Saturday, 26 February 2011
काशी का दर्द : गंगा है, गंगाजल नहीं
आयुक्त के अरमान पर माफियाओं की मिट्टी
Saturday, 12 February 2011
गंगा-गोमती में आर्सेनिक!
Thursday, 3 February 2011
पानी के लिए बहेगा खून
उपलब्धता और मांग के बीच बढ़ते फासले को देख यह प्रतीत हो रहा है कि यदि समय से पहले खुद को संयमित नहीं किया गया तो जल के लिए जंग की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता.
दुनिया में हर साल 8 करोड़ लोग जुड़ जाते हैं. इससे पानी की मांग में 64 हज़ार अरब लीटर की वृद्धि हो जाती है. दुनिया में 1.20 अरब लोगों को रोज़ाना पानी के लिए संघर्ष करना पड़ता है. वर्ष 1900 से अब तक दुनिया में आधे वेटलैंड खत्म हो गए हैं. बताते हैं कि अभी कुल पानी का लगभग 2.5 फीसदी वाष्पीकरण की भेंट चढ़ जाता है. इंटरनेशनल हाइड्रोलॉजिकल प्रोग्राम का अनुमान है कि ग्लोबल वामिर्ंग की वजह से अगले 15 सालों में वाष्पीकरण की गति आज की तुलना में दुगुनी हो जाएगी. वाष्पीकरण की प्रक्रिया में तेज़ी आने से भी नदियों और अन्य जल स्रोतों में पानी की मात्रा कम होगी.
वैश्विक जलसंकट विशेषज्ञ और काउंसिल ऑफ कनाडा की सदस्य माउथी बालरे ने अपनी किताब ब्ल्यू कविनेंट में लिखा है- वर्ष 2050 तक मनुष्य के लिए पानी की आपूर्ति में 80 फीसदी की बढ़ोतरी करनी होगी. सवाल यह है कि यह पानी आएगा कहां से? अभी यह कोई नहीं जानता. पानी की आपूर्ति बढ़ाने के लिए पानी का दोहन करना ही होगा. यानी इससे जल संकट और बढ़ेगा. भारत में 15 फीसदी भूजल स्रोत सूखने की स्थिति में हैं. दुनिया में सबसे ज़्यादा क़रीब 20 लाख ट्यूबवेल भारत में ही है, जो लगातार ज़मीन से पानी खींच रहे है. ऐसे में वर्ल्ड बैंक के इस आकलन पर कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि अगले 25 वर्षों में भूजल के 60 फीसदी स्रोत ख़तरनाक स्थिति में पहुंच जाएंगे. यह स्थिति भारत के लिए इसलिए भी दयनीय होगी, क्योंकि हमारी 70 फीसदी मांग भूजल के स्रोतों से ही पूरी होती है. यानी एक बड़ी आबादी पानी की एक-एक बूंद के लिए तरसेगी. यह सवाल उठना लाज़िमी है कि आख़िर यह संकट क्यों आया? कहा जा रहा है कि लगातार जिस तरह हालात बिगड़ रहे हैं उसे देख यही लगता है कि हम नहीं चेते तो जल के लिए तीसरे विश्व युद्ध की आशंका को ख़ारिज़ नहीं किया जा सकता. जल विशेषज्ञ राजेंद्र सिंह की माने तो पहले किसी ने यह कल्पना भी नहीं की थी कि हमारे भूमिगत जल भंडार कभी खाली भी होंगे. महज़ कुछ फीट की खुदाई करो, जल हाज़िर. लेकिन कुछ ही वर्षो में हमने इतनी बेरहमी से इनका दोहन किया कि आज भूजलस्तर खतरनाक स्थिति में पहुंच गया. इसलिए आने वाले कुछ वर्षों में ये पूरी तरह से खत्म हो जाएं तो इसमें कोई अचरज नहीं होना चाहिए. अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा की रिपोर्ट कहती है कि 2002 से 2008 के दौरान ही देश के भूमिगत जल भंडारों से 109 अरब क्यूबिक मीटर एक क्यूबिक मीटर यानी एक हज़ार लीटर पानी समाप्त हो चुका है. बीते तीन वर्षों में स्थिति और भी बदतर हुई है.
नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हाइड्रोलॉजी एक दिलचस्प अध्ययन में पता चला है कि भारत की आर्थिक विकास की रफ़्तार बढ़ने के साथ ही देश में जल संकट और भी गहराएगा. भारत में जीडीपी बढ़ रही है और इससे लोगों की आय में भी इज़ा़फा हो रहा है. आय बढ़ने से लाइफस्टाइल तेज़ी से बदल रही है. आधुनिक लाइफस्टाइल की वजह से पानी की खपत में बढ़ोतरी होती है. अभी भारत में प्रति व्यक्ति प्रतिदिन पानी की मांग 85 लीटर है, जो 2025 तक 125 लीटर हो जाएगी. उस समय तक भारत की आबादी भी बढ़कर एक अरब 38 करोड़ हो जाएगी. इससे प्रतिदिन पानी की मांग में कुल 7900 करोड़ लीटर की बढ़ोतरी हो जाएगी. इसका सीधा असर जल संसाधनों पर पड़ेगा. इस बढ़ी हुई मांग को पूरा करने के लिए हमें भूजल के स्रोतों की ओर झांकना पड़ेगा जो इन पंद्रह वर्षों में का़फी खत्म हो चुके होंगे. यानी लोगों की पानी की मांग तो बढ़ेगी, लेकिन उतना पानी मिलेगा, इस पर संदेह है. आज प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धता 3076 लीटर है, जो तब घटकर आधे से भी कम रह जाएगी. वर्ल्ड वाइल्ड फंड डब्ल्यूडब्ल्यूएफ की 2007 की रिपोर्ट नदियों के मरने की वजह जलवायु परिवर्तन और पानी के अत्यधिक दोहन को मानती है. बारिश का सालाना औसत 105 सेंटीमीटर है. इसके कम होने से नदियों के जल प्रवाह में 20 फीसदी तक की कमी आई है. वहीं सिंचाई और घरेलू इस्तेमाल के लिए नदियों से पानी का दोहन भी चार गुना बढ़ा है. बीते 3 वर्षों स्थिति और बिगड़ी है. दुनिया में हर साल 35 लाख और भारत में एक लाख लोग पानी से जुड़ी बीमारियों की वजह से मरते हैं. यूं कहें कि आने वाले समय में लोगों की पानी तक पहुंच कम होती चली जाएगी. पिछले साठ वर्षों में भारत में पानी की उपलब्धता एक तिहाई रह गई है. यानी 1952 के मुक़ाबले अब 33 फीसदी पानी खत्म हो चुका है, जबकि आबादी 36 करोड़ से बढ़कर 115 करोड़ हो गई है, यानी तीन गुना से भी ज़्यादा. हालात यह है कि हम लगातार भूमिगत जल पर निर्भर होते जा रहे हैं. नतीजतन भूजल स्तर हर साल एक फीट की रफ़्तार से नीचे जा रहा है. इससे उत्तर भारत के ही 11 करोड़ से अधिक लोग भीषण जल संकट से जूझ रहे हैं. यह आकलन अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा ने किया है. ज़मीन से लगातार पानी खींचने का ही परिणाम है कि आज देश के 5723 में से 839 ब्लॉक डॉर्क जोन में आ चुके है. यह संख्या लगातार बढ़ती जा रही है. उत्तर से लेकर दक्षिण और पूरब से लेकर पश्चिम तक हर जगह पानी को लेकर मारामारी है. देश के दस लाख से अधिक जनसंख्या वाले 35 शहरों में किसी में भी औसतन एक घंटे से अधिक पानी की आपूर्ति नहीं होती. दरअसल, धरती पर जो पानी है, उसका महज़ 0.007 फीसदी हिस्सा ही मानव के लिए उपयोगी है. यानी एक लाख लीटर पानी में महज़ 7 लीटर. शेष पानी या तो समुद्री जल है या ग्लेशियर के रूप में जमा है. अपने देश की स्थिति और भी गंभीर है क्योंकि यहां दुनिया की आबादी के 16 फीसदी लोग रहते हैं, जबकि पानी केवल चार फीसदी ही है. सबसे खराब स्थिति राजस्थान की है. वर्षा कम होने से नदियों के जल प्रवाह में 20 फीसदी तक कमी आई है.
