Sunday, 3 July 2016

   वो शायद सन२००३ का रक्षा बंधन था, जब मै अपनी पौने चार साल की बिटिया को लेकरअपने चाचा जी के मकान पर मानस नगर दुर्गाकुण्ड जा रहा था.बाईक पर उसे नींद ना आये  इसलिये उससे बाते भी करता जा रहा था, वह बचपन से बेहद जिग्यासु व बातूनी होने के साथ किसी भी विषय के बारे मे ढेर सारे सवाल पूछना उसकी आदत रही है, मैने उसे वरूणा पुल से गुजरते हुये वाराणसी के नामकरण के बारे मे बताया तो उसने  वाराणसी नाम के दूसरे भाग अस्सी नदी के बारे मे पूछा, इसलिये मै उसे दिखाने के गरजसे दुर्गाकुण्ड से अपनी बाईक अस्सी लंका वाले रास्ते पर पुराने पुल की ओर बढ़ा दिया, तब रविन्द्रपुरी पुल नही बना था. वहॉ जा के मैने बेटी को बीएचयू मे पढ़ने के दौरान रोज आने जाने का रास्ता व अस्सी नदी दिखाया, अस्सी  नदी उसी समय धीरे धीरे नाले से नाली का रूप लेने लगी थी, बिटिया को पुल के नीचे दूर दूर तक नदी के बजाय नाली दिखने पर जिग्यासा होना स्वाभाविक था, उसने पलटते ही मुझसे सवाल किया कि लेकिन यहॉ नदी कहॉ है? उसके सवाल के जबाब मे जब मैने कनु के बाल मन को बताया कि अगल बगल रहने वालो ने नदी पाट कर उसे समाप्त कर दिया, आदतन दूसरा सवाल हाजिर था कि जब नदी पाटी जा रही थी तो आप लोगो ने उसे रोका क्यों नही ? बात उस समय आयी गयी हो गई, कार्यक्रम से लौटते समय वरूणा पुल पर कनु का एक दूसरा सवाल कि" वरूणा को कब पाटा जायेगा?'' बेहद मासूमियत से पूछे गये इन दोनो सवालो का जबाब मेरे पास वाकई नही था. लेकिन इन दोनो बेहद मासूम सवालो ने मुझे झकझोर डाला. कई कई राते ये दोनो सवाल मुझे परेशान करते रहे. बहुत सोच विचार कर मैने अपने दिल की बात और विचारो को अपने मित्र सूर्यभान सिंह के साथ बॉटा. फिर हम दोनो मित्रो की शाामे वहीं वरूणाकिनारे शास्त्री घाट पर बितने लगी. भारत के पूर्व प्रधानमंत्री बनारस के सपूत  स्व० लाल  बहादुर शास्त्री के नाम पर नया नया शास्त्री घाट बना था, उक्त  घाट को बनवाने मे तत्कालीन मंत्री व क्षेत्रीय विधायक वीरेन्द्र सिंह  जी की महत्वपूर्ण भूमिका थी.वीरेन्द्र सिंह के प्रयासो से ही घाट पर वरूणा महोत्सव की शुरूआत हुई थी . जिसके दो आयोजन हो चुके थे. हम दोनो  लोग नये विचार करते और उनके कार्यान्यवन के संभावनाओ पर सोचते . सबसे पहले वरूणा को जानने व समझने की बात उठी, फिर हम लोगो ने बाईक उठाया और वरूणा की भौगोलिक रचना समझने के लिये हम लोग फूलपुर इलाहाबाद वरूणा ताल तक गये.वहॉ फैले विशाल पर लगभग तीन चौधाई से अधिक सूख चुका वरूणा ताल काे देख कर लगा कि किसी तरह हमने प्राकृतिक अविरल व संचरण व्यवस्था मे हस्तक्षेप कर अपनी खुद की समस्यायो बढ़ा रखा है। बाईक से वरूणा के संग यात्रा के दौरान हमने यह महसूस किया कि इस तरह वरूणा किनारे सड़को पर चलने से हम अपने उद्देश्य के प्रतिष्ठित सही न्याय नही कर पायेगें लिहाजा यह तय हुआकि वरूणा तट पर पदयात्रा कर के ज्यादा से ज्यादा जानकारी इकट्ठी करनी पड़ेगी। मित्र सूर्यभान जी  की लंबी टॉगो ने यह काम बखूबी से किया । हम लोगो के पास सूर्यभान जी के दो बार के पदयात्रा के बाद वरूणा के संबध मे काफी व्यवहारिक जानकारियॉ थी। वरूणा की पीड़ा, उसके तटवासियो की पीड़ा, समस्या व उसकी संभावित समाधान की एक सूची थी।  पर  समस्या यह था कि इन व्यवहारिक समाघान को किसी तरह धरातल पर लाया जाय। क्योकि हम लोगो के पास न तो सामर्थ्य था न ही अधिकार ।
कुछ और मित्रों को हम लोगो ने अपने सरकारो मे शामिल किया तो उनके इनुभव, संबंधो व विचारो का लाभ मिलने के साथ ही हमारे सामर्थ्य का विस्तार हुआ।तय हुआ कि वरूणा के भौगोलिक अध्ययन के साथ वरूणा का सांस्कृतिकर्मी पौराणिक व ऐतहासिक महत्व व वानस्पतिक प्रभाव के साथ पारिस्थितिकी अध्ययन भी किया जाये।
अगली रणनीति इस संबंध मे बनने लगी ।

वरूणा गीत


 

मॉ वरूणा को समर्पित इस गीत की रचना प्रख्यात कवि पं० हरि राम द्विवेदी जी ने हमारी वरूणा अभियान के आग्रह पर वर्ष २००७ मे किया था।यह गीत वरूणा के महत्व के साथ काशी के संस्कृति को भी संप्रेषित करता है।
है जुड़ी वरूणा हमारी आस्था के गीत से
और काशी की संजोई साधना की रीति से
लोक के अनुराग की शुभरागिनी के प्रण सी
पीढीयो से गा रहा यह शहर वाराणसी। 
राग रंजित कामनायें,रास रस की प्रीति से।
है जुड़ी........
पंचक्रोसी की परिधि मे जो तुम्हारा नाम है
है वही महिमा सनातन  लोक का सम्मान है
प्रकृति को तुमने सँवारा है नरम नवनीत से
है बसी.....
गति तुम्हारी देख ऑखे आज डबडब हो रही
देख अवजल का मिलन निष्ठा बिचारी को रही
यह समय सहमा हुआ कुछ कह न सके अतीत से
है जुड़ी.....

