Thursday, 3 February 2011

ओ गंगा बहती हो क्‍यों


गंगा प्रतीक है एक सभ्यता की, हिमालय से लेकर बंगाल की खाड़ी तक. इसी से मिलकर बनती है गंगा-जमुनी संस्कृति. करोड़ों लोगों के जीवन की आशा है गंगा. उनकी रोजी और रोटी का सहारा भी है गंगा. लाखों वर्ग किलोमीटर खेतों की प्यास भी बुझाती है गंगा. लेकिन अब गंगा का पानी पीने तो दूर, नहाने लायक़ भी नहीं रहा. हज़ारों साल से जीवनदायिनी साबित होती आ रही गंगा का पानी अब सिंचाई के योग्य भी नहीं बचा. कन्नौज से लेकर कानपुर, इलाहाबाद और बनारस तक गंगा के पानी में जहां ऑक्सीजन की मात्रा घटती जा रही है, वहीं खतरनाक रसायनों की मात्रा बढ़ती जा रही है. बड़े-बड़े बांध और गंगा के किनारे बसे चमड़ा एवं रासायनिक कल-कारखानों से निकलने वाला कचरा गंगा के अमृत जैसे पानी को ज़हर बना चुका है. स़फाई के नाम पर चल रही योजनाओं ने भी गंगा को मैली बनाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी. 1985 में राजीव गांधी के प्रधानमंत्री रहते हुए गंगा एक्शन प्लान शुरू किया गया था. हज़ारों करोड़ रुपये की योजनाएं बनाई गईं.

हम जिस तेज़ गति से स्खलित और प्रदूषित होते गए, मां गंगा को भी उसी रफ़्तार से अपवित्र करते चले गए. गंगा का जो पानी शुद्धता का मानक हुआ करता था, आज सड़ चुका है. पीने की बात तो दूर रही, वह नहाने लायक़ भी नहीं रहा. गंगा के पानी में ऑक्सीजन की मात्रा लगातार कम हो रही है. गंगा एक्शन प्लान नाकाम है और सरकार खामोश…

पिछले 25 सालों के दौरान गंगा एक्शन प्लान का क्या असर रहा, यही जानने के लिए चौथी दुनिया ने गंगा एक्शन प्लान और गंगाजल में ऑक्सीजन की घटती मात्रा के संबंध में जांच-पड़ताल की. वन एवं पर्यावरण मंत्रालय की ओर से उपलब्ध कराए गए दस्तावेज़ों से मालूम हुआ कि स़िर्फ 2005-2007 के दौरान गंगा की स़फाई के नाम पर 1600 करोड़ रुपये से ज़्यादा खर्च किए गए. गंगा एक्शन प्लान का पहला चरण 31 मार्च 2000 को समाप्त हो गया था, जिसमें 452 करोड़ रुपये खर्च हुए थे. चौथी दुनिया के पास उपलब्ध दस्तावेज़ में वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने यह माना है कि गंगा एक्शन प्लान-1 अपने मक़सद में सफल नहीं हो सका, इसलिए 1993 में ही गंगा एक्शन प्लान-2 शुरू किया गया. बावजूद इसके गंगा अब पहले से भी ज़्यादा प्रदूषित हो गई. ऐसे में इस आशंका को बल मिलता है कि गंगा एक्शन प्लान के नाम पर कहीं आम आदमी की गाढ़ी कमाई की बंदरबांट तो नहीं हो रही है. हरिद्वार से जैसे ही गंगा आगे बढ़ती है, इसके पानी में ऑक्सीजन की मात्रा घटनी शुरू हो जाती है. कन्नौज, कानपुर, इलाहाबाद और बनारस तक पहुंचते-पहुंचते गंगा की हालत यह हो जाती है कि इसका पानी पीने तो दूर, नहाने लायक़ भी नहीं रह जाता. बायोकेमिकल ऑक्सीजन डिमांड (बीओडी) एक जांच प्रक्रिया है, जिससे पानी की गुणवत्ता और उसमें ऑक्सीजन की मात्रा का पता चलता है. गंगाजल के बीओडी जांच के मुताबिक़, कन्नौज, कानपुर, इलाहाबाद और बनारस में बीओडी की मात्रा 3.20 मिलीग्राम/लीटर से लेकर 16.5 मिलीग्राम/लीटर तक है, जबकि यह मात्रा 3.0 मिलीग्राम/लीटर से थोड़ी भी ज़्यादा नहीं होनी चाहिए. इसी तरह इन जगहों पर गंगाजल में ऑक्सीजन भी तय मात्रा से कम है. इसका अर्थ है कि उपरोक्त जगहों पर गंगास्नान आपके जीवन के लिए खतरनाक साबित हो सकता है. गंगा की शुद्धि के नाम पर हज़ारों करोड़ रुपये बहा दिए गए, लेकिन गंगा की हालत जैसी 1985 में थी, वैसी अब भी है. ज़ाहिर है, उक्त हज़ारों करोड़ रुपये ठेकेदारों, अफसरों और नेताओं की जेब में चले गए.

