Sunday, 15 April 2012

कुछ तो शर्म करो वरुणा में अपशिष्ट डालने वालों

वाराणसी : सरायमोहना में जाकर गंगा की गोद में समाने वाली वरुणा नदी नगर निगम की व जिला प्रशासन की लापरवाही से अपना धर्म भ्रष्ट होते देखकर अब मानों खामोश हो गई है। अब नदी का ठहरा पानी मानों कहता है कि कुछ तो शर्म करो मेरे ऊपर जानवरों का अपशिष्ट डालने वालों, मेरा तो धर्म भ्रष्ट हो ही रहा है, गंगा को तो बख्श दो क्योंकि मैं आगे जाकर उनमें ही समाती हूं। वरुणा नदी इन दिनों नगर निगम के चलते अवैध स्लाटर हाउस संचालकों व चिकेन-मीट विक्रेताओं के लिए कूड़ादान बन गई है। मुर्गे-बकरे का अपशिष्ट धड़ल्ले से नदी में सुबह-शाम डाला जा रहा है। ढेलवरिया, चौकाघाट, हुकुलगंज आदि क्षेत्रों में अवैध रूप से चल रहे स्लाटर हाउसों के संचालक भी मृत पशुओं का अवशेष व रक्त नदी में बेरोकटोक डाल रहे हैं। वरुणापुल पर अगर आपमें हिम्मत है पांच मिनट खड़े होने की तो जानवरों के अपशिष्ट नदी में उतराये दिख जांएगे। अपशिष्ट व नदी के किनारे कूड़ा डालने के चलते उठती दुर्गध से लोगों का पुल से गुजरना मुहाल हो गया है। वाहन सवार सांस रोककर अपनी जान जोखिम में डाल अस्सी की स्पीड से भागते हैं। राहगीरों के लिए तो पुल पार करना किसी भयावह स्वप्न से कम नहीं। नगर निगम की व्यवस्था दोषी एडीएम सिटी एमपी सिंह कहते हैं कि नदी की बदतर स्थिति के लिए नगर निगम पूरी तरह दोषी है। निगम के अधिकारी लाइसेंस तो जारी कर देते हैं लेकिन मृत जानवरों के अवशेष व अपशिष्ट को निस्तारित करने के लिए मुकम्मल स्थान नहीं देते। जिला प्रशासन स्लाटर हाउस संचालकों पर लगाम कस रहा है लेकिन नगर निगम की कार्यप्रणाली के आगे हम भी बेबस हैं।

लोक कल्याण के लिए निकल पड़े स्वामी सानंद

- प्रमोद मालवीय

वाराणसी। मुझे नींद नहीं आ रही थी। मेरी घड़ी रात के 1.30 बजने की जानकारी दे रही थी। मेरे एक तरफ मनकोही (मध्यप्रदेश) के घटाटोप जंगल की स्तब्धता तो दूसरी तरफ इस मौन को खंडित करती नर्मदा नदी की अविरल कल-कल। मेरी आंखें महज दो हाथ की दूरी पर पाषाण खंड पर गठरी बने एक वैभव को निहार रही थी। निविड़ अंधकार के बावजूद गठरी बने इस वैभव के चारों ओर एक आभा मंडल प्रकाशित था जिससे उन्हें पहचानने में कोई दिक्कत न थी। कोई भी स्वामी सानंद के इस तेजस्वी रूप के आगे नतमस्तक हो सकता था। गंगा की अविरलता और निर्मलता के लिए तपस्यारत स्वामी जी के इस स्वरूप को देख कर मन में बस यही भाव उठ रहे थे मानों लोक कल्याण के लिए महर्षि दधीचि ने एक बार फिर देहदान की ठान ली हो। न चाहते हुए भी गंगा की दुर्गति के जिम्मेदार लोगों के प्रति क्षोभ की एक आंधी सी मन में उठी और आंसुओं की शक्ल में आंखों से छलक उठी। स्मृति पटल पर अतीत की कुछ धुंधली तस्वीरें गड्डमड्ड हो रही थीं जिन्हें आकार लेने से रोक पाना मरे बस का न था। वेदना इस बात की थी कि गंगा के लिए आज संन्यास धर्म निबाह रहे इस परमहंस को अभी कल तक पद और प्रतिष्ठा कर्ण के कवच-कुंडल की तरह हासिल थीं। मां गंगा की एक पुकार पर मनीषी सानंद ने मात्र एक पल में सारी श्री -समृद्धि को तन के उत्तरीय की तरह उतार फेंका। आज वही व्यक्तित्व सरकारी उपेक्षा का दंश झेल रहा है। सिर्फ इस कामना के लिए कि गंगा अविरल बहती रहे, लोक का मंगल करती रहे। क्षोभ इस बात का है कि इस पवित्र-पावनी को अविरल-निर्मल बनाए रखने में सरकारों का क्या नुकसान हो रहा है, सुनसान और अंधेरी रात में मैं इस गुत्थी को सुलझा नहीं पा रहा हूं बुधवार को फेसबुक पर मन को झकझोर देने वाला यह संदेश अविछिन्न गंगा सेवा अभियानम् के सार्वभौम संयोजक स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद ने सजल आंखों और क्षोभ से कांपती अंगुलियों से दर्ज किये। मनकोही के जंगलों में तपस्या के दौरान उन्होंने फेसबुक पर जो लिखा उसका मजमून कुछ यूं रहा -बहुत दूर नहीं है हम, जहां स्वामी सानंद जी सो रहे हैं। कितनी सहजता से कल उन्होंने पुन: जलत्याग कर तपस्या आरंभ कर दी। वे तो सो रहे हैं शांति से पर न जाने क्यों हमें नीद नहीं आ रही, जो व्यक्ति देश भर के लिए समर्पण की तरह है, जिनके ज्ञान का लाभ देश उठा सकता है, उनकी बातों को अनसुना किया जा रहा है।