Sunday, 15 July 2012

वरुणा के लिए समिति बना कर पैकेज दे सरकार




सेवापुरी। वरुणा की अविरलता और निर्मलता के लिए संघर्षरत साधु-संतों और ग्रामीणों ने शुक्रवार को भी आधा दर्जन गांवों में पदयात्रा कर ग्रामीणों को लामबंद करने का प्रयास किया। इसके बाद खरगूपुर स्थित प्राचीन शिवमंदिर परिसर में प्रतीकात्मक कुंभकर्णी प्रशासन को ढोल, नगाड़ा बजा कर जगाने का प्रयास किया। कुंभकर्ण का अभिनय मंदिर के महंत पं. दीनानाथ मिश्र ने किया।
पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के तहत साधु-संतों और ग्रामीणों ने हाथी, बैजलपुर, बसवरिया समेत कुल आधा दर्जन गांवों में पदयात्रा की। शाम पांच बजे खरगपुर शिवमंदिर के परिसर में वरुणा की निर्मलता के लिए शासन और प्रशासन की ओर से कार्रवाई नहीं किए जाने पर रोष जताया। कहा कि लंबे समय से संघर्ष चल रहा है लेकिन प्रशासन की कुंभकर्णी निद्रा नहीं टूट रही है। वरुणा नदी की सफाई, नदी क्षेत्र से अतिक्रमण हटाने और नदी के सुंदरीकरण के लिए समिति बना कर पैकेज देने की मांग सरकार से की। इस मौके पर वरुणा मुक्ति संघर्ष अभियानम के संयोजक राधेश्याम सिंह उर्फ लल्लू बाबा, दया बाबा, अध्यक्ष महेंद्र सिंह चंदेल, प्रेमनारायण, गुलाब सिंह, शिवशक्ति युवा जनसमूह के अध्यक्ष सुखदेव मिश्र शनि, चंद्रशेखर मिश्र आजाद, दीपक तिवारी, मुखई पाल, उदयशंकर सिंह, चंद्रिका, देवेंद्र मिश्र, ग्राम प्रधान मनबास पटेल, जटाशंकर सिंह, विकास मिश्र, भरत मिश्र, रविशंकर मिश्र आदि थे। 14 जुलाई को आदि शक्ति श्री देवी मंदिर कुंडरिया के परिसर में महिलाएं देवी गीत और पचरा गाकर देवी से वरुणा मुक्ति की कामना करेंगी।

Monday, 9 July 2012

गंगा अभियान: असि व वरुणा बचाने को आगे आए काशी

वाराणसी। विकास की अंधी दौड़ में नदियों की चिंता किसी को नहीं हैं। गंगा की ही तरह वरुणा देव नदी है। इसकी रक्षा बेहद जरूरी है वरना असि की तरह यह भी विलुप्त हो जाएगी। गंगा सेवा अभियानम ने नदियों की रक्षा का संकल्प ले रखा है। गंगा से इसकी शुरुआत की गई है। जिस दिन गंगा अविरल हो जाएगी, वरुणा की भी दशा सुधर जाएगी। इसी के साथ गंगा-वरुणा से जुड़ी अन्य सहायक नदियों का भविष्य सुरक्षित हो जाएगा।

यह विचार हैं जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती के। वह सोमवार को श्रीविद्यामठ में गंगा पर बात कर रहे थे। उन्होंने इस बात पर गहरी चिंता व्यक्त की कि असि जैसी पौराणिक महत्व की नदी, आज नाले के रूप में हमारे सामने है। इसकी जमीन पर बड़ी-बड़ी कालोनियां खड़ी हो गईं। सवाल यह कि इसकी जमीन बेची किसने और उन्हें जमीन बेचने की अनुमति किसने दी। इसका उत्तर किसी के पास नहीं है। वरुणा के साथ भी यही हो रहा है। एक तरफ वरुणा नाला बन सिमटती-सिकुड़ती जा रही है तो इसकी जमीन पर कब्जे होते जा रहे हैं। असि नदी से सबक लेते हुए हमें नदियों की रक्षा के प्रति जागृत होना होगा। शंकराचार्य ने कहा कि देश की कमोवेश सभी नदियां असि नदी की राह पर हैं। बड़े-बड़े नालों की भरमार और बेहिसाब दोहन ने नदियों के भविष्य को खतरे में डाल रखा है। कहा, जीवन को चलाने के लिए अन्न और जल चाहिए। ऐसे में जल संरक्षण की भावना जागृत करने आगे आना होगा।

शंकराचार्य ने पूछा, कहां गई असि नदी और कैसे

संवाददाता, वाराणसी : विकास की अंधी दौड़ में नदियों की चिंता किसी को नहीं हैं। गंगा की ही तरह वरुणा देव नदी है। इसकी रक्षा बेहद जरूरी है वरना असि की तरह यह भी विलुप्त हो जाएगी। गंगा सेवा अभियानम ने नदियों की रक्षा का संकल्प ले रखा है। गंगा से इसकी शुरुआत की गई है। जिस दिन गंगा अविरल हो जाएगी, वरुणा की भी दशा सुधर जाएगी। इसी के साथ गंगा-वरुणा से जुड़ी अन्य सहायक नदियों का भविष्य सुरक्षित हो जाएगा।
यह विचार हैं जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती के। वह सोमवार को श्रीविद्यामठ में दैनिक जागरण से गंगा पर बात कर रहे थे। उन्होंने इस बात पर गहरी चिंता व्यक्त की कि असि जैसी पौराणिक महत्व की नदी, आज नाले के रूप में हमारे सामने है। इसकी जमीन पर बड़ी-बड़ी कालोनियां खड़ी हो गईं। सवाल यह कि इसकी जमीन बेची किसने और उन्हें जमीन बेचने की अनुमति किसने दी। इसका उत्तर किसी के पास नहीं है। वरुणा के साथ भी यही हो रहा है। एक तरफ वरुणा नाला बन सिमटती-सिकुड़ती जा रही है तो इसकी जमीन पर कब्जे होते जा रहे हैं। असि नदी से सबक लेते हुए हमें नदियों की रक्षा के प्रति जागृत होना होगा। प्यास बुझाने के लिए नदियों का अविरल-निर्मल होना बहुत जरूरी है। ईश्वर ने काशी को असि, वरुणा और गंगा जैसी नदियां दी हैं लेकिन हम इनकी अविरलता-निर्मलता की रक्षा नहीं कर पा रहे हैं। शंकराचार्य ने कहा कि देश की कमोवेश सभी नदियां असि नदी की राह पर हैं। बड़े-बड़े नालों की भरमार और बेहिसाब दोहन ने नदियों के भविष्य को खतरे में डाल रखा है। कहा, जीवन को चलाने के लिए अन्न और जल चाहिए। इसमें जल सर्वोपरि है। ऐसे में जल संरक्षण की भावना जागृत करने आगे आना होगा।

बचाओ असि व वरुणा को ताकि बचा रहे वाराणसी


-बचाएंगे हर हाल में बनारस की पहचान : बोले स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद
संवाददाता, वाराणसी : जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती ने कहा है कि वरुणा और असि से ही 'वाराणसी' चरितार्थ है। इसे बने रहने दिया जाना चाहिए, इसे बचाना ही चाहिए।
श्रीविद्यामठ में बुधवार को उन्होंने दैनिक जागरण द्वारा नदियों के उद्धार के बाबत किए जा रहे प्रयासों पर प्रसन्नता व्यक्त की और कहा कि गंगा सेवा अभियानम् ने नदियों की अविरलता निर्मलता लौटाने का संकल्प ले रखा है। खासतौर से काशी में गंगा के साथ ही असि और वरुणा को पुनर्जीवित किया जाना चाहिए। इसके तमाम तरीके हैं और इन तरीकों से ही कई नदियों को पुनर्जीवन मिला भी है। बस काशीवासियों में इच्छाशक्ति जागने की जरूरत है।
आमंत्रित किए जाएंगे जल विशेषज्ञ
गंगा अभियानम के सार्वभौम संयोजक स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद ने बताया कि गंगा के माध्यम से नदियों के संरक्षण की शुरुआत की गई है। चातुर्मास संपन्न होते ही वरुणा की दशा सुधारने और असि को पुनर्जीवित करने की दिशा में कदम उठाया जाएगा। इसके लिए जलपुरुष राजेंद्र सिंह सहित अन्य जल विशेषज्ञों को काशी आमंत्रित किया जाएगा। हमारा यह अभियान काशी की गंगा जमुनी तहजीब के तहत चलेगा। इस अभियान में एक नदी की जिम्मेदारी हिंदू समाज के कंधों पर होगी तो दूसरी की कमान मुस्लिम समाज के हाथों में होगी। कहा, जब गंगा को बचाने का बीड़ा दोनों समाज के लोगों ने उठा लिया है तो काशी की पहचान और भविष्य से जुड़ी अन्य दोनों नदियों का भी उद्धार दोनों मिलकर करेंगे।

