Wednesday, 23 March 2011

प्रति व्यक्ति पानी खपत कम करने पर जोर

वाराणसी : वर्ष 2010 से 2030 के बीच पीने योग्य पानी की विकट समस्या खड़ी होने वाली है, क्योंकि इस दौरान एशिया एवं अफ्रीका की जनसंख्या दोगुनी हो जाएगी। इसका सर्वाधिक प्रभाव शहरी क्षेत्रों में पड़ेगा। कारण यह है कि आधी से अधिक जनसंख्या शहर में ही प्रवास करेगी। इस जनसंख्या के 38 फीसदी लोगों का प्रवास झुग्गी झोपडि़यों में होगा। बीएचयू स्थित प्रौद्योगिकी संस्थान के सिविल इंजीनियरिंग विभाग में विश्व जल दिवस पर मंगलवार को शहरों में जल समस्या पर आयोजित संगोष्ठी में उक्त विचार उभरकर आए। वक्ताओं का कहना रहा कि यदि समय रहते चेता नहीं गया तो आने वाले दिनों में जल की झलक पाने को लोग तरस जाएंगे। इस समस्या का हल बिना जन सहयोग के संभव नहीं होगा। इसके लिए प्रति व्यक्ति पानी की खपत की दर में कम करने की कोशिश की जाए। वर्तमान में 140 लीटर प्रति व्यक्ति पानी की खपत है। विकसित देशों में इस ओर प्रयास अभी से शुरू हो चुके हैं। पीने योग्य जल के अलावा अन्य आवश्यकताओं के लिए विकसित देशों में व्यर्थ पानी को रिसाइकिल कर प्रयोग में लाया जा रहा है। हमें भी इस पर विचार करना होगा।

.................तो क्या सूख जाएंगी गंगा ?

देवि सुरेश्वरी भगवती गंगे, त्रिभुवन तारिणी तरल तरंगे। आदि शंकराचार्य द्वारा रचित यह पंक्तियां यह बताने के लिए पर्याप्त हैं गंगा का पृथ्वी पर अवतरण विश्व को तारने व जन्म जन्मांतर के बंधनों से मुक्ति दिलाने के लिए हुआ था। इसी वजह से वह देव नदी कहलाई। यह देव नदी अब सूखने के कगार पर है। कम से कम पूर्वाचल के हालात तो यही हैं। पूर्वाचल की शुरुआत से लेकर अंत तक गंगा का जलस्तर हर स्थान पर लगातार तेजी से घट रहा है। अकेले वाराणसी में गंगा के स्तर में एक साल में ढाई फीट से अधिक की कमी आ चुकी है। जल स्तर घटने की यह रफ्तार हर साल बढ़ती जा रही है। गंगा का पृथ्वी पर अवतरण दैवीय उद्देश्यों के लिए हुआ था। इसके जल को अमृत मान कर काफी विवेक से इस्तेमाल की परंपरा रही है। अब स्थिति बदल गई है। इस समय इसका उपयोग किसी आम जल की तरह बिजली बनाने व सिंचाई करने में ही हो रहा है। टिहरी समेत दर्जनों बड़े छोटे बांध हर स्तर पर इसके प्रवाह को रोके पड़े हैं। बांधों से बने सरोवरों में इसकी समस्त जलराशि रुक जाने के चलते मैदानी ही नहीं अधिकांश पहाड़ी इलाकों में इसमें पानी की खासी किल्लत हो गई है। कभी साल भर पूरे पाट बहने वाली यह नदी अब बारिश में भी अपने पाट के दोनों किनारे नहीं छू पा रही है। खुद केन्द्रीय जल आयोग के आंकड़ों की मानें तो गंगा के जल स्तर में हर साल गिरावट आ रही है। इतना ही नहीं, जलस्तर घटने की रफ्तार हर साल बढ़ती जा रही है। वर्ष 2009-10 में एक फीट तो 10-11 में दो से ढाई फीट तक जलस्तर गिर गया। पूर्वाचल के मुहाने पर स्थित इलाहाबाद का उदाहरण लें तो यहां फाफामऊ में गंगा का जलस्तर 15 मार्च 2009 में 76.290 मीटर था। 2010 में 15 मार्च को यह जलस्तर 76.180 मीटर रह गया। इलाहाबाद में यमुना से मिलने के बाद भी गंगा की स्थिति में कोई विशेष बदलाव नहीं आ रहा है। इलाहाबाद स्थित छतनाग में 15 मार्च वर्ष 2009 में 71.400 मीटर जल था। 15 मार्च 2010 को यह घट कर 71.065 रह गया। वाराणसी के राजघाट से लेकर गाजीपुर तक घटने की यह रफ्तार इसी गति से जारी है। केन्द्रीय जल आयोग के आंकड़ों के अनुसार गाजीपुर में 15 मार्च 2009 को 52.425 मीटर जल था। 15 मार्च 2010 को यह घट कर 51.840 रह गया। विशेषज्ञों की माने तो यही स्थिति रही तो वह दिन दूर नहीं जब गंगा नदारद हो जाएंगी। गंगा का जलस्तर गोपनीय! करोड़ों की श्रद्धा का केन्द्र मां गंगा के साथ खासा खिलवाड़ किया जा रहा है। इसमें कोई व्यवधान न खड़ा हो, इसके लिए सभी संभव सावधानियां बरती जा रही हैं। मां गंगा में कितना जल है, यह भी सीधे नहीं जाना जा सकता। केन्द्रीय जल आयोग के अधिकारियों की माने तो यह अति गोपनीय है। बाढ़ के समय केन्द्र सरकार के आदेश पर ही जलस्तर सार्वजनिक किया जाता है। अन्य मौसम में यह नहीं बताया जा सकता। वैसे इस गोपनीयता के बीच आंकड़ों के साथ कितना खिलवाड़ हो रहा होगा, अंदाजा लगाया जा सकता है। केन्द्रीय जल मंत्री के आने की सूचना मिलने के बाद लिए गए जल स्तर के आंकड़े इस बात की खुद गवाही दे रहे हैं। अचानक इलाहाबाद तक के सभी स्थानों पर जलस्तर पिछले साल की तुलना में बढ़ गया जबकि वाराणसी में मंत्री के आने की तिथि निर्धारित न होने के चलते ऐसा नहीं हुआ।