Thursday, 5 April 2012

जीडी की जिद, क्या बहेगी गंगा

भागीरथी, धौलीगंगा, ऋषिगंगा, बालगंगा, भिलंगना, टोंस, नंदाकिनी, मंदाकिनी, अलकनंदा, केदारगंगा, दुग्धगंगा, हेमगंगा, हनुमानगंगा, कंचनगंगा, धेनुगंगा आदि ये वो नदियां हैं जो गंगा की मूल धारा को जल देती हैं या देती थीं। देती थीं इसलिए कहना पड़ रहा है कि गंगा को हरिद्वार में आने से पहले 27 प्रमुख नदियां पानी देती थीं। जिसमें से 11 नदियां तो धरा से ही विलुप्त हो चुकी हैं और पांच सूख गई हैं। और ग्यारह के जलस्तर में भी काफी कमी हो गई है। यह हाल है देवभूमि उत्तराखंड में गंगा और गंगा के परिवार की। नदी निनाद कर बहती है। उसके तीव्र वेग के कारण ही वह नदी कहलाती है। यदि किसी धारा में कलकल और उज्जवल जल नहीं तो वह उत्तराखंड में गधेरा कहा जाता है उसको नदी का दर्जा प्राप्त नहीं होता।‘रन ऑफ द रिवर’ प्रोजेक्ट के सोच पर आधारित सैकड़ों बांध नदियों को नदी के बजाय गधेरे बनाने में लगे हुए हैं। नदियों को मोड़-मोड़ करके बार-बार सुरंगों में और झीलों में प्रवाहित किये जाने के कारण नदियों की जलगुणवत्ता काफी खराब होने लगी है।देवप्रयाग के बाद अलकनंदा, मंदाकिनी, भागीरथी, विष्णुगंगा कई नदियां मिलकर गंगा नाम से जानी जाती हैं। गंगा को गंगा बनाने वाली किसी भी धारा को बाधित करने वाली परियोजना की बात ही ‘गंगा के वर्तमान आन्दोलन’ में बातचीत के केन्द्र में हैं।
शिकायत हैयह शिकायत है कि गंगा के वर्तमान आंदोलन के कुछ प्रमुख नेता गंगा से बाहर किसी नदी पर बात नहीं करना चाहते। यहां तक की खुद यमुना के बारे में भी नहीं। जबकि वह प्रयाग के संगम पर अपना सारा पानी गंगा को दे देती है। ‘गंगा के वर्तमान आंदोलनकारियों’ का मानना है कि गंगा को राष्ट्रीय प्रतीक के तौर पर बचाया जाय। तो फिर ऐसे में यह सवाल उठता है कि कृष्णा, कावेरी, नर्मदा, ब्रह्मपुत्र सहित हजारों-हजार नदियां क्या ये राष्ट्रीय प्रतीक नहीं होनी चाहिए। उनकी अविरलता पर्यावरणीय प्रवाह और जल की गुणवत्ता की बात करने वाले भी जीडी का ही काम कर रहे हैं। सबको समझने की जरूरत है कि वो कोई गुनाह नहीं कर रहे हैं। नर्मदा की लड़ाई ने सरकारों की बांध-नीति को बेपर्दा कर दिया था। बड़े बांधों के खिलाफ नारा‘गंगा को अविरल बहने दो, गंगा को निर्मल रहने दो’ यह दो दशक पुराना नारा है। पुराना संघर्ष तो पानी पर लिखा इतिहास हो चुका है। उसको समझने के लिए ‘पानी की दृष्टि’ चाहिए। पुराना तो छोड़िए नए में देश के उत्तर पूर्व के एक राज्य असम के लखीमपुर जिले में निर्माणाधीन लोअर सुबानसिरी को वहां के जनसंगठनों की तरफ से नवम्बर-दिसम्बर 2011 से हजारों की संख्या में चक्का जाम कर बांध निर्माण को रोक दिया गया है। लेखिका रोमा बताती हैं कि यह बांध असम और अरुणाचल प्रदेश की सीमा में ब्रह्मपुत्र नदी के ऊपर बनाया जा रहा है जो कि अपने विकराल रूप के लिए सदियों से जानी जाती है। 14 जनवरी 2012 को असम की सत्तारूढ़ कांग्रेस सरकार द्वारा आंदोलनकारियों को तितर बितर करने के लिए गोली चलाई गई जिसमें 15 लोग घायल हो चुके हैं। लेकिन इसके बावजूद भी आंदोलन अभी तक थमा नहीं है।स्वामी ज्ञानस्वरूप सानंद जी के स्वास्थ्य की जांच करते डॉक्टरऔर यही तारीख 14 जनवरी 2012 थी जब गंगा को स्वच्छ बनाने के संकल्प के साथ जीडी की गंगा तपस्या शुरू हुई थी। क्या इन दोनों तरह के, दो धाराओं की तरह के नदी रक्षा आन्दोलनों में कोई संगम हो सकता है। यदि आप सभी नदी आन्दोलनों में कोई संगम नहीं कर सकते तो गंगा को तार नहीं पाएंगे।इसके बावजूद गंगा के चाहनेवालों के प्रति अन्य नदियों पर काम कर रहे लोगों का प्यार कम नहीं हो जाता। अन्य नदियों पर काम कर रहे लोग तो इसे प्रस्थान बिन्दु मान रहे हैं। उनका कहना है कि एक बार शुरूआत तो हो। इसीलिए देश के कई हिस्सों से भी जीडी के समर्थन में कार्यक्रमों की खबरें आ रही हैं।
