Saturday, 11 June 2011
गांधी के पथ पर संत
Source: दि संडे पोस्टशिवानंद महाराजसाधारण सा धोती-कुर्ता और खड़ाऊं पहने दुबली-पतली काया वाले एक संत बाकी संतों से कुछ अलग हैं। यह न बड़े पण्डाल में बैठ प्रवचन देते हैं, न ही टेलीविजन चैनलों में, पर गांधी को भूल चुके उनके अनुयायियों के लिए ये एक सीख की तरह हैं। इनके गाँधीवादी तरीके से जारी आंदोलनों ने कई बार शासन को अपनी नीतियाँ बदलने को मजबूर किया। गंगा को खनन माफियाओं से बचाने की इनकी लड़ाई लगातार जारी है। ये संत हैं हरिद्वार के कनखल में गंगा किनारे बने मातृसदन के कुटियानुमा आश्रम में रहने वाले शिवानंद महाराज स्टोन क्रेशर माफिया और शासन-प्रशासन की कैद में खोखली होती गंगा को मुक्त कराने का एक दशक से भी लंबा इनका संघर्ष किसी से छुपा नहीं है। शिवानंद महाराज की गंगा को प्रदूषण मुक्त कराने की प्रतिबद्धता ऐसे दौर में भी लगातार बनी हुई है जब गंगा के नाम पर खूब राजनीति हो रही हैराष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने सत्याग्रह की शुरूआत दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद के खिलाफ सबसे पहले की थी। इस आंदोलन की बड़ी विशेषता अनशन को हथियार बना सत्ता तक अपनी बात पहुंचाना और मनवाना था। गांधी जी ने बाद में राष्ट्रीय स्वाधीनता संग्राम में इसको बार-बार अंग्रेजी सत्ता के खिलाफ अपना सबसे ताकतवर हथियार बना इस्तेमाल किया। वे कुल 17 बार अनशन पर बैठे थे। गांधी अनशन को सबसे श्रेष्ठ प्रकार की पूजा कहते थे। हरिद्वार मातृसदन के महात्मा शिवानंद महाराज गांधी जी से प्रेरणा ले अनशन को खनन माफियाओं और संवेदनहीन सरकार के विरुद्ध हथियार बना एक अनूठी लड़ाई लड़ रहे हैं। हिंसक माफियाओं के खिलाफ उन्हें इस अहिंसक युद्ध में कई बार जान की बाजी तक लगानी पड़ी है लेकिन वे पीछे हटने को तैयार नहीं हैं।बिहार के दरभंगा जिले में सझुआर गांव के मूल निवासी शिवानंद महाराज के पिता बचपन में ही गुजर गए थे। इनका पालन पोषण मां ने किया। आठवीं कक्षा से ही इनका झुकाव अध्यात्म की ओर हो गया। बिहार विश्वविद्यालय से कैमिस्ट्री में बीएससी करने के बाद कोलकाता के जादवपुर विश्वविद्यालय से एमएससी की डिग्री ली। पढ़ाई पूरी कर केशोराम इंटर कॉलेज कोलकाता में प्रवक्ता बन गए। अपनी पढ़ाई का खर्च उठाने के लिए इन्हें छोटे मोटे काम भी करने पड़े।अध्यात्म के प्रति झुकाव ने इन्हें तीर्थ यात्रा करने के लिए प्रेरित किया। कॉलेज की छुट्टियों में शिवानंद महाराज उत्तराखण्ड की घाटियों में आने लगे। यह 1970 का दशक था। सत्तर के दशक से ही इनकी उत्तराखण्ड की नियमित यात्रा शुरू हुई। शिवानंद महाराज कहते हैं'उत्तराखण्ड की घाटियों और जंगलों में आकर सुकून मिलता था। यहां की प्रकृति बार-बार आकर्षित करती थी। छुट्टियों में यहां ध्यान करता था।' तभी से संन्यास को इन्होंने आधार बनाया। जून 1994 में कॉलेज की छुट्टियों के समय शिवानंद महाराज बदरीनाथ आए थे। बदरीनाथ में ही इन्होंने घर त्यागने का फैसला लिया। 1995 में घर बार छोड़कर पूरी तरह संन्यासी जीवन अपना लिया। भिक्षा मांग कर अपना जीवन चलाने लगे। शुरूआती दिनों में ब्रज को इन्होंने अपना स्थान बनाया लेकिन 1996 में ये हरिद्वार आ गए। हरिद्वार के कनखल में एक बगीचे में रहने लगे। उस वक्त इनके आठ-दस अनुयायी भी थे जो इनके साथ रहते थे। हरिद्वार में आकर इन्होंने भिक्षा फंड बनाया और इसी में मिलने वाले दान से ये और इनके शिष्य जीवन यापन करने लगे।