अपनी सेवा देकर गंगा के जलस्तर को गिरने नहीं देते थे तो बेसिन क्षेत्र भी स्वाभाविक रूप से संतुलित था। इधर के दिनों में गंगा के बेसिन क्षेत्र को बिना व्यवस्थित किए अवैज्ञानिक तरीके से जहां गंगा जल का दोहन शुरू हुआ तो प्रदूषक तत्वों का भार भी बेहिसाब बढ़ा। गंगा के वॉटर बैंकों का वजूद भी समाप्ति के कगार पर हैं। ऐसे में बेसिन क्षेत्र भी असंतुलित और अव्यवस्थित होता जा रहा है, जो सूखती गंगा, भूमिगत जलस्तर में गिरावट और अव्यवस्थित पर्यावरण के रूप में हमारे सामने है।
1.5 मीटर की रफ्तार से घट रहा भूमिगत जलस्तर-बीएचयू में गंगा अन्वेषण केंद्र के संस्थापक रहे प्रो. यूके चौधरी ने बताया कि गंगा बेसिन से 1.5 से 2.00 प्रतिशत की रफ्तार से मृदा क्षरण बढ़ता जा रहा है। गंगा बेसिन का भूमिगत जल स्तर 1.5 से 2.5 मीटर प्रतिवर्ष की रफ्तार से गिरता जा रहा है।
गंगा बेसिन की उर्रवा शक्तियां उसी अनुपात में घटती जा रही हैं जिस अनुपात में गंगा नदी का जल स्तर घटता जा रहा है। बताया कि यहां यह जान लेना भी जरूरी होगा कि सतही जल के निस्तारण क्त्रिया को रोकना बाढ़ नियंत्रण होता है और भूमिगत जल के भंडार को बढ़ाना अकाल नियंत्रण होता है। यदि वर्षा के पूर्व कुंड, तालाब और कुएं को एक बार फिर वजूद में ला दिया गया तो भूमिगत जल भंडार इस स्तर तक बढ़ाया जा सकता है कि अनावृष्टि का कोई प्रभाव गंगा बेसिन पर न पड़े। और फिर जब भूमिगत जलाशय के स्तर में वृद्धि होगी तो नदी के न्यूनतम जल प्रवाह की जरूरत स्वत: पूरी होने लगेगी। यही संतुलन पर्यावरण को भी संतुलित बनाएगा।
वाराणसी। कुछ मौसम की मार तो कुछ प्रशासन की लापरवाही जिसके चलते प्रदेश की नदियां एक-एक कर सूखती जा रही है। धार्मिक नगरी वाराणसी की पहचान असि नदी तो पहले ही सूख कर नाले का रूप ले चुकी है और अब पौराणिक नदी वरुणा की बारी है। वरूणा का क्षेत्रफल लगातार घटता जा रहा है और यदि इस ओर ध्यान न दिया गया तो आने वाले कुछ समय में यह भी सूख जाएगी।
वाराणसी के लोगों के अनुसार शहर से दस किलोमीटर की दूरी पर वरूणा लगभग सूख जाती है। पूर्वांचल को हराभरा बनाने वाली गोमती, सई, पीली और गडई नदियों का भी यही हाल है। जल स्तर घट रहा है और नदियों की सफाई आदि न होने की वजह से उनका दायरा कम हो रहा है। इनमें से कुछ नदियों से तो धूल उड़ा रही है। वरुणा में भी अब केवल कीचड ही दिखायी दे रहा है जिसमें पानी की मात्रा नहीं के बराबर है।
इलाहबाद जिले की फूलपुर तहसील के मैलहन तालाब से निकलकर भदोही और जनपुर हाते हुए 162 किलोमीटर की यात्रा करके वरुणा वाराणसी पहुंचती है और बीच वाराणसी में गंगा में मिल जाती है। वरुणा नदी का अस्तित्व संकट में पडऩे का मुख्य कारण सीवरों का इसमें गिरना है। इसके अलावा वरुणा के दोनों तटों पर अतिक्रमण करके बहुमंजिली इमारतें बना ली गयी है। भदोही एवं आसपास के क्षेत्रों का कालीन का कचरा भी सीधे वरुणा में गिराया जा रहा है।
वाराणसी में तो करीब एक दर्जन गन्दे नाले वरुणा में गिर रहे हैं। वरुणा में गन्दगी का आलम यह है कि उसके निकट से गुजरने वाले नाक पर कपड़ा लगा लेते हैं। आदमी तो दूर पशु-पक्षी भी इसके पानी को पी नहीं सकते। गंगा की दुर्दशा से सभी परिचित हैं और उसकी निर्मलता तथा अविरलता के लिए आन्दोलन चल रहा है। कभी इन नदियों की बदौलत आबाद रहने वाली काशी अब पानी को तरस रही है। यही रफ्तार रही तो लोगों को निकट भविष्य में लोगों को पीने के लिए पानी नहीं मिलेगा।
पौराणिक नदी वरुणा भी नाले में तब्दील
वाराणसी, एजेंसी
उत्तर प्रदेश की धार्मिक नगरी वाराणसी की पहचान असि नदी के पूरी तरह नाले में तब्दील होने के बाद अब पौराणिक नदी वरुणा भी नाले में बदलती जा रही है और शहर से दस किलोमीटर की दूरी पर तो वह लगभग सूख गई है। पूर्वांचल को हराभरा बनाने वाली गोमती, सई, पीली और गडई नदियों का भी यही हाल है। इनमें से कुछ नदियों से तो धूल उड़ रही है। वरुणा में भी अब केवल कीचड़ ही दिखाई दे रहा है जिसमें पानी नहीं के बराबर है।इलाहाबाद जिले की फूलपुर तहसील के मैलहन तालाब से निकलकर भदोही और जनपुर हाते हुए 162 किलोमीटर की यात्रा करके वरुणा वाराणसी पहुंचती है और बीच में वाराणसी में गंगा में मिल जाती है।