मांग और मांगपत्रगंगा के वर्तमान आंदोलन के इस गंभीर मोड़ पर जहां जीडी अग्रवाल जीवन और मौत के बीच पहुंच चुके हैं और जिन मांगों के लिए उन्होंने यह आमरण अनशन का संकल्प किया है सब जानते हैं कि यह जीडी की जिद है, जीडी की जिद ही वर्तमान गंगा आन्दोलन का मांगपत्र है, 1. पंचप्रयागों की निर्मात्री अलकनंदा गंगा, विष्णु-गंगा, नंदाकिनी गंगा और मंदाकिनी गंगा जी पर निर्माणाधीन सभी परियोजनाएं तत्काल बंद/निरस्त हों। भविष्य में भी राष्ट्रीय नदी (अलकनंदा, भागीरथी और मंदाकिनी की मूलधाराओं सहित गंगासागर तक की मूलधारा) पर अविरलता भंग करने वाली कोई परियोजना न हों। 2. नरौरा से प्रयाग तक हर बिंदु पर, हर समय सदैव 100/1000 घनमीटर/सेकेंड से अधिक प्रवाह रहे। माघमेला, कुंभ तथा पर्व-स्नानों पर न्यूनतम 200 घनमीटर/सेकेंड प्रवाह रखा जाये।3. गंगाजी के नाम पर ऋण लेकर विभिन्न प्रकार के नगर उन्नयन कार्यों पर धन लुटाने/बांटने पर रोक लगे, चल रहे कार्यों को तुरंत बंद किया जाये और उनकी गहन समीक्षा हो। समीक्षा परियोजनाओं द्वारा गंगाजी को होने वाले लाभ की दृष्टी से हो।4. विषाक्त रसायनों से प्रदूषित अवजल गंगाजी में या उनमें गिरने वाले नदी-नालों में डालने वाले उद्योगों को गंगाजी से कम से कम 50 किमी. दूर हटाया जाये। सुनिश्चित हो कि उनका अवजल प्रत्यक्ष या परोक्ष किसी रूप में गंगा जी में न जाए।5. गंगाजी को संवैधानिक रूप से राष्ट्रीय-नदी घोषित करने, पदोचित सम्मान देने और प्रबंधन के लिये समुचित, सक्षम, सशक्त बिल संसद द्वारा पारित हो।यह मांग पत्र और खूबसूरत हो जाता जब इसमें अन्य नदियों के बारे में भी कोई नीति की बात होती। गंगा और उसकी सहायक नदियों के ‘कैचमेंट एरिया’ में किसी भी किस्म के बांध, व्यावसायिक गतिविधियां, मिट्टी का कटाव इस पूरे मांग पत्र के हिस्से होते। गंगा और उसके सहायक नदियों के घाटी में बचे-खुचे जंगल जो गंगा और उसकी गंगाओं को पानी देने का काम करते हैं वे भी मांग पत्र में शामिल होते।
सिविल इंजीनियर से सन्यास तक का सफर1932 में जन्मे जीडी अग्रवाल का कांधला, मुजफ्फरनगर (उ.प्र.) जन्म स्थान है। जीडी अग्रवाल की पढ़ाई-लिखाई आइआइटी रुड़की से सिविल इंजीनियरिंग में हुई है। इन्वायरमेंटल इंजीनियरिंग में डॉक्टरेट की उपाधि कैलिफॉर्निया विश्वविद्यालय से प्राप्त की। उत्तर प्रदेश के सिंचाई विभाग में डिजाइन इंजीनियर के तौर पर अपनी नौकरी की शुरूआत की। बाद में आइआइटी कानपुर में पढ़ाने लगे। सिंचाई विभाग में डिजाइन इंजीनियर का काम बड़ी बांध परियोजनाओं के डिजाइन करना, नहरी व्यवस्था को बढ़ाना आदि जीडी अग्रवाल के काम का क्षेत्र था। ‘टिहरी डैम स्टडी कमेटी’ का एक झगड़ा कुछ लोग बार-बार याद करते हैं। टिहरी डैम पर काफी विवाद के बाद डॉ. मुरली मनोहर जोशी के अध्यक्षता में बनी इस कमेटी के बांध की ऊंचाई पर एक विवाद में जीडी अग्रवाल ने कहा था कि बांध की ऊंचाई बढ़ाने से गंगाजल की गुणवत्ता में कोई फर्क नहीं आयेगा।अविरल निर्मल गंगा के लिए तपस्या करने वाले संतसरकार के ‘नेशनल वॉटर एकेडमी’ के कुछ इंजीनियर कहते हैं कि बांधों का निर्माण रोकने के नाम पर काफी ड्रामा हो रहा है। जो लोग आज विरोध कर रहे हैं पूर्व में जब वो सरकार में थे तब बांधों का डिजाइन तैयार करते थे। 13 जून 2008 को जीडी का पहला अनशन गंगा बचाने को लेकर हुआ था। क्या उसके बाद से आइआइटी वाले जीडी का सन्यासी जीडी के रूप में रूपांतरण सचमुच हो गया है, यह सवाल तो भविष्य के गर्भ में है। फिलहाल तो काशी, उत्तरकाशी, और भ्रष्टाचार की गंगोत्री दिल्ली के बीच सरकारें जीडी को घुमा रही हैं। वाराणसी में जल त्याग कर चुके जीडी की तबीयत बिगड़ने पर जबरी दिल्ली एम्स में भर्ती कराया गया है।कबिरा खड़ा बाजार में सबकी मांगे खैर। ‘ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर’ ।।कबीर के ये शब्द भगवान शिव की नगरी और भारत की सांस्कृतिक राजधानी वाराणसी को ठीक से परिभाषित करते हैं। वाराणसी की धरती को प्रो. जीडी अग्रवाल (स्वामी ज्ञानस्वरूप सानंद) ने गंगा प्रवाह को सुनिश्चित कराने के लिए चुना है। ऐसे में जिद के पक्के जीडी को कबीर की बानी ताकत देती होगी।जल में कुम्भ, कुम्भ में जल है, बाहिर भीतर पानी।फूटा कुम्भ जल जलहि समाना, यहु तत कथो गियानी।।मौत का भय जीडी की शब्दकोश से निकल चुका है। शरीर रूपी कुम्भ का अधूरापन तब तक रहता है, जब तक मृत्यु का भय हो। पता चल जाए कि अंदर-बाहर सब एक ही पानी है तो क्या फर्क पड़ता है। जब यह ज्ञान हो जाए तब मृत्यु बंधनकारी नहीं रह जाती, वह केवल पड़ाव रह जाती है। चोला पहनने और छोड़ने का उत्सव रह जाती है। जीडी को देखने पर इस उत्सव के दर्शन होते हैं।
बहती गंगा में हाथ न धोएंशुबहा है कि विश्व जल दिवस के सुबह पूरा हुए इस आलेख के छपने तक कोई न कोई ‘बीच का रास्ता’ निकाल लिया जाएगा। जीडी की जिद में हालांकि कोई लोचा नहीं है। पर ऐसे कुछ लोग हैं जो गंगा से ज्यादा जीडी के जीवन को महत्वपूर्ण मानते हैं और वे बीच का रास्ता निकालना चाहते हैं पर मित्रों याद रखना होगा कि ‘बीच का रास्ते’ से कोई गंगा नहीं निकलती। कृपया करके बहती गंगा में हाथ न धोएं

