Saturday, 23 October 2010

मां गंगा

मां गंगा
मां गंगे मनु की पुत्री,
हिमालय से बंग खाड़ी तक बहती।
शिव के शीश पर चढ़ कर भी
तू गर्वित नहीं होती।
भागीरथ ने कड़ी तपस्या कर
उतारा तुझे पृथ्वी पर।
हे! पतित पावनी तूने
जाने कितने पापों को धो डाला।
अपना अमृत जल पिला,
असंख्यकों को जीवन दान दिया।
तेरे पवित्र जल में जाने
कितने नर नारियों ने नहाया।
पशु पक्षियों ने ही नहीं,
अनगिनित जलजीवों ने जीवन पाया।

हज़ारों सालों से इस देश का इतिहास तूने देखा
राजा महाराजाओं की हर हार, जीत को मापा।
जाने कितनों को अपनी गोद में समाया,
उनके दुःख, दर्द, आशा, निराशाओं को समझा।
किंतु, क्या किसी ने तेरी सुध ली?
तेरी पीड़ा को तौला?
उल्टे तुझमे कूड़ा कर्कट फेंका।
मृत नर ,पशु, पक्षी ही नहीं
सब द्रव्य, रसायन घोला।
इतना प्रदूषित कर भी शांति मिली,
गंदगी भरी नालियों को तुझमें मिलाया।
गंगा सफाई अभियान के नाम पर
करोड़ों रुपया खाया।
तेरा उज्जवल गात बदल गया श्यामल में
फिर भी तू अबाध गति से बहती जा रही।
चुपचाप दर्द सब सह रही।

दशकों पूर्व मालवीय जी ने
दूर दर्शिता दिखायी थी।
ब्रिटिश सरकार से तुझ पर
बांध बनवाने की कसम दिलाई थी।
पर हाय! तेरे अपनों ने ही,
फरक्का टिहरी बांध बना डाला।
कल, कल बह्ती सरिता को बंदनी बना डाला।
अब तो यह नज़ारा है
हरिद्वार पर पानी कमर तक,
वाराणसी में द्वीप दिखाया।
तेरी सहायक अस्सी तो लुप्त हुई
वरुणा भी है मिटने को तैयार।
एक दिन ऐसा भी आएगा,
तू भी, मां सरस्वती की तरह
लुप्त हो जाएगी।
फिर तेरे तटवासियों का क्या होगा?
कौन देगा जीवन दान?
कौन करेगा जन मानस का कल्याण?
कौन करेगा जन मानस का कल्याण?
हे! मां तुझे प्रणाम।
मां तुझे प्रणाम।

--
पी. सुधा राव

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