आज सूखी वरुणा में धान रोपेंगे किसान

सेवापुरी। एक ओर साधु-संत और ग्रामीण सूखती वरुणा नदी में पुन: जलप्रवाह देखने की आकांक्षा लिए आंदोलनरत हैं, वहीं शासन-प्रशासन की बेरुखी उन्हें उद्वेलित कर रही है। वरुणा के पुनरुद्धार के प्रति बेपरवाह बनी प्रशासनिक मशीनरी को जगाने के लिए संतों और ग्रामीणों ने नया रास्ता खोजा है। रविवार को वरुणा मुक्ति अभियान के तहत लोग विभिन्न गांवों में पदयात्रा के जरिये अलख जगाते हुए तेंदुई स्थित अमिलहा घाट पहुंचेंगे और यहां सूखी वरुणा में धान की रोपाई करेंगे।
शनिवार शाम संतों ने सेवापुरी ब्लाक के खरगूपुर, पचवार, बरनी, हाथी आदि गांवों में पदयात्रा निकाल ग्रामीणों को वरुणा की रक्षा के लिए जागरूक किया। इसके बाद संतों की टोली भिटकुरी स्थित विहारेश्वर महादेव मंदिर पहुंची। यहां महंत बाबा रामदास के आचार्यत्व में शिवार्चन किया गया। तत्पश्चात आचार्य सभाजीत पांडेय के नेतृत्व में वैदिक मंत्रोच्चार के साथ यज्ञ किया गया।

वजूद के लिए जूझती वरुणा की जीवनधारा

संवाददाता, वाराणसी : वरुणा नदी अपने वजूद से जूझ रही है। अतिक्रमण की होड़ से जहां इसके पाट सिकुड़ रहे हैं वहीं इसमें गिरने वाले नालों की बढ़ती संख्या ने इसे मैला ढोने वाली नदी बना दिया है।
बीएचयू में गंगा अन्वेषण केंद्र के संस्थापक रहे प्रो. यूके चौधरी की अध्ययन रिपोर्ट बताती है कि शहर के एक बड़े क्षेत्र के अवजल स्रोतों का ढलान वरुणा की तरफ होने से जहां नदी में अवजल की मात्रा बढ़ती जा रही है वहीं गंगा बेसिन का जलस्तर गिरने से वरुणा के मौलिक जल की मात्रा भी कम होती जा रही है। किसी नदी के नाला में तब्दील होने की वजह भी यही होती है। किसी नदी की महत्ता उसके जल की मात्रा, गुणवत्ता व वेग पर आधारित होती है। काशी के लिए वरुणा का महत्व इसलिए भी और बढ़ जाता है क्योंकि यह नदी गंगा की ओर से भूमिगत जल प्रवाह को अपनी ओर खींचकर न केवल नगर के भूमिगत जलस्तर को बढ़ाती है वरन मृदाक्षरण रोककर शहर को स्थिरता भी प्रदान करती है। ऐसे में वरुणा का जल जैसे-जैसे दूषित-गतिहीन होता जाएगा, गंगा का किनारा असुरक्षित होता जाएगा।
रोका जाए नाले का पानी : प्रो. चौधरी
प्रो. चौधरी कहते हैं कि वरुणा को जीवित रखने के लिए पहले तो इसमें गिर रहे नालों का पानी रोका जाए। दूसरा इसके बेसिन (नदी तक जल पहुंचाने वाले क्षेत्र) एरिया में वर्षाजल को संरक्षित करने की व्यवस्था की जाए ताकि वर्षाजल का त्वरित निस्तारण रुके और इसका प्रयोग वरुणा के न्यूनतम प्रवाह को बरकरार रखने में किया जाए। बताया, नगर का वरुणा की तरफ ढलान अधिक होने से वर्षा का जल तुरंत नदी में निस्तारित हो जाता है। लिहाजा वर्षा बाद नदी का मौलिक जल घटने लगता है और नाले के पानी का अनुपात बढ़ने लगता है। बेहतर हो कि नदी के बेसिन में छोटे-छोटे जलभरण बनाकर भूमिगत जल संरक्षण की क्षमता बढ़ाई जाए। यही उपाय वरुणा को नया जीवन दे सकता है।
प्रस्तावित योजना की दशा :
वरुणा में गिर रहे नालों का फिलहाल कोई बंदोबस्त नहीं हो सका है। वरुणापार क्षेत्र को सीवर सुविधायुक्त करने की योजना पर काम चल रहा है। पाइप बिछाए जा रहे हैं लेकिन इससे जुड़े सीवर ट्रीटमेंट प्लान का दूर-दूर तक पता न होने से अभी इस योजना का लाभ वरुणा को मिलने वाला नहीं है।
वाराणसी। निश्चित रूप से वरुणा व असि नदी को शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती सरीखे किसी ऐसे जीवट व्यक्तित्व वाले संत का ही इंतजार है, जो उसके वैभवशाली अतीत को वापस ला देदिनों असि तो लुप्त प्राय है जबकि वरुणा कई स्थानों पर नाला बन गई है तो कई स्थानों पर इसमें पानी ही नहीं है। सोमवार को वरुणा व असि नदी की रक्षा के लिए शंकराचार्य की उठी आवाज के सकारात्मक परिणाम आए हैं। सं। इन तों -महात्माओं संग काशीवासियों ने दोनों नदियों के अस्तित्व की रक्षा का संकल्प लिया है।
संत, गंगा संग वरुणा व असि नदी को बनारस के लिए बेशकीमती कुदरती तोहफा मानते हैं। संतों का कहना है, जिन दिनों गंगा का पानी तेजी से बढ़ता है तो वरुणा ही उसके तेज को संभालती रही है। इससे शहर को बाढ़ से ज्यादा क्षति नहीं होने पाती। जिस दिन असि नदी की तरह वरुणा भी पाट कर नाला बना दी गई तो शहर को बचाना भी मुश्किल हो जाएगा। हालांकि इन दिनों काशी की प्राचीन दोनों नदियों के आसपास मकान बन गए हैं।