11 नदियां तो धरा से ही विलुप्त हो चुकी हैं और पांच सूख गई हैं।

भागीरथी, धौलीगंगा, ऋषिगंगा, बालगंगा, भिलंगना, टोंस, नंदाकिनी, मंदाकिनी, अलकनंदा, केदारगंगा, दुग्धगंगा, हेमगंगा, हनुमानगंगा, कंचनगंगा, धेनुगंगा आदि ये वो नदियां हैं जो गंगा की मूल धारा को जल देती हैं या देती थीं। देती थीं इसलिए कहना पड़ रहा है कि गंगा को हरिद्वार में आने से पहले 27 प्रमुख नदियां पानी देती थीं। जिसमें से 11 नदियां तो धरा से ही विलुप्त हो चुकी हैं और पांच सूख गई हैं। और ग्यारह के जलस्तर में भी काफी कमी हो गई है। यह हाल है देवभूमि उत्तराखंड में गंगा और गंगा के परिवार की। नदी निनाद कर बहती है। उसके तीव्र वेग के कारण ही वह नदी कहलाती है। यदि किसी धारा में कलकल और उज्जवल जल नहीं तो वह उत्तराखंड में गधेरा कहा जाता है उसको नदी का दर्जा प्राप्त नहीं होता। ‘रन ऑफ द रिवर’ प्रोजेक्ट के सोच पर आधारित सैकड़ों बांध नदियों को नदी के बजाय गधेरे बनाने में लगे हुए हैं। नदियों को मोड़-मोड़ करके बार-बार सुरंगों में और झीलों में प्रवाहित किये जाने के कारण नदियों की जलगुणवत्ता काफी खराब होने लगी है।