हरिद्वार आने वाले विदेशी श्रद्धालुओं की मदद से मातृसदन को स्थापित किया गया। डरबन विश्वविद्यालय में फाइन आर्ट्स की प्रोफेसर ललिता जवाहरी लाल ने मातृसदन की स्थापना में अहम भूमिका निभाई। ललिता हरिद्वार ध्यान के लिए आती थीं लेकिन सुबह चार बजे से ही हरिद्वार में बजने वाले लाउडस्पीकरों के चलते वे ध्यान नहीं कर पाती थीं। इस दौरान वे शिवानंद महाराज के संपर्क में आईं और उनकी शिष्य बन गईं। कनखल में गंगा के किनारे करीब पांच एकड़ जमीन खरीदकर उन्होंने मातृसदन आश्रम बनाया। गंगा किनारे तप कर रहे शिवानंद महाराज ने 1997 से गंगा को बचाने की मुहिम शुरू की। पहले उत्तर प्रदेश फिर उत्तराखण्ड शासन में लंबी लड़ाई के बाद पिछले साल इन्हें आंशिक सफलता मिली है।महाकुंभ 2010 से पहले खनन माफियाओं के दबाव में प्रदेश सरकार ने कुंभ मेला क्षेत्र को गंगा तट से सिमटाकर अन्य क्षेत्रों में फैला दिया। इस फैलाव में पौड़ी एवं देहरादून जिले के कई इलाकों को शामिल किया गया था। लेकिन हरिद्वार के मुख्य गंगा तट की तरफ इसे कम कर दिया गया। कुंभ मेला 1998 और वर्तमान कुंभ मेला 2010 के नक्शे से यह स्पष्ट होता है। इसकी मुख्य वजह इलाहाबाद उच्च न्यायालय का वह फैसला माना जाता है जिसमें कुंभ मेला क्षेत्र में खनन पर रोक लगाई गई थी। गंगा किनारे हो रहे खनन वाले क्षेत्र को कुंभ क्षेत्र से निकालकर सरकार ने अपनी मंशा जाहिर कर दी थी कि खनन में उसकी सहमति और भागीदारी है। इस साजिश को नाकाम करने के लिए मातृसदन के महात्मा सौ से अधिक दिनों तक आमरण अनशन पर बैठे। राज्य सरकार ने इनकी बात सुनने के बजाय इन्हें प्रताड़ित करने में अपनी ताकत झोंक दी। दिल्ली से एक केंद्रीय मंत्री तक मातृसदन के महात्माओं से मिलने पहुंच गए लेकिन राज्य सरकार की नींद नहीं खुली। कुंभ के दौरान हरिद्वार में बढ़ने वाली श्रद्धालुओं की भीड़ तथा राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मीडिया की शहर में उपस्थिति से सरकार पर भारी दबाव था। आखिरकार सरकार ने 18 मार्च 2010 को आदेश (जीओ) जारी कर कुंभ क्षेत्र को गंगा तट की ओर बढ़ाया। एक सप्ताह बाद 26 मार्च 2010 को एक और सरकारी आदेश (जीओ) में कुंभ क्षेत्र में खनन पर रोक लगा दी गई। फिर भी गंगा में चल रहे खनन पर विराम नहीं लग सका। खनन कर रहा हिमालयन स्टोन क्रेशर कोर्ट की शरण में पहुंच गया और वहां से स्टे ले आया। मातृसदन के अनुसार बिना सरकार और दूसरे पक्ष को सुने न्यायालय ने खनन माफिया को स्टे दे दिया।गौरतलब है कि वर्ष 1998 में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने खनन माफियाओं से गंगा को बचाने के लिए कुंभ क्षेत्र में खनन एवं स्टोन क्रेशरों पर पूर्ण प्रतिबंध लगाने का आदेश दिया था। उस वक्त उच्च न्यायालय के आदेश का पालन करते हुए प्रशासन ने गंगा किनारे चल रहे सात स्टोन क्रेशरों में से छह को बंद करा दिया था। लेकिन प्रशासन यहां चल रहे हिमालयन स्टोन क्रेशर को पूर्णतः बंद कराने में नाकाम रहा। बताया जाता है कि हिमालयन स्टोन क्रेशर में भाजपा के एक मंत्री की हिस्सेदारी है। इसलिए जब भी प्रदेश में भाजपा की सरकार बनती है, यह स्टोन क्रेशर यहां चालू हो जाता है। हरिद्वार में कुंभ मेला शुरू होने के पहले से ही सरकार पर इस खनन माफिया का भारी दबाव था। यही वजह है कि सरकार ने इस बार कुंभ मेला 2010 के क्षेत्र को गंगा तट की तरफ कनखल तक सीमित कर दिया ताकि हाईकोर्ट के आदेश की अवहेलना पर शासन-प्रशासन अपना पल्ला झाड़ सके। वर्ष 1998 के कुंभ मेला क्षेत्र में जगजीतपुर, अजीतपुर, मिस्सरपुर एवं जियापोता शामिल था। हिमालयन स्टोन क्रेशर मिस्सरपुर और अजीतपुर घाट पर ही है। इसलिए इस बार मिस्सरपुर, अजीतपुर सहित जगजीतपुर और जियापोता को कुंभ मेला क्षेत्र से बाहर कर दिया गया। इस बात का पता चलते ही पिछले बारह साल से गंगा बचाने की लड़ाई लड़ रहे मातृसदन के महात्मा आमरण अनशन पर बैठ गए। 