दुनिया में हर साल 8 करोड़ लोग जुड़ जाते हैं. इससे पानी की मांग में 64 हज़ार अरब लीटर की वृद्धि हो जाती है. दुनिया में 1.20 अरब लोगों को रोज़ाना पानी के लिए संघर्ष करना पड़ता है. वर्ष 1900 से अब तक दुनिया में आधे वेटलैंड खत्म हो गए हैं. बताते हैं कि अभी कुल पानी का लगभग 2.5 फीसदी वाष्पीकरण की भेंट चढ़ जाता है. इंटरनेशनल हाइड्रोलॉजिकल प्रोग्राम का अनुमान है कि ग्लोबल वार्मिंग की वजह से अगले 15 सालों में वाष्पीकरण की गति आज की तुलना में दुगुनी हो जाएगी. वाष्पीकरण की प्रक्रिया में तेज़ी आने से भी नदियों और अन्य जल स्रोतों में पानी की मात्रा कम होगी. गर्मी बढ़ने से ध्रुवों की बर्फ तेज़ी से पिघलेगी. ऩुकसान यह होगा कि यह मीठा पानी समुद्र के खारे पानी में मिल जाएगा. इस तरह मीठे पानी के पहले से ही सीमित स्रोत और भी संकुचित हो जाएंगे. कहा जा सकता है कि आने वाला व़क्त भारत सहित दुनिया के अधिकांश देशों के लिए बेहद कठिन है. बढ़ती आबादी, भूजल का अत्यधिक दोहन, ग्लोबल वामिर्ंग इत्यादि वजहों से पानी ऐसी लक्ज़रियस चीज़ बन जाएगी, जिसका इस्तेमाल उसी तरह करना होगा, जैसे आज हम घी का करते हैं.
संयुक्तराष्ट्र के जल उपलब्धता मानकों के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को प्रतिदिन न्यूनतम 50 लीटर पानी मिलना चाहिए, लेकिन स्थिति इससे बदतर है. दुनिया के छह में से एक व्यक्ति को इतना पानी नहीं मिल पाता है. यानी 89.4 करोड़ लोगों को बेहद कम पानी में अपनी सभी आवश्यकताओं की पूर्ति करनी पड़ती है. भारतीय पैमानों पर देखें तो एक व्यक्ति को रोज़ाना कम से कम 85 लीटर पानी मुहैया होना चाहिए, लेकिन हमारे देश में भी तीस फीसदी लोगों की यह ज़रूरत पूरी नहीं होती. इनमें से अधिकांश लोग ग्रामीण क्षेत्रों में हैं, लेकिन शहरों में भी हालात बिगड़ने वाली है. अफ्रीकी देशों जैसे कांगो, नाम्बिया, मोजांबिक, घाना आदि देशों में पानी पर खर्च सकल घरेलू उत्पाद जीडीपी के पांच फीसदी से भी ज़्यादा है. विशेषज्ञों का अनुमान है कि आने वाले सालों में इस खर्च में भारी बढ़ोतरी होगी. इससे सा़फ है कि पानी का संकट किस तरह महासंकट में बदलता जा रहा है. जल संकट बढ़ने से एक समस्या लोगों के विस्थापन के रूप में भी सामने आएगी. चूंकि कई क्षेत्रों में पानी लगभग पूरी तरह से खत्म हो जाएगा, ऐसे में लोग उन क्षेत्रों में जाएंगे, जहां पानी उपलब्ध होगा. संयुक्त राष्ट्र के अनुसार अगले तीन-चार वर्षों में 70 करोड़ लोगों को अपने क्षेत्रों से विस्थापित होना होगा. विस्थापन का एक दुष्प्रभाव यह भी होगा कि विस्थापित लोग जिन क्षेत्रों में जाएंगे, वहां आर्थिक एवं सामाजिक समस्याएं पैदा होंगी. यहां तक कि स्थाई निवासियों और विस्थापितों के बीच पानी को लेकर संघर्ष भी होगा. जिन देशों