Sunday, 1 April 2012

वरुणा तट पर शुद्ध हवा-पानी का संकट

रफ्तार टूटने के बाद गंगा में घटाव तेज हो गया है। चौबीस घंटे के दौरान जलस्तर में चार फुट की गिरावट दर्ज की गई। उधर, वरुणा की भी धारा शांत पड़ गई। पानी घटने के बाद दूसरी जगहों पर शरण लिए लोग बीवी-बच्चों के साथ अपने घरों को लौटने तो लगे लेकिन सीलन और बदबू से वहां बीमारी फैलने की आशंका है। दाने-दाने की तो मोहताजी हुई ही, शुद्ध पानी का टोटा पड़ जाने से मुश्किलें बढ़ गई हैं। गुरुवार को नक्खी घाट, हिदायतनगर और सरैया के बाढ़ पीडि़तों का कहना था कि पहले प्रशासन को बस्तियों में सफाई कराने के साथ ही टैंकरों से पेयजल की आपूर्ति शुरू करानी चाहिए। ऐसा नहीं हुआ तो हालात और बदतर हो जाएंगे। वरुणा में घटाव के बाद नक्खीघाट, सरैया, हिदायतनगर, सिधवाघाट, कोनिया में घरों में लगा पानी निकलने लगा है। कुछ घरों से पानी निकला भी तो वहां तक पहुंचने का रास्ता नहीं रह गया है। फिर भी रिश्तेदारों या परिचितों के यहां शरण लिए लोग बीवी-बच्चों के साथ पानी से होकर अपने घरों की ओर लौटने लगे हैं। पानी कम होने के बाद अब बस्तियों में कचरा सड़ने और कीचड़ फैलने से स्थिति नारकीय हो गई। बदबू से वहां बीमारी भी फैल सकती है। फिलहाल प्रशासन की ओर से अभी बाढ़ प्रभावित इलाकों में राहत के कदम नहीं उठाए गए हैं। न दवा की आपूर्ति हो रही है और न सफाई के इंतजाम ही किए गए हैं। सबसे अधिक परेशानी पेयजल को लेकर है। हैंडपंप खराब होने से लोग पानी के लिए कलप रहे हैं। जिनके यहां बोरिंग है, वहां बाढ़ पीडि़त परिवारों की लाइन लग रही है। कुछ लोग दूसरे मोहल्लों से पानी ढोने के लिए मजबूर हैं। नक्खी घाट के इबादत, शहादत, आफताब बानो, मुस्ताक, इकबाल, इम्तियाज और झुन्नू ने कर्ज लेकर करघे लगाए थे, जो बाढ़ के पानी में डूबकर नष्ट हो गए। ऐसे में वे कर्ज टूटने की चिंता से तो परेशान हैं ही, दाने-दाने की मोहजाती भी हो गई है। किसी तरह उधार लेकर गृहस्थी की गाड़ी चल रही है। सामाजिक संस्था विजन की निदेशक जागृति ने गुरुवार को अपनी टीम के साथ प्रभावित इलाके की जानकारी ली। उन्होंने बस्तियों में दवा, टैंकर से पानी की आपूर्ति के अलावा सफाई कराने की मांग की है।
इस खबर के स्रोत का लिंक:
http://compact.amarujala.com/

वरुणा ने जो बटोरा उसे सहेज न सके हम

वर्षा की एक-एक बूंद की कीमत का अहसास हमें बीते पांच वर्षो में अच्छी तरह रहा लेकिन प्रकृति के इस कोप से हम सबक नहीं ले पाए। इस दौरान कोई बड़ा इंतजाम नहीं कर सके जिससे वर्षा के जल को सहेजा जा सके। इस बार अच्छी वर्षा का नतीजा रहा कि वरुणा में पर्याप्त पानी दिखने लगा। इससे उम्मीद जगी कि कम से कम वरुणा के किनारे बसे शहरी और ग्रामीण क्षेत्र का जलस्तर वर्ष के अन्य महीनों में भी ठीक रहेगा। इससे पेयजल और सिंचाई का संकट नहीं गहराने पाएगा। यहां हालात इसके उलट है। अभी वर्षाकालीन मौसम खत्म भी नहीं हुआ कि वरुणा का पानी तेजी से घटकर तलहटी से चिपककर रह गया। नदी की गहराई भी पटाव के कारण कम हो जाने से पानी तेजी से घटा। वरुणा का पानी गंगा में वापस चला गया। इसे रोकने का कोई इंतजाम वरुणा नदी पर नहीं किया गया।
'जागरण' की कोशिश'जागरण' ने इस दिशा में कई बार ध्यान आकृष्ट कराया कि जनपद सीमा के भीतर बहनेवाली वरुणा सहित अन्य छोटी नदियों व नालों के पानी संचयन की दिशा में प्रयास किए जाए। अफसोस अब तक कोई कार्ययोजना वरुणा के लिए नहीं बनाई जा सकी। इस नदी को गहरा कर कुछ स्थानों पर डैम बनाने की बात थी ताकि नदी में बराबर पानी बना रहे। इससे वाराणसी के शहरी और देहाती क्षेत्र के भूजल का प्राकृतिक शोधन होता। इसके बारे में कई बार काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के विशेषज्ञों ने भी राय दी कि वाराणसी में भूजल को शोधित करने की प्राकृतिक व्यवस्था है, इससे छेड़छाड़ नहीं होना चाहिए। इसमें शहर के एक तरफ से गंगा निकलती है तो उसके दो तरफ से वरुणा और असी। आज वरुणा का ही अस्तित्व बचा है। असी को तो पाट दिया गया। उसके जल ग्रहण क्षेत्र तक में मकान बन गए। इस समय वरुणा के साथ भी इसी तरह का कृत्य चल रहा। अब तक प्रशासन की प्राथमिकता में वरुणा नहीं आ सकी। इसके आसपास मनमानी जारी है। कहीं कूड़ा फेंका जा रहा तो कहीं मकान बन रहे। किसी समय केंद्रीय शहरी विकास मंत्री जगमोहन इसी वरुणा नदी को गहरा कराकर जल परिवहन की संभावना पर कार्य कर रहे थे। उनके मंत्री पद से हटते ही वह प्रोजेक्ट भी ठंडे बस्ते में चला गया। यदि इस नदी की हिफाजत हो जाए तो नगर में होने वाले नित्य जाम की समस्या का काफी हद तक निदान निकल सकता है। यही नहीं इसी नदी के किनारे स्थित पंचतारा होटलों में ठहरने वाले पर्यटकों के लिए भी जल परिवहन की अच्छी संभावना हो सकती है। फिलहाल नदी को अपने बचाव की लड़ाई लड़नी है। यहां ब्यूरोक्रेसी की सोच का अंदाज इसी से लगा सकते है कि चोलापुर ब्लाक में बहने वाली बरसाती नदी नाद को गहरा कर जल संचयन का प्रोजेक्ट वहां के ब्लाक प्रमुख त्रिभुवन सिंह ने तैयार कराया था। उसे अफसरों ने खारिज कर दिया जबकि वहां पर भी यदि नदी के जल को संचित करने के प्रबंध किये गए होते तो उसके अच्छे परिणाम मिलते।इस मामले को भी 'जागरण' ने प्रकाशित कर प्रशासनिक मशीनरी का ध्यान आकृष्ट कराया था लेकिन जूं तक नहीं रेंगी। फिलहाल दूरगामी इंतजाम की कमी का नतीजा रहा कि वरुणा का पानी निथर कर गंगा में वापस हो गया। हम हाथ मलते अगली बरसात का इंतजार कर रहे।Sep 19, 2008 साभार – जागरण याहू