इस दिशा में न तो सरकारी तंत्र में कोई दृढ़ता दिख रही और न ही स्वयंसेवी संगठनों में ही। नतीजा यह है कि वरुणा नदी का जलग्रहण क्षेत्र जहां घटता जा रहा है वहीं गंदे पानी को डालने का क्त्रम भी तेज है। काशी के प्रबुद्ध वर्ग का कहना है कि यदि वरुणा को गहरा कर वर्ष भर जल संग्रह के लिए कुछ स्थानों पर छोटे बंधे बना दिए जाएं तो यहां के जलस्तर में सुधार हो सकता है। गंगा के साथ ही साथ वरुणा की भी योजना बननी चाहिए।
शंकराचार्य के आहृवान के बाद संत, जन-जन में सभी नदियों व तालाबों के प्रति संरक्षण का भाव भरने के लिए संकल्पित हैं। गंगा तपस्या अभियान के सार्वभौम राष्ट्रीय संयोजक स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद सरस्वती का मानना है कि गंगा की तरह ही वरुणा भी किसी दृढ़ निश्चयी व्यक्तित्व का इंतजार कर रही है, जो उसे उबारे। कहा कि पुराणों में काशी क्षेत्र के उत्तर में वरुणा, पूर्व में गंगा और दक्षिण में असि नदी का उल्लेख मिलता है। प्राकृतिक संपदाओं से भरपूर ये तीनों नदियां प्राकृतिक रूप से काशी नगरी को स्थिरता प्रदान करती रही हैं। शायद इसी लिए काशी को अविनाशी नगरी के रूप में मान्यता मिली और यह भारतीय धर्म दर्शन, संस्कृति, साहित्य व कला की संरक्षक नगरी के रूप में विकसित हुई।
बेशक, इन दिनों गंगा के दक्षिणी मोड़ पर मिलने वाली असि नदी को अब नदी मानने में कठिनाई हो रही है। वजह, इसका वजूद आज अस्सी नाला के रूप में ही शेष रह गया है। गंगा-वरुणा के सतह से काफी ऊचाई पर बहने वाली इस नदी का गंगा में प्राकृतिक संगमीय कोण 45 से 60 डिग्री हुआ करता था। वर्तमान में अप्राकृतिक रूप से इसे स्थानांतरित कर दक्षिणी छोर पर ही तकरीबन 90 डिग्री कोण से गंगा में मिलाया गया है और इसमें नदी के एक भी चारित्रिक गुण नहीं है जबकि प्राचीन पुराण काल में इसको शुष्का नदी के नाम से बहुधा पुकारा गया है। यहां तक कि इससे संबद्ध शिवलिंग का नाम भी शुष्केश्वर कहा गया है।
कुछ समय पूर्व प्रकाशित गंगा रिसर्च सेंटर की रिपोर्ट के मुताबिक वरुणा-असि नदी का अपना मौलिक जल, गुण, मात्रा और आवेग हुआ करता था। जो नगर के भूमिगत जल स्तर को संतुलित करने के साथ ही गंगा के कटान क्षेत्र में बंधा का काम करता था।
गंगा के लिए वरुणा डाउन स्टीम (राजघाट क्षेत्र) में और असि अप स्टीम (गंगा के नगर प्रवेश क्षेत्र) में दो पहरेदारों की तरह सीमा रक्षा का काम करती रही हैं। ये नदियां अपने द्वारा लाई गई मिट्टी को गंगा के कटाव वाले क्षेत्रों में भर कर उसे स्थिरता प्रदान करती हैं। इसके अलावा गर्मी के दिनों में गंगा का जल स्तर गिरने पर नगर के भूमिगत जल रिसाव को अपनी ओर मोड़ कर मृदक्षरण रोकने का भी काम करती रही है।
संतों का कहना है कि काशी में गंगा के आदि कालीन अर्धचंद्राकार स्वरूप की स्थिरता का कारण ये तीन नदियां हैं तो ये ही त्रिशूल भी हैं जो काशी को अविनाशी स्वरूप प्रदान करती हैं। इन नदियों का जल, गुण, मात्रा और आवेग का आपसी तालमेल जिस अनुपात में बिगड़ेगा नगर की स्थिरता व भूमिगत जल उपलब्धता तथा गुण का संतुलन भी उसी अनुपात में बिगड़ता जाएगा। वरुणा व असि के लिए शंकराचार्य की उठी आवाज रंग लाएगी, ऐसा विश्वास है।

Wednesday, 20 June 2012

वरुणा की निर्मलता को किया यज्ञ




Story Update : Wednesday, June 20, 2012     2:15 AM
सेवापुरी। वरुणा की अविरलता-निर्मलता की अलख जगाने के बाद भी यह मुहिम जारी है। काशी प्रांत के गोरक्षा प्रमुख राधेश्याम सिंह उर्फ लल्लू बाबा के नेतृत्व में बड़ी संख्या में लोगों ने मंगलवार की सुबह कई गांवों का भ्रमण करने के बाद दानूपुर स्थित काली मंदिर के परिसर में यज्ञ का आयोजन किया। इस दौरान लोगों ने हवन कर वरुणा की अविरलता और निर्मलता की कामना की।
यज्ञ में शामिल लोगों ने वरुणा की अविरलता की कामना मां काली से की। वरुणा के विरुद्ध कदम उठाने वालों की बुद्धि शुद्धि के लिए प्रार्थना की। तड़के बड़ी संख्या में लोग हाथी, सराहूपुर, बरनी, पचवार, बेसहूपुर, गोसाईपुर, दानूपुर आदि गांवों में भ्रमण कर लोगों को जागरूक किया। इसके बाद काली मंदिर पहुंच कर सात बजे से यज्ञ शुरू किया।

Monday, 18 June 2012

"मेरे शहर में "


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Saturday, 16 June 2012

यूपी की एक दर्जन नदियों का अस्तित्व खतरे में

पूर्वी उत्तर प्रदेश में बढ़ता जा रहा है जल संकटवाराणसी (डीएनएन)। प्रदूषण और अंधाधुंध दोहन से पूर्वी उत्तर प्रदेश की एक दर्जन नदियां मृतप्राय हो चुकी है और जो बची हैं उनका भी अस्तित्व खतरे में है। इनमें अधिकतर गंगा एवं यमुना की सहायक नदियां हैं। जल ही जीवन है और पानी बचाओ जैसे नारे बेमानी हो चुके हैं। इन नदियों के प्रति न तो सरकार और न जनता जागरूक है। नदियां प्रदूषण से कराह रही हैं। इनका अंधाधुंध दोहन जारी है। शहरों का गंदा जल एवं कारखानों का कचरा इन नदियों में बेरोक टोक गिर रहा है। गंगा एवं यमुना समेत तमाम नदियां या तो प्रदूषण की मार झेल रही हैं या सूखने की त्रासदी। पूर्वी उत्तर प्रदेश में जल संकट बराबर बढ़ता जा रहा है। नदियों से मनुष्य का नाता किसी से छुपा नहीं है। पीने के पानी, नहाने, धोने से लेकर सिचाई तक आदमी नदियों पर निर्भर है। यहां तक कि सारे संस्कार एवं धार्मिक अनुष्ठान नदियों के किनारे सम्पन्न होते हैं। धार्मिक नगरी वाराणसी में गंगा प्रदूषण के चलते काली पड़ गयी है। उनका बहाव नाम मात्न को रह गया है। अब तो हाल यह है कि लोग गंगा स्नान करने से कतराने लगे हैं। वरुणा एवं अस्सी जिनके योग से वाराणसी नाम पड़ा नाले के रुप में परिवति॔त हो चुकी है। इन दोनों नदियों में पानी कम कचरा अधिक नजर आता है। उधर से गुजरने वाले लोग बदबू के चलते नाक पर कपड़ा रखने को मजबूर होते हैं। असी नदी में शहर के बड़े हिस्से का गंदा पानी बह रहा है। वरुणा में बड़े-बड़े गन्दे नाले बेरोकटोक गिर रहे हैं। नदी के दोनो किनारों पर अवैध कब्जा कर अट्टालिकाएं बन रही है। कालोनियों का सारा गंदा पानी नदी में गिर रहा है यही नही शहर का सारा कचरा इनके किनारों पर डाला जा रहा है। जौनपुर में भी पीली एवं सई नदी प्रदूषण की मार झेल रही है। गोमती नदी की हालत भी खस्ता है। इलाहाबाद में यमुना एवं गंगा में दर्जनों गंदे नाले गिर रहे हैं। फैजाबाद मे बहने वाली मडहा एवं विषही नदियों में बरसात को छोड़ अन्य दिनों में पानी नही रहता। सिल्ट जमा होने के कारण दोनों नदियां छिछली हो गयी है। रामचरित मानस में वíणत तमसा नदी का भी वजूद खतरे में हैं। मिर्जापुर में खतुही नदी सूखने के कगार पर है। सोन नदी भी सिकुड़ कर नाला बन गयी है। इन नदियों के सूखने से जल स्तर तेजी से घट रहा है। गर्मी शुरु होते ही हैन्डपम्प कुएं एवं नलकूप सूख जाते हैं। नदियों को आपस में जोडने की बात तो होती है पर अमल में नही लाया जाता। सैकड़ों गांवों की प्यास बुझाने वाली गाजीपुर की मन्गई नदी में गर्मी आते आते इतना भी पानी नहीं बचता की खुद अपनी प्यास बुझा सके। मई जून में तो इसकी तलहटी में धूल उड़ती है। पर्यावरणविदों का कहना है कि समय रहते हम नही चेते तो गंगा यमुना का यह क्षेत्र न केवल भयंकर जल संकट से जूझेगा बल्कि देश की सांस्कृतिक पहचान ये नदियां इतिहास के पन्नों की चीज रह जाएगी एवं हरा भरा मैदान रेगिस्तान में बदल जाएगा।