Tuesday, 22 March 2011

यह सच है कि जल ही जीवन

मंगलवार को विश्व जल दिवस है। हर साल यह दिन स्वच्छ पानी के प्रति लोगों में जागरूकता बढ़ाने के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मनाया जाता है। पानी के महत्व का अहसास प्यास लगने पर ही होता है। पानी का कोई विकल्प नहीं है। इसकी एक-एक बूंद अमृत है। दूसरी ओर शहरों की बढ़ती जनसंख्या ने पानी की समस्या को और भी विकराल कर दिया है। न्यूनतम 140 लीटर प्रति व्यक्ति पानी की जरूरत पड़ती है लेकिन एशिया में 25 फीसदी लोगों की न्यूनतम पानी की आवश्यकता की भी पूर्ति नहीं हो पाती है। कंक्रीट के जंगल (शहरीकरण) में पानी जमीन के अंदर न जाकर बह जाता है। रास्ते में यह अपने साथ हमारे द्वारा बिखेरे खतरनाक रसायनों, तेल, ग्रीस, कीटनाशकों एवं उर्वरकों जैसे कई प्रदूषक तत्वों को ले जाकर पूरे जलFोत को प्रदूषित कर देता है। इसलिए संभव हो तो छिद्रित फर्श बनाए जा सकते हैं।

विश्व जल दिवस 22 मार्च 2011 पर संयुक्त राष्ट्र महासचिव बान की मून का संदेश

संसार इस समय जहां अधिक टिकाऊ भविष्य के निर्माण में व्यस्त हैं वहीं पानी, खाद्य तथा ऊर्जा की पारस्परिक निर्भरता की चुनौतियों का सामना हमें करना पड़ रहा है। जल के बिना न तो हमारी प्रतिष्ठा बनती है और न गरीबी से हम छुटकारा पा सकते हैं। फिर भी शुद्ध पानी तक पहुंच और सैनिटेशन यानी साफ-सफाई, संबंधी सहस्त्राब्दी विकास लक्ष्य तक पहुंचने में बहुतेरे देश अभी पीछे हैं।

एक पीढ़ी से कुछ अधिक समय में दुनिया की आबादी के 60 प्रतिशत लोग कस्बों और शहरों में रहने लगेंगे और इसमें सबसे अधिक बढ़ोतरी विकासशील संसार में शहरों के अंदर उभरी मलिन बस्तियों तथा झोपड़-पट्टियों के रूप में होगी। इस वर्ष के विश्व जल दिवस का विषय “शहरों के लिए पानी” –शहरीकरण की प्रमुख भावी चुनौतियों को उजागर करता है।