गंगा नदी रक्षा अभियान


हमारी नदी प्रणालियों के विनाश का नया अध्याय 1980 के दशक में नई उदार आर्थिक नीतियों के अपनाने के साथ शुरू हुआ। सच्चाई को छुपाने के लिये 1986 में गंगा एक्शन प्लान –1 शुरू किया गया था। विदेशी कंपनियों की कमाई तो हुई पर गंगा स्वच्छता अभियान पूरी तरह विफल हो गया और जानकार मानते हैं कि गंगा नदी की दुर्दशा पहले से ज्यादा बदतर हो गई। शासन असली मुद्दों से लोगों का ध्यान भटकाने में जरूर कामयाब रहा और स्वछता अभियान की आड़ में नदी प्रणाली को एक-एक करके नष्ट कर दिया गया था। इस पृष्ठ भूमि में हमें राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण की आड़ में असली खेल को समझना होगा
भारत में अनादिकाल से ही गंगा जीवनदायिनी और मोक्ष दायिनी रही है, भारतीय संस्कृति, सभ्यता और अस्मिता की प्रतिक रही हैं। गंगा जी की अविरल और निर्मल सतत् धारा के बिना भारतीय संस्कृति की कल्पना नहीं की जा सकती। गंगा जी को सम्पूर्णता में देखने और समझने की आवश्यकता है। गंगा केवल धरती की सतह पर ही नहीं है, ये सतत् तौर पर हमारे भीतर भी प्रवाहमान हैं, यह भूमिगत जल धाराओं, बादलों और शायद आकाशगंगा में भी सतत् प्रवाहमान है। समुद्र तटीय क्षेत्रों के आसपास ताजे पानी की धाराओं के गठन और नदी का सागर में मिलन, फिर वाष्पीकरण द्वारा बादलों का निर्माण और भारतीय भूखंड में मानसून ये सब घटनायें एक दूसरे से अभिन्न तौर पर जुड़ी हैं। इन सब प्रक्रियाओं को समग्रता से समझाना होगा। मनुष्य के हस्तक्षेप ने जाने–अनजाने, लोभ –लिप्सा के वशीभूत एक से अधिक तरीकों से इस पुरे चक्र को नष्ट और बाधित किया है। इस बात को ईमानदारी से स्वीकारने और समझने की जरूरत है। संभवतः ईश्वर ने मनुष्य को शायद प्रकृति का एक ट्रस्टी नियुक्त किया है ताकि प्रकृति का संरक्षण और संवर्धन हो। यदि हम मुड़कर अपने हाल के इतिहास को देखें तों दुर्भाग्य से हम पाते हैं कि हम विपरीत दिशा में, विध्वंस और विनाश की दिशा में जा रहें हैं। इन सब बातों को दृष्टीगत रखते हुए ही हम गंगा के मुद्दों को समझने की कोशिश करनी होगी। गंगा नदी की गंगोत्री से गंगासागर तक की यात्रा लगभग 2615 किलोमीटर की है। गंगा जी की वर्तमान स्थिति को उचित तौर पर समझने के लिये तीन चरणों में विभाजित करके अध्ययन करना उपयोगी रहेगा:- (I) गंगोत्री से बिजनौर बैराज तक(Ii) बिजनौर से वाराणसी तक(Iii) वाराणसी से गंगासागर तकपहले चरण में कमोबेश अभी भी जल की शुद्धता बनी हुई है। परन्तु उतराखंड में गंगा की पंच शीर्ष धाराओं पर प्रस्तावित बांध और अन्य प्रकल्प गंगा नदी प्रणाली की प्रकृति और पर्यावरण को पूरी तरह नष्ट कर देंगे। गंगा यात्रा के दूसरे चरण में गंगा जी पर अत्यधिक दबाव है। घरेलू सीवेज, औद्योगिक और कृषि प्रदूषण से गंगा त्रस्त है। इसी चरण में प्रसिद्ध तीर्थ गढ़मुक्तेश्वर, प्रयागराज और काशी भी आते हैं। यात्रा का तीसरा चरण है वाराणसी से गंगासागर तक जो बारम्बार बाढ़ की विभीषिका और विनाश झेलता है। प्रकृति और वनों के विनाश ने बाढ़ की बारंबारता और विभीषिका को बढ़ाया है। इतिहास में नदियों की धाराओं ने अनगिनत बार अपनी दिशाओं और मार्ग को बदला है जो अध्ययन के लिए रोचक और आकर्षक विषय हो सकता है। परन्तु हाल के दिनों में मनुष्य द्वारा नदी और प्रकृति और पर्यावरण के साथ बेलगाम छेड़-छाड़ और हस्तक्षेप से गंगा नदी के अस्तित्व पर ही संकट आ गया है। हमें इस पूरी प्रक्रिया को गहराई से समझने की जरूरत है, जो इस आसन्न त्रासदी के कारण है।
आधुनिक भारत के इतिहास में गंगाआधुनिक भारत में गंगा नदी पर आघात की प्रक्रिया की शुरुआत 18वीं सदी में अंग्रेजों के आगमन के साथ शुरू हुई थी। जब 1842 में, ब्रिटिश इंजीनियर प्रोब कोले द्वारा जाहिर तौर पर क्षेत्र में अकाल को रोकने के लिये ऊपरी गंगा नहर का निर्माण किया गया था और लगभग उसी समय अंग्रेजों ने हिमालय के वनों के विनाश की प्रक्रिया शुरू किया और व्यापारिक उद्देश्य से देवदार के वृक्षों का रोपण शुरू किया था जो हिमालय की पारिस्थितिकी के लिए अपूर्णीय क्षति का कारण बने, जिसका दुष्प्रभाव जल धाराओं और गंगा जी के प्रवाह पर हुआ है। इसी ब्रिटिश शासन के दौर में भी, विद्वानों का एक समूह गंगा का उपयोग, परिवहन और व्यापार के प्रमुख मार्ग के तौर पर करने के पक्ष में था। परन्तु रेलवे बिछाने की वकालत करने वाली लॉबी ने इस विचार पर हावी हो इसे पछाड़ दिया। देश में रेलवे के फैलते जाल ने भी जल धाराओं को प्रभावित किया। गंगा नदी के विनाश की और यह भी एक महत्वपूर्ण पड़ाव रहा है। पटना में जहां कभी पानी के बड़े जहाज चलते थे वहाँ आज मीलो बालू का विस्तार है और टखने तक गहरा पानी है।1916 में जब हरिद्वार के चारों ओर नहरें बनाकर जलधारा का मार्ग बदला जा रहा था। तब हरिद्वार और गंगा जी की रक्षा के लिये महामना मदनमोहन मालवीय जी के नेतृत्व में प्रचंड संघर्ष हुआ। साम्राज्यवादी ब्रिटिश सरकार झुकी और उन्होंने मालवीय जी से वादा किया कि आगे से गंगा के प्रवाह और जल धारा के साथ कोई छेड़-छाड़ और कोई नुकसान नहीं किया जाएगा। परन्तु अफसोस कि स्वतंत्र भारत की सरकार ने उस वायदे का सम्मान नहीं रखा। इसके विपरीत गंगा सहित इसकी सहायक नदी प्रणालियों के साथ अकल्पनीय छेड़-छाड़ की जो हमारी नदियों के विनाश का कारण बन रही है। विनाश के कुछ प्रमुख कृत्यों की झलक निम्नलिखित हैं: 1. बिहार नेपाल कि सीमा पर 1960 में कोसी बैराज का निर्माण और बिहार की प्रमुख नदियों को तटबांधो में बांधने के प्रयास जिसके कारण उत्तर बिहार में बाढ़ से अपार क्षति हुई है। 1971 में राजमहल में फरक्का बैराज का निर्माण। 2. ऊपरी गंगा नहर प्रणाली के माध्यम से और अधिक मात्रा में पानी को नदी से निकालना। 3. गंगा की सबसे बड़ी सहायक नदी यमुना पर पश्चिमी यमुना नहर पर हथिनी कुंड में एक नए बांध का निर्माण यमुना जल को नदी की धारा में जाने से रोक लिया गया।4. उत्तराखंड में विशालकाय टिहरी बांध का निर्माण और पंच गंगाओं पर बांध निर्माण और अन्य प्रकल्प जो जल धाराओं के अविरल प्रवाह में रुकावट होंगे। 5. गंगा के मध्य भाग में गंगा के सभी प्रमुख सहायक नदियों- यमुना, काली, रामगंगा आदि को गंदे और प्रदूषित नालों में तब्दील कर दिया गया है। 6. हम युवा पीढ़ी को गंगा नदी प्रणाली की मुलभूत बातों और महत्व से अवगत कराने में विफल रहें।7. हमने विदेशी विशेषज्ञों की सलाह पर ऐसी कृषि पद्धतियों को अपनाया, अपने रहन-सहन और खान-पान में बदलाव किया जो हमारी जलवायु के अनुकूल नहीं है। जिससे कृषि, जल और स्वास्थ्य क्षेत्र में पूरी गंगा बेसिन क्षेत्र में संकट पैदा हो गया है।हमारी नदी प्रणालियों के विनाश का नया अध्याय 1980 के दशक में नई उदार आर्थिक नीतियों के अपनाने के साथ शुरू हुआ। सच्चाई को छुपाने के लिये 1986 में गंगा एक्शन प्लान –1 शुरू किया गया था। विदेशी कंपनियों की कमाई तो हुई पर गंगा स्वच्छता अभियान पूरी तरह विफल हो गया और जानकार मानते हैं कि गंगा नदी की दुर्दशा पहले से ज्यादा बदतर हो गई। शासन असली मुद्दों से लोगों का ध्यान भटकाने में जरूर कामयाब रहा और स्वछता अभियान की आड़ में नदी प्रणाली को एक-एक करके नष्ट कर दिया गया था। इस पृष्ठ भूमि में हमें राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण की आड़ में असली खेल को समझना होगा, विश्व बैंक का इस परियोजना को समर्थन करने और बड़ी मात्रा में पूंजी निवेश करने के पीछे असली मंशा क्या है और भारत सरकार द्वारा इसे स्वीकार करने के पीछे क्या कारण हो सकते हैं?