"गंगा एक्शन प्लान" के सूत्रधार प्रो. बी.डी. त्रिपाठी की चेतावनी

"गंगा एक्शन प्लान" के सूत्रधार प्रो. बी.डी. त्रिपाठी की चेतावनी


अनर्थ हो जाएगा!!
प्रो. बी.डी. त्रिपाठी देश के जाने-माने पर्यावरण विशेषज्ञ हैं। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के वनस्पति शास्त्र विभाग में पिछले 30 वर्षों से गंगा, पर्यावरण आदि विषयों पर वह अध्ययन-अध्यापन एवं अनुसंधान कर रहे हैं। प्रो. त्रिपाठी को राष्ट्रपति द्वारा "पर्यावरण मित्र" का पुरस्कार भी मिल चुका है। गंगा के प्रदूषण मुक्ति अभियान के लिए केन्द्र सरकार द्वारा बनाए गए "गंगा एक्शन प्लान" से उनका प्रारंभ से ही जुड़ाव रहा है। 1981 में संसद में श्री एस.एम. कृष्णा ने गंगा में बढ़ते प्रदूषण पर जो पहला प्रश्न पूछा था, वह प्रो. त्रिपाठी के अनुसंधान पर ही आधारित था। प्रो. त्रिपाठी ने उसी समय चेताया था कि गंगा में प्रदूषण बढ़ रहा है, सरकार और समाज इस ओर ध्यान दे। प्रो. त्रिपाठी राष्ट्रीय पर्यावरण संरक्षण परिषद के अध्यक्ष भी हैं और प्रयाग उच्च न्यायालय द्वारा "गंगा एक्शन प्लान" के तकनीकी विशेषज्ञ भी नियुक्त किए गए हैं। यहां प्रस्तुत है उनसे "गंगा एक्शन प्लान" और टिहरी बांध के पर्यावरणीय पहलुओं पर हुई बातचीत के मुख्य अंश -
वैज्ञानिक प्रयोगों द्वारा यह सिद्ध किया जा चुका है कि गंगाजल अद्भुत विशेषताओं से युक्त है। इसके जल में आक्सीजन की मात्रा बहुत ज्यादा होती है तथा इसमें बैक्टीरियोफाज पाया जाता है, जिससे इसके जल में कीड़े नहीं पड़ते। पड़ते भी हैं तो यह बैक्टीरियोफाज उन्हें समाप्त कर देता है। यानी इसमें प्रदूषण को दूर करने की अपनी ताकत है, जो किसी अन्य नदी में नहीं पाई जाती। इसीलिए हमारे पुरखों ने गंगा जल को औषधि कहा, इसके गुण गाए।
टिहरी बांध के अधिकारियों का यह कहना कि एक पाइप द्वारा गंगा की अविरल धारा जारी है, मुझे तरस आता है। यह तो वैसे ही हुआ कि मानो वरुणा नदी में आठ-दस बाल्टी गंगा जल छोड़कर हम कहें कि लीजिए साहब, वरुणा नदी अब गंगा हो गई। यह कहते हुए उन्हें शर्म भी नहीं आती।
सरासर झूठ बोला जा रहा है। गंगा का मूल प्रवाह ही वास्तव में रोक दिया गया है। इसका प्रभाव विनाशकारी होगा। वस्तुत: हमारे पापों की सजा गंगा को मिल रही है। लेकिन शीघ्र ही लोगों को समझ में आएगा कि हम अनर्थ की ओर बढ़ रहे हैं। इसका असर उत्तर भारत, विशेषत: उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल की कृषि पर भी होगा। यहां के पौधे गंगा जल की गुणवत्ता से वंचित होंगे। जल की गुणवत्ता का पौधे पर काफी असर होता है।
जहां तक "गंगा एक्शन प्लान" का विषय है, 1981 में प्रधानमंत्री (स्व.) श्रीमती इंदिरा गांधी के समय इसकी शुरुआत हुई थी। इन्दिरा गांधी 1981 में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में 68वीं विज्ञान कांग्रेस का उद्घाटन करने आई थीं। उनके साथ भारतीय कृषि वैज्ञानिक एवं योजना आयोग के सदस्य डा. एम.एस. स्वामीनाथन भी थे। उस समय दोनों लोगों ने मुझे बुलाकर गंगा में बढ़ते प्रदूषण पर जानकारी ली थी। इन्दिरा जी ने उस समय कहा था कि हर हाल में गंगा में बढ़ता प्रदूषण रुकना चाहिए। दिल्ली लौटकर उन्होंने उत्तर प्रदेश, बिहार व प. बंगाल के मुख्यमंत्रियों को इस सन्दर्भ में पत्र लिखा ताकि गंगा में प्रदूषण रोकने के लिए एक समग्र कार्यक्रम शुरू हो सके। बाद में श्री राजीव गांधी ने गंगा को प्रदूषण मुक्त करने का मुद्दा कांग्रेस के चुनाव घोषणा पत्र में डाला और 1984 में कांग्रेस सरकार बनने के बाद "गंगा एक्शन प्लान" बना। इसके अन्तर्गत केन्द्र सरकार ने 500 करोड़ रुपए भी तत्काल स्वीकृत कर दिए और काशी, कानपुर और पटना में बड़े-बड़े मल व्ययन संयन्त्र (सीवेज ट्रीटमेन्ट प्लान्ट) के निर्माण का कार्य प्रारम्भ कर दिया गया। उस समय मैंने इस योजना की खामियों की ओर सरकार का ध्यान आकृष्ट किया और पत्र लिखकर कहा कि, "जल्दबाजी में गंगा प्रदूषण नियंत्रण का कार्य प्रारम्भ मत करिए। इस सन्दर्भ में कोई योजना बनाने के पूर्व वैज्ञानिकों की टीम से विचार-विमर्श अवश्य हो, ताकि जो भी कार्यक्रम बने वह परिणामकारी हो।" लेकिन मेरी बात अनसुनी कर दी गई। परिणाम यह निकला कि करीब 5-6 वर्षों के बाद वाराणसी मल व्ययन संयन्त्र के महाप्रबंधक ने हस्तक्षेप करने पर उच्च न्यायालय को बताया कि, " उद्योगों से जो भारी प्रदूषक तत्व गंगा में डाले जा रहे हैं, हमारा संयन्त्र इस प्रदूषण को दूर कर पाने में अक्षम है।" तब उच्च न्यायालय ने तकनीकी विशेषज्ञ के रूप में मुझसे सलाह ली थी। मैंने न्यायालय के समक्ष तब यही कहा था कि, "ये सही बात है कि यह संयन्त्र गंगा में औद्योगिक प्रदूषण को दूर कर पाने में अक्षम है। लेकिन इसकी जानकारी तो सरकार को हमने पहले ही दे दी थी।" मैंने न्यायालय के समक्ष यह भी कहा कि, "यह जानते हुए भी कि प्रदूषण कम होने की बजाय बढ़ रहा है, सरकार ने 500 करोड़ रुपए का व्यय गंगा-प्रदूषण रोकने के नाम पर क्यों किया?" मेरे इसी तर्क पर उच्च न्यायालय ने "गंगा एक्शन प्लान" के द्वितीय चरण का 1200 करोड़ रुपया, जो स्वीकृत किया जा चुका था, रोकने का आदेश दिया। न्यायालय ने छह सदस्यीय समिति बनाकर यह भी कहा कि जो भी कार्यक्रम आगे बनेगा, इस समिति की संस्तुति पर ही बनेगा। लेकिन सरकारी रवैया ढुलमुल ही रहा।
मुझे दु:ख होता है कि सरकार ने गंगा के सवाल पर सदैव अदूरदर्शिता ही दिखाई है। वैज्ञानिकों- विशेषज्ञों के प्रामाणिक अनुसंधानों को दरकिनार कर योजनाओं का क्रियान्वयन किया गया है। टिहरी बांध के विषय में भी मैंने विरोध किया, कई अन्य वैज्ञानिकों ने विरोध जताया। इसके विपरीत कुछ वैज्ञानिकों की टोली ने सर्वोच्च न्यायालय में रपट दाखिल की थी कि टिहरी बांध से पर्यावरण पर कोई बुरा प्रभाव नहीं पड़ेगा। मैं मानता हूं कि ऐसी रपटें देने वाले ये लोग वैज्ञानिक नहीं, सरकार के आश्रित- जीवी हैं। सरकार जब चाहती है अपने उपकृत वैज्ञानिकों द्वारा मनमाफिक रपट बनवा लेती है। मैं किसी का नाम नहीं लेना चाहता लेकिन ये जरूर कहूंगा कि जिन लोगों ने कभी गंगा को देखा नहीं, कभी गंगा पर जिन्होंने कोई अनुसंधान कार्य नहीं किया, सरकार की नजरों में वही आज गंगा- विशेषज्ञ हैं, वैज्ञानिक हैं।