Wednesday 6 June, 2012

पक्के मकान, पथरीली सड़कें और वीरानी। ऐसे में जीवन कैसे बचेगा

वाराणसी : पौधरोपण व संरक्षण के प्रति शासन की उपेक्षा के चलते हालात इस कदर अफसोसनाक हैं कि पिछले तीन वर्षो से शहर में पौधरोपण के लिए वन विभाग को एक पैसा तक नहीं मिला। अधिकारी व कर्मचारी भी हाथ पर हाथ धरे बैठे रहे। पेड़ कटते गए, लाए पौधे लगे नहीं, नई कॉलोनियां बसती गई यानी आबादी बढ़ी लेकिन प्राणवायु प्रदान करने वाले पेड़ों की संख्या बढ़ाने के बजाय उन्हें नुकसान पहुंचाया गया। आखिर बचा क्या। पक्के मकान, पथरीली सड़कें और वीरानी। ऐसे में जीवन कैसे बचेगा। यह सोचना सिर्फ सरकार का ही नहीं वरन आमजन का भी दायित्व है और इस दिशा में शिद्दत से मंथन करना होगा। अब हालत यह है कि कैंट से लंका, आशापुर, अलईपुर, कचहरी और लहरतारा-मड़ौली मार्ग पर वृक्षों की संख्या मात्र 25 से 50 के बीच सिमट गई हैं। ऐसा लगता है कि नगरीय क्षेत्र में पेड़-पौधों का भारी अकाल है। शहर के चारों ओर कॉलोनियां बसीं लेकिन नियोजित तरीके से विकास न होने के कारण वहां पौधरोपण पर ध्यान ही नहीं दिया गया। भीषण गर्मी में पलभर के लिए पेड़ की छांव की तलाश बालू में पानी की खोज सरीखी हो गयी है। वन क्षेत्र विहीन वाराणसी इंडिया स्टेट ऑफ फॉरेस्ट रिपोर्ट 2011 के अनुसार वाराणसी में वन क्षेत्र ही नहीं है। शहर में औसतन एक हेक्टेयर में पेड़ लगे हैं। पौधरोपण में कोई प्रगति नहीं है यानी वृक्षों की संख्या स्थिर है। वन संरक्षण आर हेमंत कुमार कहते हैं कि शहरी क्षेत्र में पौधरोपण के लिए बजट नहीं है। ग्रामीण क्षेत्रों व हाईवे पर मनरेगा के तहत पौधे लगाए गए। शहर में पौधे लगाने की जिम्मेदारी विकास प्राधिकरण व नगर निगम को सौंपी गई। वैसे, मोहनसराय-इलाहाबाद मार्ग व बाईपास के निर्माण में हजारों पेड़ कटने के बाद भी बनारस में वृक्षों की स्थिति यथावत है। विकास प्राधिकरण व नगर निगम ने पिछले कई वर्षो से पौधरोपण की दिशा में कारगर कदम बढ़ाया ही नहीं। निगम धन का रोना रोता रहा है तो प्राधिकरण ने जहां-तहां ट्री गार्ड के साथ पौधे लगाने की औपचारिकता पूरी कर किनारा कस लिया।