में विस्थापित जाएंगे, वहां की अर्थव्यवस्था पर भी अतिरिक्त भार बढ़ जाएगा. आने वाले वर्षों में पानी को लेकर संघर्ष बढ़ना तय माना जा रहा है. स्तंभकार स्टीवन सोलोमन ने अपनी किताब वाटर में नील नदी के जल संसाधन को लेकर मिस्र एवं इथियोपिया के बीच विवाद का खासतौर पर उल्लेख करते हुए लिखा है कि दुनिया के सबसे विस्फोटक क्षेत्र पश्चिम एशिया में अगली लड़ाई पानी को लेकर ही होगी. इस क्षेत्र में इजरायल, फलस्तीन, जॉर्डन एवं सीरिया में दुर्लभ जल संसाधनों पर नियंत्रण को लेकर गहरी बेचैनी है जो युद्ध के रूप में सामने आ सकती है. इस तरह पानी को लेकर तीसरे विश्व युद्ध की बात हक़ीक़त बन सकती है. आने वाले सालों में पानी की मांग और आपूर्ति में अंतर लगातार बढ़ता जाएगा. अगर भारत का ही उदाहरण लें तो अभी पानी की कुल मांग 700 क्यूबिक किलोमीटर है, जबकि उपलब्ध पानी 550 क्यूबिक किलोमीटर है. 2050 में मांग क़रीब दुगुनी हो जाएगी, जबकि उपलब्धता 10 गुना से भी कम रह जाएगी. पानी की मांग में इज़ा़फा जनसंख्या में बढ़ोतरी की तुलना में कहीं तेज़ी से होगा. वर्ष 1900 और 1995 के बीच यही हुआ. इस दौरान दुनिया की आबादी तीन गुना बढ़ी, लेकिन पानी की खपत छह गुना से भी अधिक हो गई. यूएन वाटर के 2025 तक के अनुमान कहते हैं कि विकासशील देशों में पानी का दोहन 50 फीसदी और विकसित देशों में 18 फीसदी बढ़ेगा. अफगानिस्तान में स्थिति और भी बदतर है. संयुक्त राष्ट्र ने आगाह किया है कि पानी की कमी की वजह से 25 लाख से भी अधिक अफगानियों के अस्तित्व पर खतरा मंडरा रहा है. देश में 36 लाख से ज़्यादा कुएं सूख चुके हैं और इस वजह से पानी आपूर्ति में 83 फीसदी तक की कमी आई है.
ओ गंगा बहती हो क्यों
गंगा प्रतीक है एक सभ्यता की, हिमालय से लेकर बंगाल की खाड़ी तक. इसी से मिलकर बनती है गंगा-जमुनी संस्कृति. करोड़ों लोगों के जीवन की आशा है गंगा. उनकी रोजी और रोटी का सहारा भी है गंगा. लाखों वर्ग किलोमीटर खेतों की प्यास भी बुझाती है गंगा. लेकिन अब गंगा का पानी पीने तो दूर, नहाने लायक़ भी नहीं रहा. हज़ारों साल से जीवनदायिनी साबित होती आ रही गंगा का पानी अब सिंचाई के योग्य भी नहीं बचा. कन्नौज से लेकर कानपुर, इलाहाबाद और बनारस तक गंगा के पानी में जहां ऑक्सीजन की मात्रा घटती जा रही है, वहीं खतरनाक रसायनों की मात्रा बढ़ती जा रही है. बड़े-बड़े बांध और गंगा के किनारे बसे चमड़ा एवं रासायनिक कल-कारखानों से निकलने वाला कचरा गंगा के अमृत जैसे पानी को ज़हर बना चुका है. स़फाई के नाम पर चल रही योजनाओं ने भी गंगा को मैली बनाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी. 1985 में राजीव गांधी के प्रधानमंत्री रहते हुए गंगा एक्शन प्लान शुरू किया गया था. हज़ारों करोड़ रुपये की योजनाएं बनाई गईं.