जीवन दायिनी नदी असी


विश्व विख्यात वाराणसी शहर जिन दो नदियों के नाम से जाना जाता है-वाह हैं वरुणा और असी। इन दोनों नदियों का पौराणिक महात्म्य है । जैसा कि वामन पुराण में भगवान विष्णु ने भोलेनाथ को बताया है कि ,प्रयाग में योगशायी जोकि विष्णु के ही अंशावतार थे उनके बाये पैर से वरुणा और दाहिने से असी नदी निकली हुई है । इतना ही नहीं भगवान् विष्णु भोलेनाथ को असी और वरुणा में स्नान कर दशास्व्मेध पर निवास कि सलाह भी देते हैं ,और बताते हैं कि ये दोनों ही नदियाँ अति पुण्यदायी और पापनाशक हैं। उस क्षेत्र को जहा से असी और वरुणा निकली हैं इसे योगशायी का क्षेत्र कहा जाता था ,लेकिन क्षोभ कि आज इन दोनों नदियों में असी को तो नदी बताने पर लोग हस्ते हैं,नाला ही उसकी पहचान हो चली है,और वरुणा भी उसी रह पर है। देश विदेश से अरबो खरबों रूपये गंगा के नाम पर आये लेकिन गंगा सेवकों द्वारा इसको बोझ समझ इस कदर बहाया गया कि पैसा नहीं बस रेट दीखता है। हालाँकि असी जैसी हालत गंगा कि कभी भी नहीं होगी ये तय है लेकिन अगर ये सरे कृत्य सिर्फ भविष्य में किसी पूर्व अनुदानित को हटाकर खुद के खाते को खजाना बनाने कि तयारी साबित हुई तो निश्चित असी हो जाएगी,और उसके जिम्मेदार हम सब होंगे।
हमें अपनी जिम्मेदारिओं से मुह नहीं मोदनी चाहिए,मुट्ठी भर सरकारी लोग हर चीज को सही सात जनम में नहीं कर पाएंगे ,वो दाल में घी बन सकते हैं दाल नहीं ,वो बात दीगर है कि घी कौन सा डालेंगे भगवान ही जाने। अतः निवेदन है वाराणसी कि जनता से घबराइये नहीं हम आगे आइये पीछे आइये कि बात नहीं करेंगे बल्कि ये कहेंगे कि लोभ से ऊपर उठे जहाँ भी इसके साथ छल हो रहा है ,अतिक्रमण हो रहा है,वो आदमी ही कर रहा है,संतोष करे सीमित संसाधनों में जीने कि आदत डालें ,नदी क्या पूरा देश फिर से चमक उठेगा।

Tuesday, 12 June 2012

एक दिवंगत नदी के सबक.



वाराणसी। गूगल सर्च कर दुनिया के हर सवालों को जवाब देने वाले कंप्यूटर दा लोगों के सामने भी लाख टके का एक सवाल अनुत्तरित है कि असि (अस्सी) नदी गई कहां। हरहराती वरुणा नदी अचानक मैला ढोने वाले बडे नाले में तब्दील कैसे हो गई। लगभग 35 करोड लोगों को जीवन देने वाली गंगा का यह हाल हुआ कैसे। इस सवाल से ही जुडे दूसरे सवाल का जवाब भी गायब है कि क्या कोई इस बात की गारंटी दे सकता है कि आने वाले दिनों में गंगा का हाल भी असि नदी जैसा नहीं हो जाएगा। सवाल खडे होने की वजहें बिल्कुल साफ हैं। यह शहर पहले ही अपनी एक नदी खो चुका है। बात सुनने में हैरतअंगेज भले ही लगे पर सच यही है कि बनारस के भूगोल से असि का इतिहास तकरीबन मिट चुका है। हैरत की कुछ वजहें और भी हैं। मसलन कुआं, सडक, खेत, खलिहान यहां तक कि पगडंडियों व नाला-नालियों तक का हिसाब रखने के लिए पटवारी से लगायत कलेक्टर तक के भारी भरकम अमले की ऐन नजर के सामने से अचानक एक मुकम्मल नदी असि गायब हो गई, .कैसे, सवाल का जवाब नदारद है। असि नदी के अवसान की दर्द भरी दास्तान कोई पौराणिक युग की घटना नहीं है। यह सब कुछ हुआ है चार पांच दशक के अंदर। अब वरुणा नदी भी उसी राह पर है। कमाल यह भी है कि इन्हीं दो नदियों के नाम पर इस शहर का नाम वाराणसी रखा गया, आज यही दो नदियां धरातल से हटकर इतिहास में अमर होने के मुहाने पर खडी हैं।
अब बारी गंगा की- किसी भी बडी नदी को प्रवाहमान रखने के लिए प्रकृति का अपना एक सिस्टम होता है। छोटी नदियां उससे संगम कर उसे प्रवाह प्रदान करती हैं। गंगा के साथ भी ऐन यही है। बिल्कुल सामान्य समझ वाली बात है कि वाराणसी नगर के सामनेघाट छोर पर असि नदी का जल गंगा को फोर्स देता था। इससे नगर की गंदगी आगे बढ जाती थी। पुन: आदिकेशव घाट छोर पर वरुणा नदी का जल गंगा में संगम कर गंदगी को और आगे बढा देता था। अब असि रही नहीं। वह नगवा नाले के रूप में हो गई। इससे उस गंगा का पूरा प्रवाह ही बाधित हो गया जो टिहरी के चलते वैसे ही तमाम बाधाओं का सामना कर रही है। पानी की भारी किल्लत ने अब गंगा को अपनी चपेट में ले लिया है। अफसोस यह कि स्थानीय प्रशासन गंगा के मसले को केंद्र का मामला बताकर बडे आराम से पल्ला झाडता रहा है लेकिन स्थानीय असि व वरुणा नदी के मामले में .जो कि पूरी तरह स्थानीय अफसरों की जिम्मेदारी है, एकदम मौन साध लेता है। उदासीनता और कर्म बोध के प्रति गैर जिम्मेदाराना रूख ने जल समृद्ध काशी को अब जल कंगाली के उस मुहाने पर लाकर खडा कर दिया है जहां से उबरने के लिए एक भगीरथ प्रयास की आवश्यकता महसूस होती है। संत समाज का अविरल-निर्मल गंगा अभियान इसी दिशा में एक प्रयास है। विशेषज्ञों की अनदेखी से हाल खराब बीएचयू में गंगा रिसर्च सेंटर के संस्थापक प्रो. यूके चौधरी कहते हैं कि विशेषज्ञ लगातार चेताते रहे हैं कि काशी की नदियों का भविष्य खतरे में है। असि तो नाला में तब्दील हो चुकी है, यदि गंगा और वरुणा को नहीं बचाया गया तो काशी को भी नहीं बचाया जा सकेगा। बकौल प्रो. चौधरी 15 वर्षो से वह शासन प्रशासन को अगाह करते आ रहे हैं कि नदियों का आपसी तालमेल जिस अनुपात में बिगडेगा, उससे जुडी काशी की स्थिरता व भूमिगत जल उपलब्धता उसी अनुपात में बिगडती चली जाएगी। इसके बाद भी हुक्मरानों की तंद्रा भंग नहीं हुई। नतीजा, काशी में सिमटती सिकुडती और बडे नाले के रूप में तब्दील हो रही यह नदियां सबके सामने हैं।