गंगा नदी प्रणाली को हुई मुख्य क्षतियां1. वनों का विनाश और उसका नदी की धाराओं और स्थानीय जलवायु पर दुष्प्रभाव।2. गंगा नदी की गंगा सागर तक की पूरी यात्रा में बड़े बांधों और बैराजों का निर्माण कर प्रवाह में अवरोध।3. नदी के पानी को नहर प्रणाली द्वारा खींच लिया जाना।4. भूमिगत जल का अत्यधिक दोहन।5. तालाबों आदि अन्य जल क्षेत्रों का विनाश।6. नदी भूमि, खादर और कछार क्षेत्रों पर अतिक्रमण
समाजभारतीय समाज औपनिवेशिक चेतना और नव औपनिवेशिक चेतना के द्वन्द में फंस गया है।
शासन प्रक्रियापापों को धोने वाली गंगा अब मैली हो गई हैराष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण के तहत गंगा नदी प्रणाली की बहाली (अविरल और निर्मल धारा बनाना) के वर्तमान प्रयासों में अनेक तकनीकी और प्रशासनिक खामियां हैं। उदहारण के लिये :- 1. गंगा नदी प्रणाली पर काम कर रही एजेंसियों ने विनाश के कारणों का गहन आकलन कर कोई सूची तैयार नहीं की गई है।2. गंगा एक्शन प्लान -1 और गंगा एक्शन प्लान-2 में हुई गलतियों के बारे में मात्र जबानी जमा खर्च किया जा रहा है। वास्तव में गलतियाँ कहाँ और क्यों हुई इसकी कोई गंभीर और गहन समीक्षा नहीं की गई। इसका मतलब है वही गलतियां फिर बड़े पैमाने पर दोहराई जाने की सम्भावना है। गलतियों के लिये किसी की जिम्मेवारी तय नहीं की गई। सलाहकारों और विशेषज्ञों द्वारा ली गई महंगी सलाह भी क्यों विफल रही इसका कोई आकलन नहीं हुआ है।3. राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण को तकनीकी सलाह देने के लिये बने आईआईटी कंसोर्टियम का नेतृत्व एक “ई टी आई डायनमिक्स” नामक अंतर्राष्ट्रीय निगम द्वारा किया जाना भी जाँच-परख की विषय वस्तु है।4. शून्य निर्वहन नीति की बात की जा रही है यह अवधारणा भी एक भ्रम है और इसे चुनौती दी जानी चाहिए। प्रदूषण मुक्ति के जैविक और विकेन्द्रित उपायों पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए। इन उपायों को सिरे से नकारे जाने की प्रवृती संदेह उत्पन्न करती है।5. वर्तमान में NGRBA के अधिदेष में “निर्मल और अविरल धारा का मुद्दा शामिल नहीं है, यह केवल गंगा नदी प्रबंधन और प्रदूषण मुक्त करने की बात करता है।6. राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण का सभी संवाद अंग्रेजी में किया जा रहा है, जो गंगा बेसिन के लोगों की पहली भाषा नहीं है। जरूरी है की गंगा बेसिन के निवासियों जो इस योजना से प्रभावित होने वाले हैं से उनकी भाषा में संवाद किया जाये। अन्यथा पूरी संवाद प्रक्रिया में वे हाशिए पर ही रहेंगे।7. प्रदूषण नियंत्रण की जिम्मेदारी शहरी स्थानीय निकायों के पास है परन्तु 73वें संविधान संशोधन के बावजूद वास्तविक शक्तियां उनके पास नहीं है।नदी प्रणालियों में हस्तक्षेप का औचित्य मानवीय हित में किया जाना बताया जाता है– जैसे की सिंचित भूमि बढ़ाना, बाढ़ पर नियंत्रण, सूखे और गर्मी के समय के लिये जल संचयन, पन-बिजली बनाने के लिए और अतिरिक्त जल निस्तारण के लिये निकास नाली के रूप में उपयोग इत्यादि– इन सभी मुद्दों पर बहस हो सकती है। आधुनिक मानव इन अवधारणाओं को स्वीकार करता जान पड़ता है और परिणामतः इसके विनाशकारी प्रभावों का सामना करना पड़ता है लेकिन इस आत्मघाती रास्ते से परहेज करने के लिए ये पर्याप्त कारण नहीं हैं।
रास्ता क्या हैजैसा की शुरुआत में ही कहा गया है कि केवल गंगा नदी की धारा वहीं नहीं है, जो धरती की सतह पर दिखती है। गंगा अभियान में लगे कार्यकर्ताओं को तों इस बात को अधिक गहराई से महसूस करने की जरूरत है। यदि हम ईमानदारी से पवित्र गंगा जी की रक्षा करना चाहते हैं, तो जरूरी है कि हम अपने विकास प्रतिमानों में बदलाव लाएं, सामाजिक परिवर्तन और शासन व्यवस्था में परिवर्तन जरूरत को समझे। यदि भारतीय अद्वैत दर्शन को मानें तो गंगा की पवित्रता, निर्मलता और सुंदरता हमारा स्वयं का प्रतिबिंब ही है। कुछ समर्पित गंगा भक्तों द्वारा गंगा को अविरल और निर्मल बनाने का अभियान चलाया जा रहा है। हरिद्वार में स्वामी निगमानंद का बलिदान सर्वविदित है। जिन्होंने उतराखंड में गंगा नदी प्रणाली को तबाह करने वाले खनन माफिया के खिलाफ अभियान चलाया और शहीद हो गये। स्वामी ज्ञानस्वरूप सानंद जी।(जीडी अग्रवाल) जी ने भी गंगा सेवा अभियान में गंगा मइया की रक्षा के लिये अपने प्राणों की बाजी लगा दी है। उन्होंने काशी में गंगा जी के तट पर निर्जल तपस्या जारी राखी है। इसके अतिरिक्त भी देश भर में मशहूर हस्तियों के नेतृत्व और संस्थाओं ने प्राण-पन से गंगा रक्षा का अभियान चलाया हुआ है। हम इन सभी का विनम्र अभिवादन और समर्थन व्यक्त करते हैं। हम सभी के साथ निम्नलिखित मुद्दों पर आगे चर्चा के लिए कार्रवाई का मसौदा कार्यक्रम यहाँ रख रहे है :- 1. गंगा के मुद्दों के बारे में लोगों को शिक्षित करना क्या हम जोरदार ढंग से कह सकते हैं कि देश भर में ऐसे 1000 कार्यकर्ताओं/ शिक्षाविदों/राजनेताओं नौकरशाह का समूह है जिसे आज गंगा नदी के बारे में जुड़े मुद्दों की पूरी रेंज के बारे में पता है? 2. हमारे पारम्परिक ज्ञान, हमारी आस्थाओं और सांस्कृतिक प्रथाओं का अध्ययन और प्रचार प्रसार परंपरागत ज्ञान, विश्वास, पानी, जल स्रोत, नदियों के प्रति श्रद्धामय रवैया और दूसरी आधुनिक जीवन शैली में झूलते जीवन के बारे में विचार–विमर्श को आमंत्रित करना।3. गंगा नदी प्रणाली और देश में अन्य नदियों को हुई बड़ी क्षति का अध्ययन कर जानकारी का प्रसार करना। कैसे अस्सी के दशक में देश में शुरू हुई नवउदारवादी विकास के एजेंडे के आगमन के बाद से हमारी नदियों और पर्यावरण का विनाश तेजी से बढ़ा है।4. NGRBA के तहत प्रस्तावित तकनीकी और प्रशासकीय समाधान के मुद्दों पर गहराई से विचार विमर्श और बहस को आमंत्रित करना।5. छोटी नदी प्रणाली कि पुनर्बहाली कि सफलता की कहानियों,भू-जल की रिचार्जिंग,जल संरक्षण और प्रबंधन की पारंपरिक प्रणालियों जैसे बिहार की आहार पाईन प्रणालियों का अध्ययन कर प्रलेखित किया जाना चाहिए ताकि उन्हें अन्य जगह अपनाया और दोहराया, जा सके और कोई बहाना बनाकर इनकी अनदेखी ना की जा सके। 6. हमें अपनी औपनिवेशिक चेतना से बाहर आकर सोचने की जरूरत है और इसी के साथ-साथ नव उदारवाद के मोहपाश के समाधान को देख समझ कर फंदे से बाहर निकलना होगा। ऐसा करने के लिए पूर्व शर्त है की हम प्रकृति और नदियों की ओर एक श्रद्धामय रवैया अपनाकर नया रास्ता तलाश करें।7. बाल्मीकि समुदाय को भी इस महान यज्ञ में एक न्याय पूर्ण स्थान और गंगा नदी के प्रदूषण की रोकथाम में बराबर की भागीदार होनी चाहिए।

