Sunday, 3 July 2016

   वो शायद सन२००३ का रक्षा बंधन था, जब मै अपनी पौने चार साल की बिटिया को लेकरअपने चाचा जी के मकान पर मानस नगर दुर्गाकुण्ड जा रहा था.बाईक पर उसे नींद ना आये  इसलिये उससे बाते भी करता जा रहा था, वह बचपन से बेहद जिग्यासु व बातूनी होने के साथ किसी भी विषय के बारे मे ढेर सारे सवाल पूछना उसकी आदत रही है, मैने उसे वरूणा पुल से गुजरते हुये वाराणसी के नामकरण के बारे मे बताया तो उसने  वाराणसी नाम के दूसरे भाग अस्सी नदी के बारे मे पूछा, इसलिये मै उसे दिखाने के गरजसे दुर्गाकुण्ड से अपनी बाईक अस्सी लंका वाले रास्ते पर पुराने पुल की ओर बढ़ा दिया, तब रविन्द्रपुरी पुल नही बना था. वहॉ जा के मैने बेटी को बीएचयू मे पढ़ने के दौरान रोज आने जाने का रास्ता व अस्सी नदी दिखाया, अस्सी  नदी उसी समय धीरे धीरे नाले से नाली का रूप लेने लगी थी, बिटिया को पुल के नीचे दूर दूर तक नदी के बजाय नाली दिखने पर जिग्यासा होना स्वाभाविक था, उसने पलटते ही मुझसे सवाल किया कि लेकिन यहॉ नदी कहॉ है? उसके सवाल के जबाब मे जब मैने कनु के बाल मन को बताया कि अगल बगल रहने वालो ने नदी पाट कर उसे समाप्त कर दिया, आदतन दूसरा सवाल हाजिर था कि जब नदी पाटी जा रही थी तो आप लोगो ने उसे रोका क्यों नही ? बात उस समय आयी गयी हो गई, कार्यक्रम से लौटते समय वरूणा पुल पर कनु का एक दूसरा सवाल कि" वरूणा को कब पाटा जायेगा?'' बेहद मासूमियत से पूछे गये इन दोनो सवालो का जबाब मेरे पास वाकई नही था. लेकिन इन दोनो बेहद मासूम सवालो ने मुझे झकझोर डाला. कई कई राते ये दोनो सवाल मुझे परेशान करते रहे. बहुत सोच विचार कर मैने अपने दिल की बात और विचारो को अपने मित्र सूर्यभान सिंह के साथ बॉटा. फिर हम दोनो मित्रो की शाामे वहीं वरूणाकिनारे शास्त्री घाट पर बितने लगी. भारत के पूर्व प्रधानमंत्री बनारस के सपूत  स्व० लाल  बहादुर शास्त्री के नाम पर नया नया शास्त्री घाट बना था, उक्त  घाट को बनवाने मे तत्कालीन मंत्री व क्षेत्रीय विधायक वीरेन्द्र सिंह  जी की महत्वपूर्ण भूमिका थी.वीरेन्द्र सिंह के प्रयासो से ही घाट पर वरूणा महोत्सव की शुरूआत हुई थी . जिसके दो आयोजन हो चुके थे. हम दोनो  लोग नये विचार करते और उनके कार्यान्यवन के संभावनाओ पर सोचते . सबसे पहले वरूणा को जानने व समझने की बात उठी, फिर हम लोगो ने बाईक उठाया और वरूणा की भौगोलिक रचना समझने के लिये हम लोग फूलपुर इलाहाबाद वरूणा ताल तक गये.वहॉ फैले विशाल पर लगभग तीन चौधाई से अधिक सूख चुका वरूणा ताल काे देख कर लगा कि किसी तरह हमने प्राकृतिक अविरल व संचरण व्यवस्था मे हस्तक्षेप कर अपनी खुद की समस्यायो बढ़ा रखा है। बाईक से वरूणा के संग यात्रा के दौरान हमने यह महसूस किया कि इस तरह वरूणा किनारे सड़को पर चलने से हम अपने उद्देश्य के प्रतिष्ठित सही न्याय नही कर पायेगें लिहाजा यह तय हुआकि वरूणा तट पर पदयात्रा कर के ज्यादा से ज्यादा जानकारी इकट्ठी करनी पड़ेगी। मित्र सूर्यभान जी  की लंबी टॉगो ने यह काम बखूबी से किया । हम लोगो के पास सूर्यभान जी के दो बार के पदयात्रा के बाद वरूणा के संबध मे काफी व्यवहारिक जानकारियॉ थी। वरूणा की पीड़ा, उसके तटवासियो की पीड़ा, समस्या व उसकी संभावित समाधान की एक सूची थी।  पर  समस्या यह था कि इन व्यवहारिक समाघान को किसी तरह धरातल पर लाया जाय। क्योकि हम लोगो के पास न तो सामर्थ्य था न ही अधिकार ।
कुछ और मित्रों को हम लोगो ने अपने सरकारो मे शामिल किया तो उनके इनुभव, संबंधो व विचारो का लाभ मिलने के साथ ही हमारे सामर्थ्य का विस्तार हुआ।तय हुआ कि वरूणा के भौगोलिक अध्ययन के साथ वरूणा का सांस्कृतिकर्मी पौराणिक व ऐतहासिक महत्व व वानस्पतिक प्रभाव के साथ पारिस्थितिकी अध्ययन भी किया जाये।
अगली रणनीति इस संबंध मे बनने लगी ।

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