ओह! काशी का भी कंठ सूखा



वाराणसी। सदानीरा के सिरहाने बसे शहर और उसके आंचल में कल्लोल करती वरुणा व असि नदियां, लुप्त होने के बाद भी अनेक कुंड और सरोवरों से घिरी काशी का कंठ पानी के लिए सूखने लगा है। अचरज यह भी है कि कभी नदी, नद नालों व विभिन्न जल धाराओं वाले घिरे रहने वाली प्राचीन नगरी की जलभरी कोख प्रदूषण की भेंट चढ चुकी है।
गंगा और वरुणा नदियों के प्रवाह की अनदेखी से जहां इन नदियों का पारिस्थितिकी तंत्र (इको सिस्टम) असंतुलित होता जा रहा है वहीं शहर के गिरते भूजल स्तर से निर्जलीकरण के हालात बनते जा रहे हैं। नदी, कुंड सरोवरों पर कब्जे और कुदृष्टि भी निर्जलीकरण के महत्वपूर्ण कारण रहे हैं।
विशेषज्ञ लगातार चेता रहे हैं कि गंगा और वरुणा के सूखने से भूमिगत जल के रिसाव की गति नदियों की ओर बढती जा रही है जो बडे खतरे का संकेत है। सूखते कुएं, जवाब देते हैंडपंप, रिबोर की जरूरत महसूस कर रहे ट्यूबवेल इस बात के संकेत हैं कि जिस गति से पानी नीचे जा रहा है उसी अनुपात में जमीन के नीचे मृदाक्षरण भी बढता जा रहा है। भूजल विभाग की रिपोर्ट कहती है कि पिछले वर्ष बरसात के पूर्व जहां भूमिगत जलस्तर औसतन 21 से 24 मीटर के बीच था वहीं इस वर्ष औसतन 22 से 25.20 के बीच आंका गया।
क्या है इको सिस्टम-जैविक-अजैविक पदार्थो के बीच संतुलन बनाना ही पारिस्थितिकी तंत्र है। नदी में पानी की मात्रा, उसका बहाव, जीव-जंतु और बेसिन क्षेत्र की वनस्पतियां मिल कर एक वातावरण तैयार करते हैं जिसे हम नदी का इकोसिस्टम अथवा पारिस्थितिकी तंत्र कहते हैं। साइंस जैविक पदार्थ की श्रेणी में वनस्पति और जीव-जंतु को रखता है तो अजैविक में पानी, मिट्टी और हवा को।

‘वरुणा’ का अस्तित्व खतरे में



वाराणसी। पर्यावरणीय संकट के दौर से गुजर रहे देश में पूर्वांचल की एक नदी घाटी संस्कृति का आने वाले दिनों में नामोनिशान मिट सकता है। जी हां, गंगा पर शोर मचाने वालोंको यह जानकर झटका लगेगा कि वाराणसी की पहचान के तौर पर विख्यात वरुणा न सिर्फ डायलसिस पर पड़ चुकी है, बल्कि किसी भी समय उसका अस्तित्व खत्म हो सकता है। कसबों, गांवों, शहरों के बेतहाशा प्रदूषण, तटीय अतिक्रमण और सरकारी उपेक्षा के मकडज़ाल में घिरी इस नदी को बचाना कितना कठिन होगा इसे उसके दफन होते किनारों को देख समझा जा सकता है। माना जा रहा है कि इसे पुनर्जीवित करने के ठोस प्रयास जल्द शुरू नहीं हुए तो भोले की नगरी के पौराणिक, सांस्कृति महत्व को चौपट होने से रोका नहीं जा सकेगा।
पूर्वांचल की 162 किमी लंबी नदी घाटी को खत्म करने में सबसे बड़ा हाथ बेहद कमजोर और अनियोजित सीवर प्रणाली का माना जाएगा। ट्रांस वरुणा से लगे इलाकों में किनारों को पाट कर बहुमंजिली इमारतें खड़ी करने वाले कालोनाइजर और उनके संरक्षणदाताओं को इसके लिए कटघरे में खड़ा किया जा सकता है। इलाहाबाद के मेल्हन से निकलकर जौनपुर होते हुए बढऩे वाली वरुणा भदोही में सर्वाधिक प्रदूषित हुई है। वहां कालीन उद्योग से निकलने वाले रासायनिक कचरे को नालों के जरिए नदी में बहाए जाने से ज्यादा दुर्गति हुई। उससे आगे सत्तनपुर से रामेश्वरम तीर्थ के बीच बस्तियों के नाले भी इसमें गिर रहे हैं। हालांकि वरुणा को सर्वाधिक झटका बनारस में कैंट के पास से लगना शुरू हो जाता है। वहां से आदि केशव घाट के पास सराय वरुणा मोहना तक छावनी क्षेत्र, पांडेयपुर और कचहरी इलाके के बड़े नालों के बहाव का वरुणा माध्यम बना दी गई है। छिछले नाले का रूप ले चुकी वरुणा में काला, बदबूदार अवजल इस कदर भरा है कि नदी के पेटे में तटीय बस्तियों के लोग झांकते तक नहीं। पशु-पक्षी भी प्यास बुझाने की हिम्मत नहीं जुटा पाते।
  • 162 किमी लंबी वरुणा नदी अब पहचान खोने की कगार पर
  • 150 मीटर चौड़ा किनारा सिकुड़कर कहीं 17 तो कहीं 30 मीटर तक आ गया
  • 05 से अधिक शहरों, कसबों के नालों के बहाव का माध्यम बनी नदी
दुर्दशा के कारण
  • शहरों, बस्तियों में अवजल निकास की ठोस योजना का अभाव होना
  • नदी के बाढ़ प्रभावित इलाकों में किनारों का बेतहाशा अतिक्रमण
  • तटवर्ती तालाबों, पोखरों और जोहड़ों का पाटा जाना
  • तटीय इलाके में कंक्रीट के विस्तार के चक्कर में जल संचय करने वाले पेड़ों की कटान
  • वरुणा बेसिन में बगीचों का खत्म होना