हम जिस तेज़ गति से स्खलित और प्रदूषित होते गए, मां गंगा को भी उसी रफ़्तार से अपवित्र करते चले गए. गंगा का जो पानी शुद्धता का मानक हुआ करता था, आज सड़ चुका है. पीने की बात तो दूर रही, वह नहाने लायक़ भी नहीं रहा. गंगा के पानी में ऑक्सीजन की मात्रा लगातार कम हो रही है. गंगा एक्शन प्लान नाकाम है और सरकार खामोश…
पिछले 25 सालों के दौरान गंगा एक्शन प्लान का क्या असर रहा, यही जानने के लिए चौथी दुनिया ने गंगा एक्शन प्लान और गंगाजल में ऑक्सीजन की घटती मात्रा के संबंध में जांच-पड़ताल की. वन एवं पर्यावरण मंत्रालय की ओर से उपलब्ध कराए गए दस्तावेज़ों से मालूम हुआ कि स़िर्फ 2005-2007 के दौरान गंगा की स़फाई के नाम पर 1600 करोड़ रुपये से ज़्यादा खर्च किए गए. गंगा एक्शन प्लान का पहला चरण 31 मार्च 2000 को समाप्त हो गया था, जिसमें 452 करोड़ रुपये खर्च हुए थे. चौथी दुनिया के पास उपलब्ध दस्तावेज़ में वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने यह माना है कि गंगा एक्शन प्लान-1 अपने मक़सद में सफल नहीं हो सका, इसलिए 1993 में ही गंगा एक्शन प्लान-2 शुरू किया गया. बावजूद इसके गंगा अब पहले से भी ज़्यादा प्रदूषित हो गई. ऐसे में इस आशंका को बल मिलता है कि गंगा एक्शन प्लान के नाम पर कहीं आम आदमी की गाढ़ी कमाई की बंदरबांट तो नहीं हो रही है. हरिद्वार से जैसे ही गंगा आगे बढ़ती है, इसके पानी में ऑक्सीजन की मात्रा घटनी शुरू हो जाती है. कन्नौज, कानपुर, इलाहाबाद और बनारस तक पहुंचते-पहुंचते गंगा की हालत यह हो जाती है कि इसका पानी पीने तो दूर, नहाने लायक़ भी नहीं रह जाता. बायोकेमिकल ऑक्सीजन डिमांड (बीओडी) एक जांच प्रक्रिया है, जिससे पानी की गुणवत्ता और उसमें ऑक्सीजन की मात्रा का पता चलता है. गंगाजल के बीओडी जांच के मुताबिक़, कन्नौज, कानपुर, इलाहाबाद और बनारस में बीओडी की मात्रा 3.20 मिलीग्राम/लीटर से लेकर 16.5 मिलीग्राम/लीटर तक है, जबकि यह मात्रा 3.0 मिलीग्राम/लीटर से थोड़ी भी ज़्यादा नहीं होनी चाहिए. इसी तरह इन जगहों पर गंगाजल में ऑक्सीजन भी तय मात्रा से कम है. इसका अर्थ है कि उपरोक्त जगहों पर गंगास्नान आपके जीवन के लिए खतरनाक साबित हो सकता है. गंगा की शुद्धि के नाम पर हज़ारों करोड़ रुपये बहा दिए गए, लेकिन गंगा की हालत जैसी 1985 में थी, वैसी अब भी है. ज़ाहिर है, उक्त हज़ारों करोड़ रुपये ठेकेदारों, अफसरों और नेताओं की जेब में चले गए.