कन्नौज एवं कानपुर में काली नदी और रामगंगा सीवेज के माध्यम से आने वाला कचरा गंगाजल को ज़हरीला बना रहा है. अकेले कानपुर में 78 से ज़्यादा ऐसे चमड़ा उद्योग हैं, जो प्रदूषण नियंत्रण निर्देशों का पालन नहीं करते और रोज़ाना हज़ारों लीटर कचरा गंगा में बहा देते हैं. बनारस में सीवेज, अधजली लाशें या मृत शरीर बहाए जाने से भी गंगाजल अपनी स्वच्छता और निर्मलता खोता जा रहा है. आंकड़ों के मुताबिक़, स़िर्फ बनारस में ही 40 करोड़ लीटर सीवर का गंदा (मल-जल) पानी गंगा में प्रतिदिन डाला जाता है. पूरे देश की अगर बात करें तो गंगा में प्रतिदिन 2 करोड़ 90 लाख लीटर प्रदूषित कचरा गिर रहा है. एक रिपोर्ट के मुताबिक़, उत्तर प्रदेश में 12 फीसदी बीमारियों की वजह स़िर्फ गंगा का पानी है. वाराणसी में अभी गंगा नदी के अलग-अलग घाटों में फीकल कोलिफार्म की संख्या 4 लाख 90 हज़ार से लेकर 21 लाख तक है. फीकल कोलिफार्म की संख्या से पता चलता है कि पानी में हानिकारक सूक्ष्म जीवाणुओं की बड़ी संख्या मौजूद है. नतीजतन, अब गंगा का स्वरूप जीवनदायिनी नहीं रहा, बल्कि यह रोगों को जन्म देने वाली हो गई है.

गंगा करोड़ों भारतीयों की आस्था की प्रतीक भी है, सो इस पर राजनीति न हो, यह संभव नहीं. 2009 में होने वाले आम चुनाव से कुछ महीने पहले यूपीए सरकार ने गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित कर दिया. साथ ही गंगा को प्रदूषण मुक्त बनाने के लिए प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में गंगा बेसिन प्राधिकरण की स्थापना की घोषणा की गई. ज़ाहिर है, यूपीए सरकार का यह भागीरथी प्रयास आम चुनाव को ध्यान में रखकर किया गया था. गंगा सदियों से भारत के करोड़ों हिंदुओं के लिए एक पवित्र नदी रही है. सो इस घोषणा के पीछे का मक़सद भी हिंदू वोटरों को लुभाना ही था. गंगा नदी को बचाने के लिए सालों से आंदोलन चल रहे हैं. गंगा पर बांध बनाए जाने का भी लोग विरोध कर रहे थे, तब यूपीए सरकार ने कोई क़दम नहीं उठाया. 1985 में राजीव गांधी द्वारा शुरू की गई गंगा कार्य योजना को सोनिया गांधी और उनकी सरकार शायद भूल चुकी हैं. लेकिन सवाल यह है कि क्या स़िर्फ योजना या प्राधिकरण बनाकर गंगा को बचाया जा सकता है? पिछले 25 सालों में तो ऐसा संभव नहीं हो सका. ज़ाहिर है, इसके लिए एक ईमानदार प्रयास की ज़रूरत है, जिसका अभाव अब तक दिख रहा है. फिर भी गंगा को किसी भी हालत में बचाना ही होगा, क्योंकि अगर गंगा खत्म होगी तो हम कहां बचेंगे!

  • गंगाजल न पीने, न नहाने लायक़
  • पानी में कम हो रही है ऑक्सीजन की मात्रा
  • बीओडी 3.20 से16.5 मि/ली तक
  • बीओडी 3.0 मि/ली अधिकतम हो
  • महज़ दो साल में 1600 करो़ड खर्च
  • पूरे देश में रोज़ 3 करो़ड लीटर कचरा गंगा में
  • कानपुर में 78 से ज़्यादा चम़डा उद्योग
  • इनसे रोज़ाना हज़ारों लीटर कचरा गंगा में
  • बनारस में 40 करोड़ ली. सीवर का पानी गंगा में
  • 12 फीसदी बीमारियों की वजह गंगाजल

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