Monday, 11 June 2012

खेल का मैदान बनी जलविहीन वरुणा







वाराणसी। वरुणा के कारुणिक हालात पर्यावरण प्रेमियों को स्याह कर देंगे। त्रेता युग में जहां कभी भगवान राम ने पड़ाव डाला था, उस रामेश्वर तीर्थ से लगे इलाकों में पांच स्थानों पर वरुणा जलराशि विहीन होकर खेल का मैदान बन गई है। भूगर्भीय जलस्रोतों के दबकर नष्ट होने से कई मुसीबतें पैदा हो गई हैं। तटवर्ती बस्तियों के तालाब-पोखरे सूख गए हैं तो कुओं का पानी सड़न के चलते पीने लायक नहीं है। इसके चलते पेयजल संकट गहरा गया है। वाटर रिचार्जिगिं की दिशा में शीघ्र कदम नहीं उठाए गए तो पशु-पक्षी भी पानी के लिए तरस जाएंगे। 
रामेश्वर तीर्थ के पास ही वरुणा काशी में प्रवेश करती है। यहां कोरौत नाले के अलावा आधा दर्जन से अधिक बस्तियों का भी अवजल वरुणा में जहर घोलता रहा है। जगह-जगह सूख चुके नदी के पेटे देख कोई भी सिहर जाएगा। यह गुनाह किसने किया? आखिर किन वजहों से जीवनदायिनी नदी अस्तित्व खोने के कगार पर चली गई? ऐसे तमाम सवाल अनसुलझे हुए हैं। न जनता यह गुनाह कबूलने को तैयार है और प्रशासन। रसूलपुर, औसानपुर, तेंदुई, रामेश्वर, लच्छीपुर घाटों पर पानी न होने से बच्चे गिल्ली-डंडा खेलने लगे हैं। वहीं तटीय इलाकों में जलस्रोत मिटने से जग्गापट्टी, पांडेयपुर, परसीपुर, खंडा, इंदरपुर, अनौरा एवं चक्का जैसी डेढ़ सौ से अधिक बस्तियों में पेयजल संकट गहरा गया है। कुएं प्रदूषित हो गए हैं। हैंडपंपों का पानी खिसक कर नीचे चला गया है। खास बात यह है कि इन बस्तियों के लोग सिंचाई, पेयजल, पशुपालन से लेकर कर्मकांड तक के लिए वरुणा पर ही निर्भर हैं। नदी को पुनर्जीवित करने के उपाय न हुए तो वरुणा कहानी-किस्सा का हिस्सा बन जाएगी।


*05 स्थानों पर रामेश्वर तीर्थ के बाद सूख गई नदी 
*150 से अधिक तटीय बस्तियों में पानी को लेकर चिंता बढ़ी
*20 से ज्यादा तालाब-पोखरे सूखने से बढ़ गई है मुसीबत 

मंत्री का भरोसा टूटने से जनता के तेवर तल्ख 
रामेश्वर। वरुणा की दुर्दशा पर जहां इलाके की जनता चिंतित है, वहीं लोक निर्माण एवं सिंचाई राज्य मंत्री सुरेंद्र पटेल की पहल बेकार जाने से आमजन के तेवर तल्ख हो गए हैं। नागरिकों की गुहार पर मंत्री ने फोन पर भरोसा दिलाया था कि लिफ्ट कैनाल से वरुणा में पानी भरवा दिया जाएगा लेकिन अफसरों को या तो जानकारी नहीं मिली या फिर उन्होंने जानबूझकर नदी की रिचार्जिगिं पर अमल नहीं किया। 

दिल का चैन खा रही वरुणा






वाराणसी। वरुणा अब तटीय शहर में लोगों की रात की नींद और दिन का चैन खाने लगी है। घरों में दम घुटने, शुद्ध हवा न मिलने से तिल-तिल कर जीने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा है। वजह है बढ़ती आबादी के दबाव से नदी के आकार में चौड़ा होकर बहता बघवा नाला। अकेले इस नाले से प्रतिदिन 10 लाख लीटर से अधिक बहने वाली सीवर की धारा तटीय जन जीवन के लिए खतरे की घंटी साबित हो रही है। अवजल की इस बड़ी मात्रा को रोकने, शोधित करने के शीघ्र उपाय नहीं किए गए तो बड़ा संकट खड़ा होने से इनकार नहीं किया जा सकता।
किसी जमाने में बरसाती पानी के निकास के तौर पर वरुणा से मिलने वाला बघवा नाला शहर के विस्तार के साथ ही अवजल निकास का जरिया बना गया। अब तो 40 से अधिक मोहल्लों का घरेलू डिस्चार्ज सीधे बघवा नाले से बहाया जा रहा है। नगर निगम के छह बड़े वार्डों में रमरेपुर, लालपुर, पांडेयपुर, खजुरी, नई बस्ती, हुकुलगंज की करीब डेढ़ लाख की आबादी का अवजल बहाने के लिए इस नाले के अलावा दूसरा माध्यम नहीं है। अगर प्रति व्यक्ति 50 लीटर पानी की खपत को आधार बनाया जाए तो सिर्फ साढ़े सात लाख लीटर घरेलू डिस्चार्ज बघवा नाला से होता है। साड़ी कारखानों, पीतल बर्तन उद्योग के अलावा चर्म शोधन केंद्रों से ढाई लाख लीटर भी रासायनिक अवजल की मात्रा का डिस्चार्ज माना जाए तो कुल 10 लाख लीटर अवजल प्रतिदिन वरुणा में मिल रहा है। इस तरह देखा जाए तो नगर निगम, जल संस्थान, गंगा प्रदूषण नियंत्रण इकाई ही नहीं वरुणा को बेजान बनाने में पार इलाके के घर-घर के लोग जिम्मेदार माने जाएंगे। जल निकास पर प्रतिवर्ष करोड़ों खर्च के बाद भी शहर के उत्तरी विस्तार में सीवरेज सिस्टम का अभाव सक्षम एजेंसियों के लिए गंभीर जांच का विषय बन सकता है। हुकुलगंज में बघवा नाले के पास रहने वाले राहुल, मुकेश सोनकर, मोहनचंद्र, प्रेम कुमार हालात बताते हुए रो पड़ते हैं। उनकी मानें तो इस उमस में हवा चलने पर खिड़कियां बंद न की जाएं तो दुर्गंध से दम घुटने लगता है। सिर्फ 15 साल पहले तक जहां इस इलाके के लोग खाना बनाने, प्यास बुझाने तक के लिए वरुणा पर ही निर्भर थे. वहीं अब उसमें कपड़े तक नहीं धोना चाहते।

गंगा की छोटी वहन मानी जाती है वरुणा

स्पर्श के भी योग्य नहीं रहा सहायक नदी का पानी 


*10 लाख लीटर अवजल रोज बघवा नाला से जा रहा है वरुणा में
*1.5 लाख की आबादी के घरेलू डिस्चार्ज का सीधा माध्यम है यह नाला
*50 से अधिक साड़ी कारखानों का रासायनिक कचरा भी गिरता है
*08 कारखाने पीतल के बर्तन, मूर्तियां और सिंहासन बनाने के हैं
*03 चर्म शोधन केंद्र भी चल रहे हैं गुपचुप तरीके से