कन्नौज एवं कानपुर में काली नदी और रामगंगा सीवेज के माध्यम से आने वाला कचरा गंगाजल को ज़हरीला बना रहा है. अकेले कानपुर में 78 से ज़्यादा ऐसे चमड़ा उद्योग हैं, जो प्रदूषण नियंत्रण निर्देशों का पालन नहीं करते और रोज़ाना हज़ारों लीटर कचरा गंगा में बहा देते हैं. बनारस में सीवेज, अधजली लाशें या मृत शरीर बहाए जाने से भी गंगाजल अपनी स्वच्छता और निर्मलता खोता जा रहा है. आंकड़ों के मुताबिक़, स़िर्फ बनारस में ही 40 करोड़ लीटर सीवर का गंदा (मल-जल) पानी गंगा में प्रतिदिन डाला जाता है. पूरे देश की अगर बात करें तो गंगा में प्रतिदिन 2 करोड़ 90 लाख लीटर प्रदूषित कचरा गिर रहा है. एक रिपोर्ट के मुताबिक़, उत्तर प्रदेश में 12 फीसदी बीमारियों की वजह स़िर्फ गंगा का पानी है. वाराणसी में अभी गंगा नदी के अलग-अलग घाटों में फीकल कोलिफार्म की संख्या 4 लाख 90 हज़ार से लेकर 21 लाख तक है. फीकल कोलिफार्म की संख्या से पता चलता है कि पानी में हानिकारक सूक्ष्म जीवाणुओं की बड़ी संख्या मौजूद है. नतीजतन, अब गंगा का स्वरूप जीवनदायिनी नहीं रहा, बल्कि यह रोगों को जन्म देने वाली हो गई है.
गंगा करोड़ों भारतीयों की आस्था की प्रतीक भी है, सो इस पर राजनीति न हो, यह संभव नहीं. 2009 में होने वाले आम चुनाव से कुछ महीने पहले यूपीए सरकार ने गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित कर दिया. साथ ही गंगा को प्रदूषण मुक्त बनाने के लिए प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में गंगा बेसिन प्राधिकरण की स्थापना की घोषणा की गई. ज़ाहिर है, यूपीए सरकार का यह भागीरथी प्रयास आम चुनाव को ध्यान में रखकर किया गया था. गंगा सदियों से भारत के करोड़ों हिंदुओं के लिए एक पवित्र नदी रही है. सो इस घोषणा के पीछे का मक़सद भी हिंदू वोटरों को लुभाना ही था. गंगा नदी को बचाने के लिए सालों से आंदोलन चल रहे हैं. गंगा पर बांध बनाए जाने का भी लोग विरोध कर रहे थे, तब यूपीए सरकार ने कोई क़दम नहीं उठाया. 1985 में राजीव गांधी द्वारा शुरू की गई गंगा कार्य योजना को सोनिया गांधी और उनकी सरकार शायद भूल चुकी हैं. लेकिन सवाल यह है कि क्या स़िर्फ योजना या प्राधिकरण बनाकर गंगा को बचाया जा सकता है? पिछले 25 सालों में तो ऐसा संभव नहीं हो सका. ज़ाहिर है, इसके लिए एक ईमानदार प्रयास की ज़रूरत है, जिसका अभाव अब तक दिख रहा है. फिर भी गंगा को किसी भी हालत में बचाना ही होगा, क्योंकि अगर गंगा खत्म होगी तो हम कहां बचेंगे!
- गंगाजल न पीने, न नहाने लायक़
- पानी में कम हो रही है ऑक्सीजन की मात्रा
- बीओडी 3.20 से16.5 मि/ली तक
- बीओडी 3.0 मि/ली अधिकतम हो
- महज़ दो साल में 1600 करो़ड खर्च
- पूरे देश में रोज़ 3 करो़ड लीटर कचरा गंगा में
- कानपुर में 78 से ज़्यादा चम़डा उद्योग
- इनसे रोज़ाना हज़ारों लीटर कचरा गंगा में
- बनारस में 40 करोड़ ली. सीवर का पानी गंगा में
- 12 फीसदी बीमारियों की वजह गंगाजल