गोमती नदी की कलकल धारा लोगों की आस्था और विश्वास का संगम थी। उसका साफ और नीला अंजुलियों में भर कर लोग सर-माथे से लगाते थे। लेकिन प्रदूषण ने गोमती के जल को काला कर डाला है। नदी के अतीत और वर्तमान पर निगाह डाल रहे हैं हरिकृष्ण यादव।दियरा में गोमती के दोनों किनारों को पुल ने मिला डाला था, यह देख कर खुशी हुई। साल में एक बार गोमती के पार जाना ही पड़ता है। पुल नहीं था तो नाव से गोमती पार करने के सिवा कोई चारा न था, लेकिन पुल के निर्माण से हुई खुशी नदी के तट पर पहुंचते ही काफूर भी हो गई। पहले जब भी जाना हुआ नाव पर चढ़ने से पहले साफ नीले जल से हाथ-पैर धोकर एक-दो घूंट पानी जरूर पीता था। पर इस बार पानी इतना गंदा था कि घूंट भरना तो दूर पांव तक धोने की इच्छा न हुई। वैसे तो हर साल जेठ के महीने में दशहरे के दिन लाखों श्रद्धालु पवित्र गोमती में स्नान करते हैं। इस बार दशहरे पर नाले में बदल गई गोमती में श्रद्धालु डुबकी लगाने की आस्था कैसे निभाएंगे।दियरा घाट पर पुल देख बचपन की योद ताजा हो गई। बड़े भाई का गौना था। भैया की ससुराल जाने के लिए ज्यादातर रिश्तेदार या तो साइकिल से गए या पैदल। अलबत्ता बच्चों और बुजुर्गों के लिए बैलगाड़ी का बंदोबस्त था। इससे पहले कभी कोई नदी नहीं देखी थी। इसलिए बैलगाड़ी हमें लेकर गोमती के किनारे पहुंची तो लगा कि यह कोई बड़ा तालाब है। सोच में पड़ गया कि बैलगाड़ी आगे कैसे जाएगी। थोड़ी देर में नाव घाट पर आई।बालगाड़ी के पहियों के सामांतर दो पटरे लगा कर बैलगाड़ी को नाव पर धक्का देकर चढ़ाया गया। जबकि बैलों को रस्सी के सहारे नदी पार कराया गया। वापसी में बैलगाड़ी पर बोझ बढ़ गया था। नदी के पास एक नाले में बैलगाड़ी रेत में फंस गई. इस पर मेरे बाबा झुंझला गए। बोले-कोई अंजुरी भर सोना भी देगा तो भी मैं इस पार अपने बच्चों के ब्याह नहीं करूंगा। यह बात अलग है कि झुझलाहट में किए गए उनके संकल्प के बावजूद कइयों का ब्याह नदी पार के गांवो में ही हुआ। बाबा होते तो गोमती पर पुल देखकर खुश होते।गोमती नदीपुल बनने से जहां इलाके लोगों को खासी राहत मिली है। जेठ के दशहरे के मौके पर धोपाप पहुंचने वाले श्रद्धालुओं को जोखिम से छुटकारा भी मिलेगा। जोखिम तो होता ही था क्योंकि जल्दी पहुंचने के चक्कर में श्रद्दालु नाव पर सवार होने से पहले उसकी क्षमता भी नहीं देखते थे। इस वजह से अक्सर नाव पलट जाती थी। कितने ही श्रद्धालुओं की हादसे में जान भी चली गई। इस इलाके में प्रचलित मान्यता है कि रावण का वध करने के बाद भगवान राम ने ब्राह्मण हत्या के पाप से मुक्ति पाने के लिए गोमती में डुबकी लगाई थी। और जिस जगह उन्होंने अपने पाप को धोया था वही कालांतर में धोपाप के नाम से पहचानी गई। धोपाप में गोता लगाने के बाद भगवान राम ने गोमती के तट पर दीया जला कर जहां पूजा की थी, वह दियरा के नाम से चर्चित हो गया। बाद में यह दियरा बाकायदा एक रियासत बन गई। किदवंती तो यह भी है कि दियरा के राजा ने धोपाप में भव्य मंदिर बनाने की शुरुआत की थी। पर कामयाबी नहीं मिली। उसके बाद उन्होंने दियरा में जहां भगवान राम ने पूजा अर्चना की थी, गोमती किनारे वहीं विशाल मंदिर बनवाया। साथ में पांच मंजिला धर्मशाला भी। जिसकी पहली मंजिल तो नदी में ही समाई है। बताते हैं कि नदी के बीच में लगभग सौ मीटर चौड़ी सीढ़ियां हैं। मंदिर के पिछवाड़े फूलों का बगीचा है। बगीचे के बीचों-बीच एक कुआं है। मंदिर इतना सुंदर है कि उसे चाहे कितनी भी देर तक देखते रहें, आंखों थकती नहीं हैं। मंदिर के छज्जे पर लगी विभिन्न मुद्राओं वाली पत्थर की मानव मूर्तियां भी कम आकर्षक नहीं हैं। इन मुद्राओं में नृत्य करती स्त्रियां और ढोल-मजीरे सहित कई वाद्ययंत्र बजाते कलाकार हैं।