वाराणसी को पहचान दिलाने वाली वरुणा नदी का पानी बहुत जहरीला है



निगम ने धोखे में रखा था जिला प्रशासन को




वाराणसी : नगर के मध्य से होकर बहने वाली वरुणा नदी का पानी स्नान तो दूर, स्पर्श के लायक भी नहीं रह गया है। वरुणापार इलाके में खुले तमाम स्लाटर हाउस मालिक व चिकेन मटन विक्रेता, मृत जानवरों के अपशिष्ट नदी में धड़ल्ले से डाल रहे हैं। बस, दो मिनट के लिए शास्त्री घाट पर ठहर जाइए, नदी में तैरते अपशिष्ट व उसे खाने के लिए लड़ते कुत्ते नदी की सारी व्यथा बयां कर देंगे। रही सही कसर नगर निगम के कर्मचारी व जमीन के धंधे से जुड़े लोग नदी को पाटने की कोशिश में कूड़ा-कचरा डालकर पूरी कर दे रहे हैं। वरुणा के किसी भी पुल से गुजरते वक्त इतनी तीव्र दुर्गध आती है कि लोगों का जी मिचलाने लगता है। वाहन सवार पुल पर पहुंचते ही 'नरक' से गुजरने के अहसास के साथ वाहन की स्पीड बढ़ा देते हैं। प्रशासनिक अमला अस्तित्व को जूझ रही वरुणा को बचाने के लिए समय-समय पर वादों व कार्ययोजनाएं गिनाने की झड़ी लगा देता है। कभी टेम्स बनाने का तो कभी हरित पट्टी, डैम बनाने से लेकर पर्यटन की दृष्टि से वरुणा को विकसित करने का दावा कई बार हो चुका है लेकिन अभी तक कोई कवायद शुरू नहीं हुई।
नगर निगम है दोषी : जिला प्रशासन का कहना है कि नदी में गिर रहे अपशिष्ट पदार्थ के लिए सीधे तौर पर नगर निगम जिम्मेदार है। एडीएम सिटी एमपी सिंह के अनुसार पूर्व में नगर निगम के एक अधिकारी ने जिला प्रशासन को धोखे में रखते हुए हुकुलगंज क्षेत्र में कई स्लाटर हाउस को संचालन की अनुमति दे दी। मामला संज्ञान में आने के बाद जब पूछताछ की गई तो निगम से जवाब आया कि उनके लाइसेंस निरस्त किए जाएंगे। कई माह गुजर चुके हैं लेकिन अब तक कोई कार्रवाई नहीं हुई। वरुणापार इलाके में चिकेन-मटन शॉप की दुकानों को भी निगम ने ही लाइसेंस दे रखा है। लाइसेंस में पशुओं के अपशिष्ट के निस्तारण के संबंध में शर्ते होती हैं जिसका पालन कराना निगम की जिम्मेदारी है। बकौल एडीएम सिटी एमपी सिंह ..अफसोस कि ऐसा हो नहीं रहा है।
बन जाएगा एक दिन नाला : जिला प्रशासन हो या शहरवासी, यदि अब किसी ने इसके अस्तित्व की रक्षा को आगे कदम नहीं बढ़ाया तो जिले को वाराणसी (वरुणा और असि) नाम देने वाली वरुणा भी एक दिन असि की तरह वरुणा नाला कही जाने लगेगी। नदी को किसी ऐसे जीवट वाले व्यक्ति का इंतजार है जो उसके वैभवशाली अतीत को वापस ला दे। कई स्थानों पर नदी नाला बन गई है। आसपास लोगों के मकान बन गए हैं। अपने घरों का गंदा पानी इसी में गिरा रहे हैं। पुल से गुजरते समय देख सकते हैं कि अक्सर ही लोग कूड़ा-करकट का पैकेट घुमाकर नदी में फेंक देते हैं। नदी को बचाने की दिशा में न तो सरकारी तंत्र में कोई दृढ़ता दिख रही और न ही स्वयंसेवी संगठनों में।
जुलाई से बंद है फाटक : जुलाई 2011 से ही पुराना पुल स्थित फाटक को सिंचाई विभाग ने बंद कर रखा है। इसके चलते वरुणा का पानी गंगा में नहीं जा रहा है। ठहराव के कारण पानी और भी प्रदूषित हो गया है। मालूम हो कि जिन दिनों गंगा का पानी तेजी से बढ़ता है तो वरुणा ही उसके 'वेग' को संभालती है, जिससे शहर को ज्यादा क्षति नहीं होती। यदि वरुणा को गहरा कर वर्ष भर जल संग्रह के लिए कुछ स्थानों पर डैम बना दिए जाएं तो यहां के जलस्तर में सुधार हो सकता है। इसी तरह जिला प्रशासन ने बनारस पैकेज में वरुणा नदी को गहरा करने व डैम बनाने का प्रस्ताव प्रदेश सरकार के पास भेजा था जिसे शासन में बैठे अफसर समझ नहीं सके। उन्हें बनारस के लिए वरुणा की कोई उपयोगिता ही नहीं दिखी। इसी कारण उस प्रस्ताव को खारिज कर दिया गया।