15 अक्टूबर 2009 से ये कुंभ क्षेत्र बढ़ाने की मांग के साथ अनशन पर बैठे। एक सौ से ज्यादा दिन बीत जाने के बाद भी राज्य सरकार का कोई प्रतिनिधि इनसे बात करने के लिए नहीं पहुंचा। इसी बीच केंद्रीय पर्यावरण एवं वन राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार) जयराम रमेश ने अपने हरिद्वार दौरे के दौरान मातृसदन पहुंचकर पूरे मामले की जानकारी ली और कार्रवाई करने के आदेश दिए थे। केंद्रीय मंत्री के आने के बाद भी राज्य सरकार का कोई नुमाइंदा तत्काल इनसे मिलने नहीं आया।उस वक्त शिवानंद महाराज ने कहा था कि ' कुंभ मेला क्षेत्र को गंगा तट से कम करने के पीछे का सरकारी मकसद साफ है। सरकार खनन को रोकना नहीं चाहती। हमारे अनशन पर रोक लगा दी जाती है और अनशन खत्म होते ही खनन फिर शुरू हो जाता है। इस दौरान रात-दिन खनन कर माफिया साल भर का स्टोन जमा कर लेते हैं। बाद में उसका व्यापार करते हैं।' सरकार के रवैये को देखते हुए मातृसदन के महात्माओं ने घोषणा की 'यदि सरकार खनन पर स्थायी रोक नहीं लगाती तो मेले में वे पूर्ण आहुति देंगे।' इसके बाद हरिद्वार के जिलाधिकारी ने मामले की गंभीरता को देखते हुए महात्माओं की मांग की संस्तुति कर सरकार के पास भेजा। 24 जनवरी 2010 को जिलाधिकारी हरिद्वार के भेजे गए पत्र में स्पष्ट लिखा था कि मातृसदन के महात्मा पूर्ण आहुति के लिए अमादा हैं। ये बिना स्थायी समाधान के मानने को तैयार नहीं हैं। जिलाधिकारी ने यह भी आशंका व्यक्त की थी कि हरिद्वार में चल रहे कुंभ मेले में देश-विदेश से संत महात्मा एकत्रित हो रहे हैं। शहर में राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय मीडिया भी उपस्थित है। इसलिए यदि इसका तत्काल समाधान नहीं किया गया तो मेले में अवांछनीय घटना हो सकती है। जो सरकार और प्रशासन के लिए कठिनाइयां उत्पन्न कर सकती है। जिलाधिकारी के इस पत्र के बाद ही सरकार ने 18 मार्च 2010 और 26 मार्च 2010 को जीओ जारी किया था।गौरतलब है कि 'दि संडे पोस्ट' ने 15 नवंबर 2009 के अंक में खनन माफिया पर विस्तृत रिपोर्ट प्रकाशित की थी। इसमें बताया गया था कि गंगा बचाने की मुहिम में जुटे मातृसदन के महात्माओं को प्रशासन ने प्रताड़ित करने के साथ कैसे उन पर कई झूठे मामले दर्ज किए। आमरण अनशन पर बैठे दो महात्माओं संत दयानंद तथा यजनानंद ब्रह्मचारी को गिरफ्तार कर जेल भी भेजा गया था। अनशन के दौरान यजनानंद ब्रह्मचारी ने कुछ भी खाने-पीने से मना कर दिया था। जबरदस्ती करने पर उन्होंने जिंदगी भर पानी तक नहीं पीने की धमकी दी थी। फिर भी पुलिस ने उन्हें त्रयोदशी व्रत के दिन जबरदस्ती नली से तरल पदार्थ दिया। जेल में उनकी तबीयत बिगड़ने पर पुलिस उन्हें आश्रम छोड़कर चली गयी। संत कई दिनों तक अस्पताल के आईसीयू में भर्ती रहे। वहीं आश्रम में शांतिपूर्ण ढंग से अनशन पर बैठे महात्मा शिवानंद पर भी प्रशासन का डंडा समय-समय पर चलता रहा।