मंदिर के पश्चिम में करीब एक किलोमीटर के फासले पर राजा का प्राचीन महल है। दरवाजा इतना विशालकाय है कि सजे-धजे हाथियों के इससे गुजरने की कहानी पर कतई अविश्वास नहीं होता। राजमहल के पिछवाड़े किस्म-किस्म के फलदार पेड़ों का विशाल बगीचा था तो दक्षिण में मीलों में फैला आंवे और अमरूद का बगीचा। दरवाजा तो अब भी बचा है। पर लंबे-चौड़े क्षेत्र में बना राजमहल वक्त के साथ खंडहर में तब्दील हो गया है। रख-रखाव की कमी ने हरे-भरे बाग-बगीचे को भी वीरान बना डाला है। दरवाजा सलामत रहने की भी वजह है। दरअसल उसके दोनों किनारों पर कई कमरे बने हैं। जिनमें एक इंटर कालेज चलता है। अपनी भी कुछ पढ़ाई इसी स्कूल में हुई। किशोरावस्था के वे तीन साल खासे मस्ती भरे थे। इसीलिए जब भी इस तरफ से दियरा घाट की तरफ जाता हूं, यहां की तमाम पुरानी यादें ताजा हो जाती हैं।नदी के तट पर स्थित धर्मशाला में राजा ने जूनियर हाई स्कूल चलाने की अनुमती दी थी। रियासतें खत्म होने लगी तो राजा ने अपनी धर्मशाला से इस स्कूल को बाहर करना चाहा। पर गणित के एक अध्यापक अदालत चले गए। अदालत ने राजा के खिलाफ फैसला सुनाया। लिहाजा धर्मशाला में स्कूल का वजूद बना रहा। पढ़ाई के दौरान ही गोमती को कई रूपों में देखा। गर्मी और सर्दी में शांत भाव से बहने वाली गोमती बरसात के मौसम में विकराल रूप धर लेती है। दियरा में चंद्राकार बहने वाली गोमती में जब भी बाढ़ आती, वह कई धाराओं में बहने लगती। तट के गांवों और खेत-खलिहानों को समेटती हुई जब उफान पर होती तो उसे देख कर डर लगता था। स्कूल में भी पानी भर जाता और पढ़ने वालों की छुट्टी हो जाती थी। हालांकि इस तरह छुट्टी मिलना बचपन में बड़ा सुखद लगता था। पानी उतरने पर जब हम लोग स्कूल आते तो पाते के सबसे नीचे वाली मंजिल बालू से अटी पड़ी है। उसकी सफाई में महीनों लग जाते। बाढ़ के बाद पानी उतरता तो उल्टी दिशा में जाते सूंस दिखाई देते. इस विशाल जल जंतु को पंद्रह-बीस मिनट के अंतराल पर पानी में उछल-कूद करते देखना रोमांच पैदा करता था। गर्मियों के दिनों में दोपहर बाद स्कूल की छुट्टी होने पर सीढ़ियों पर बस्ता रख, कपड़े उतार कर नदी में छलांग लगाते। हम ऐसा घंटों करते। हम तैर कर नदी के दूसरे छोर पर निकलते। किनारे पर खड़े पेड़ों से तोड़ कर जंगली जलेबी का मजा लेते। फिर रेत से दांत साफ करते। अब तो चाह कर भी नहीं लौट-सकते बचपन के उस दौर में। धोपाप की पौराणिक महत्ता के कारण जहां हर साल गंगा सागर जाने वाले तीर्थयात्री अयोध्या में भरत कुंड पर पिंडदान करने के बाद यहां डुबकी जरूर लगाते हैं, वहीं जेठ के दशहरे पर दूर-दराज से हजारों की संख्या में श्रद्धालु पहुंचते हैं। गोमती गंगा से भी पुरानी नदी मानी जाती है। मान्यता है कि मनु-सतरूपा ने इसी नदी के किनारे यज्ञ किया था और इसी के तट पर नैमिषारण्य में तैंतीस करोड़ देवी-देवताओं ने तपस्या की थी।
सरकार भी मानती है कि गोमती में प्रदूषण का स्तर बढ़ा है। आईटीआरसी के शोधपत्र के मुताबिक चीनी मिलों और शराब के कारखानों के कचरे के कारण यह नदी प्रदूषित हो चुकी है। गोमती में जो कुछ पहुंचता है वह पानी नहीं बल्कि औद्योगिक कचरा होता है।गोमती पीलीभीत जिले के माधो टांडा के पास एक झील से निकल कर बनारस के पास गंगा में मिलती है। लखनऊ में आमतौर पर गोमती साफ रहती है। सरकार भी मानती है कि गोमती में प्रदूषण का स्तर बढ़ा है। आईटीआरसी के शोधपत्र के मुताबिक चीनी मिलों और शराब के कारखानों के कचरे के कारण यह नदी प्रदूषित हो चुकी है। गोमती में जो कुछ पहुंचता है वह पानी नहीं बल्कि औद्योगिक कचरा होता है। जानकार बताते हैं कि गोमती की दुर्दशा के लिए चीनी मिलें ज्यादा जिम्मेदार हैं। जो अपना कचरा इस नदी में उड़ेलती हैं।दो दशक पहले तक भी लखनऊ और सुल्तानपुर शहरों के आसपास भले गोमती का पानी मटमैला होता था, पर दियरा घाट पर वह हमेशा साफ रहता था। पानी तकनीकी दृष्टि से भले प्रदूषिक हो, पर दिखने में स्वच्छ और पीने में स्वादिष्ट होता था। इस बार पूरी नदी का काला रूप देखा तो बचपन की सारी यादें बेमानी लगने लगीं। एक तो पानी पहले ही काफी प्रदूषित हो चुका है ऊपर से नए बने पुल पर रोजाना हजारों वाहन गुजरेंगें तो स्वाभाविक है कि यहां की आबोहवा भी प्रदूषित हुए बिना न रहेगी। विकास का मतलब अगर प्राकृतिक संसाधनों का विनाश है तो ऐसे विकास का फायदा क्या है।
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