Monday, 9 July 2012

वाराणसी। निश्चित रूप से वरुणा व असि नदी को शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती सरीखे किसी ऐसे जीवट व्यक्तित्व वाले संत का ही इंतजार है, जो उसके वैभवशाली अतीत को वापस ला देदिनों असि तो लुप्त प्राय है जबकि वरुणा कई स्थानों पर नाला बन गई है तो कई स्थानों पर इसमें पानी ही नहीं है। सोमवार को वरुणा व असि नदी की रक्षा के लिए शंकराचार्य की उठी आवाज के सकारात्मक परिणाम आए हैं। सं। इन तों -महात्माओं संग काशीवासियों ने दोनों नदियों के अस्तित्व की रक्षा का संकल्प लिया है।
संत, गंगा संग वरुणा व असि नदी को बनारस के लिए बेशकीमती कुदरती तोहफा मानते हैं। संतों का कहना है, जिन दिनों गंगा का पानी तेजी से बढ़ता है तो वरुणा ही उसके तेज को संभालती रही है। इससे शहर को बाढ़ से ज्यादा क्षति नहीं होने पाती। जिस दिन असि नदी की तरह वरुणा भी पाट कर नाला बना दी गई तो शहर को बचाना भी मुश्किल हो जाएगा। हालांकि इन दिनों काशी की प्राचीन दोनों नदियों के आसपास मकान बन गए हैं।

इस दिशा में न तो सरकारी तंत्र में कोई दृढ़ता दिख रही और न ही स्वयंसेवी संगठनों में ही। नतीजा यह है कि वरुणा नदी का जलग्रहण क्षेत्र जहां घटता जा रहा है वहीं गंदे पानी को डालने का क्त्रम भी तेज है। काशी के प्रबुद्ध वर्ग का कहना है कि यदि वरुणा को गहरा कर वर्ष भर जल संग्रह के लिए कुछ स्थानों पर छोटे बंधे बना दिए जाएं तो यहां के जलस्तर में सुधार हो सकता है। गंगा के साथ ही साथ वरुणा की भी योजना बननी चाहिए।
शंकराचार्य के आहृवान के बाद संत, जन-जन में सभी नदियों व तालाबों के प्रति संरक्षण का भाव भरने के लिए संकल्पित हैं। गंगा तपस्या अभियान के सार्वभौम राष्ट्रीय संयोजक स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद सरस्वती का मानना है कि गंगा की तरह ही वरुणा भी किसी दृढ़ निश्चयी व्यक्तित्व का इंतजार कर रही है, जो उसे उबारे। कहा कि पुराणों में काशी क्षेत्र के उत्तर में वरुणा, पूर्व में गंगा और दक्षिण में असि नदी का उल्लेख मिलता है। प्राकृतिक संपदाओं से भरपूर ये तीनों नदियां प्राकृतिक रूप से काशी नगरी को स्थिरता प्रदान करती रही हैं। शायद इसी लिए काशी को अविनाशी नगरी के रूप में मान्यता मिली और यह भारतीय धर्म दर्शन, संस्कृति, साहित्य व कला की संरक्षक नगरी के रूप में विकसित हुई।
बेशक, इन दिनों गंगा के दक्षिणी मोड़ पर मिलने वाली असि नदी को अब नदी मानने में कठिनाई हो रही है। वजह, इसका वजूद आज अस्सी नाला के रूप में ही शेष रह गया है। गंगा-वरुणा के सतह से काफी ऊचाई पर बहने वाली इस नदी का गंगा में प्राकृतिक संगमीय कोण 45 से 60 डिग्री हुआ करता था। वर्तमान में अप्राकृतिक रूप से इसे स्थानांतरित कर दक्षिणी छोर पर ही तकरीबन 90 डिग्री कोण से गंगा में मिलाया गया है और इसमें नदी के एक भी चारित्रिक गुण नहीं है जबकि प्राचीन पुराण काल में इसको शुष्का नदी के नाम से बहुधा पुकारा गया है। यहां तक कि इससे संबद्ध शिवलिंग का नाम भी शुष्केश्वर कहा गया है।
कुछ समय पूर्व प्रकाशित गंगा रिसर्च सेंटर की रिपोर्ट के मुताबिक वरुणा-असि नदी का अपना मौलिक जल, गुण, मात्रा और आवेग हुआ करता था। जो नगर के भूमिगत जल स्तर को संतुलित करने के साथ ही गंगा के कटान क्षेत्र में बंधा का काम करता था।
गंगा के लिए वरुणा डाउन स्टीम (राजघाट क्षेत्र) में और असि अप स्टीम (गंगा के नगर प्रवेश क्षेत्र) में दो पहरेदारों की तरह सीमा रक्षा का काम करती रही हैं। ये नदियां अपने द्वारा लाई गई मिट्टी को गंगा के कटाव वाले क्षेत्रों में भर कर उसे स्थिरता प्रदान करती हैं। इसके अलावा गर्मी के दिनों में गंगा का जल स्तर गिरने पर नगर के भूमिगत जल रिसाव को अपनी ओर मोड़ कर मृदक्षरण रोकने का भी काम करती रही है।
संतों का कहना है कि काशी में गंगा के आदि कालीन अर्धचंद्राकार स्वरूप की स्थिरता का कारण ये तीन नदियां हैं तो ये ही त्रिशूल भी हैं जो काशी को अविनाशी स्वरूप प्रदान करती हैं। इन नदियों का जल, गुण, मात्रा और आवेग का आपसी तालमेल जिस अनुपात में बिगड़ेगा नगर की स्थिरता व भूमिगत जल उपलब्धता तथा गुण का संतुलन भी उसी अनुपात में बिगड़ता जाएगा। वरुणा व असि के लिए शंकराचार्य की उठी आवाज रंग लाएगी, ऐसा विश्वास है।

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