बाद में जेल भेजे गए महात्माओं पर लगाए गए सभी आरोप निराधार साबित हुए। आरोपों की जांच कर रही पुलिस जांच टीम इस पर अपनी फाइनल रिपोर्ट में सभी आरोप फर्जी बताए। इस रिपोर्ट के बाद पुलिस प्रशासन को मुंह की खानी पड़ी। महात्माओं को जेल भेजने के अलावा आश्रम की सुरक्षा में तैनात रहे सुरक्षाकर्मियों के शासकीय शुल्क के रूप में करीब 25 लाख रुपये वसूलने का दबाव बनाया गया। जबकि यह सुरक्षाकर्मी आश्रम को निःशुल्क प्रदान किए गए थे।शिवानंद महाराज की गंगा बचाने की मुहिम पिछले साल तब रंग लाई जब सौ से भी ज्यादा दिनों तक इनके आमरण अनशन के बाद उत्तराखण्ड सरकार ने गंगा किनारे स्टोन क्रेशर पर पाबंदी लगाने का आदेश जारी किया। यह आदेश 18 और 26 मार्च 2010 को जारी किया गया था। तब स्टोन क्रेशर मालिक कोर्ट जाकर इस आदेश पर स्टे प्राप्त कर लिया था। मातृसदन के संस्थापक शिवानंद महाराज ने न्यायाधीश बीएस वर्मा के समक्ष इस पर रोक के लिए याचिका दायर की थी। लेकिन कोर्ट ने बिना इनका पक्ष जाने पर्यावरण कानून का उल्लंघन होने के बावजूद इनकी याचिका को खारिज कर दिया। यह आश्चर्यचकित करने वाला फैसला था। न्यायाधीश बीएस वर्मा के इस फैसले से शिवानंद महाराज की लड़ाई को झटका लगा लेकिन वे पीछे नहीं हटे। इन्होंने पिछले साल एक बार फिर अनशन शुरू कर दिया जिसके बाद राज्य सरकार ने 10 दिसंबर 2010 को कुंभ क्षेत्र से खनन पर पूर्णतः रोक लगा दी। इस बार मातृसदन के महात्माओं की ओर से कोर्ट में कैबेट दाखिल किया गया था। इसके बाद उक्त मामले को चुनौती देने वाले किसी याचिका के दाखिल होने पर कैबेट देने वाले व्यक्ति को जानकारी दी जाती है तथा उन्हें अपना पक्ष रखने का मौका दिया जाता है। इस सरकारी आदेश के बाद हिमालयन स्टोन क्रेशर मालिक ने 27 दिसंबर को नैनीताल हाईकोर्ट के न्यायाधीश तरुण अग्रवाल के समक्ष याचिका दाखिल कर दी। इस मामले पर मातृसदन द्वारा कैबेट दर्ज कराए जाने के कारण कोर्ट को उन्हें अपना पक्ष रखने का मौका दिया जाना चाहिए था लेकिन ऐसा नहीं किया गया। हिमालयन स्टोन क्रेशर मालिक को याचिका दाखिल करने के दूसरे दिन ही स्टे दे दिया गया। नियमतः सरकारी आदेश पर स्टे लगाने की याचिका पर सरकार से जवाब मांगा जाता है और कैबेट दाखिल करने वाले को भी पक्ष रखने का मौका दिया जाता है।इस फैसले से आहत होकर मातृसदन के संस्थापक शिवानंद महाराज ने दो जनवरी से फिर अनशन पर बैठने का फैसला लिया था लेकिन कुछ विशेषज्ञों ने उन्हें सलाह दी कि अनशन के पहले हाईकोर्ट के डबल बेंच में अपील करनी चाहिए। 6 जनवरी को नैनीताल हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश बारेन घोष और न्यायाधीश वीके बिष्ट की बेंच में याचिका दाखिल की गयी। सुनवाई के दौरान मुख्य न्यायाधीश की बेंच ने रोक लगाने की बात कही थी लेकिन सुनवाई के बाद जब मातृसदन वालों को फैसले की कॉपी दी गई तो उसमें स्टे पर रोक नहीं लगायी गयी। मातृसदन के महात्माओं ने जब इस पर खोजबीन की तो आश्चर्यचकित करने वाले नतीजे सामने आए। शिवानंद महाराज कहते हैं 'हाईकोर्ट के रजिस्ट्रार एनडी तिवारी ने बेंच के आदेश को बदल दिया है। अब कोर्ट में भी भ्रष्टाचार सामने आने लगा है। जब पूरी शासन व्यवस्था को भ्रष्टाचार की दीमक खा रही है तो ऐसे में न्यायपालिका पर सबकी उम्मीदें टिकी रहती हैं। हमने देखा कि हमारे मामले में न्यायाधीश वर्मा और न्यायाधीश तरुण अग्रवाल ने कानून को नजरंदाज कर फैसला सुनाया। इन दोनों न्यायाधीशों के खिलाफ हमने शिकायत की है।'
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