शहरीकरण के कारण अधिक सक्षम जल प्रबंधन तथा समुन्नत पेय जल और सैनिटेशन की जरूरत पड़ेगी। इसके साथ ही शहरों में अक्सर समस्याएं विकराल रूप धारण कर लेती हैं, और इस समय तो समस्याओं का हल निकालने में हमारी क्षमताएं बहुत कमजोर पड़ रही हैं।

जिन लोगों के घरों या नजदीक के किसी स्थान में पानी का नल उपलब्ध नहीं है ऐसे शहरी बाशिंदों की संख्या पिछले दस वर्षों के दौरान लगभग ग्यारह करोड़ चालीस लाख तक पहुंच गई है, और साफ-सफाई की सुविधाओं से वंचित लोगों की तादाद तेरह करोड़ 40 लाख बतायी जाती है। बीस प्रतिशत की इस बढ़ोतरी का हानिकारक असर लोगों के स्वास्थ्य और आर्थिक उत्पादकता पर पड़ा हैः लोग बीमार होने के कारण काम नहीं कर सकते।

पानी संबंधी चुनौतियां पहुंच से भी आगे बढ़ चुकी हैं। अनेक देशों में साफ-सफाई की सुविधाओं में कमी के कारण लड़कियों को स्कूल छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ता है, और पनघट से पानी लाते समय या सार्वजनिक शौचालयों को जाते या आते हुए औरतों को परेशान किया जाता है। इसके अलावा, समाज के अत्यधिक गरीब और कमजोर वर्ग के सदस्यों को अनौपचारिक विक्रेताओं से अपने घरों में पाइप की सुविधा प्राप्त अमीर लोगों के मुकाबले 20 से 100 प्रतिशत अधिक मूल्य पर पानी खरीदने पर मजबूर होना पड़ता है। यह तो बड़ा अन्याय है। रियो डि जेनेरियोन में सन 2012 में होने वाले संयुक्त राष्ट्र टिकाऊ विकास सम्मेलन में पानी का मसला उठाया जायेगा। गरीबी तथा असमानता घटाने, रोजगारों की रचना करने, तथा जलवायु परिवर्तन और पर्यावरण से उत्पन्न दबावों से होने वाले खतरों को कम करने के उद्देश्य से मेरा वैश्विक टिकाऊपन और यूएन-वॉटर पैनेल यह जांच कर रहा है कि पानी, ऊर्जा और खाद्य सुरक्षा की समस्याओं को आपस में जोड़ने के लिए क्या रास्ते निकाले जाएं।

इस विश्व दिवस पर मैं सरकारों से अनुरोध करता हूं कि शहरी जल संकट के बारे में वे यह मानकर चलें कि पानी की किल्लत जैसी कोई समस्या नहीं है, समस्या केवल चुस्त प्रशासन, लचर नीतियों और ढीले प्रबंधन की है। आइये, हम प्रतिज्ञा करें कि निवेश की भारी कमी को दूर करेंगे, और यह संकल्प भी ले कि प्रचुरता से सम्पन्न इस संसार में 80 करोड़ से भी अधिक लोग स्वस्थ और सम्मानपूर्वक रूप से जीने के लिए अब भी शुद्ध और सुरक्षित जल एवं साफ-सफाई के लिए तरस रहे हैं।

क्यों फेंके जाते हैं नदियों में सिक्के

अक्सर आपने देखा होगा कि जब बड़े-बुजुर्गो के साथ यात्रा कर रहे होते हैं तो रास्ते में किसी पौराणिक नदी के पड़ने पर वे उसे नमन करने के साथ ही परंपरा अनुसार नदी में सिक्के फेंकते हैं। अक्सर यह सवाल उठता है कि लोग नदी में सिक्के क्यों फेंकते हैं, यह परंपरा क्यों है और उसका क्या प्रभाव होता है। इसके पीछे कई कारण हैं। सभी धर्मो में दान-पुण्य मुख्य कर्म माना गया है। शास्त्रों के अनुसार दान करना पुनीत कार्य है। दान के महत्व को ध्यान में रखते हुए हमारे पूर्वजों ने कई नियम बनाए थे। भारत में भी अनेकों परंपराएं ऐसी हैं जिन्हें लोग अंधविश्वास मानते है तो कुछ उनको निभाने में अपना सर्वस्व न्योछावर कर देते हैं। ऐसी ही एक परंपरा है नदी में सिक्के डालना। दरअसल हमारे पूर्वज प्रकृति व उसके द्वारा उपहार में दी गई चीजों की पूजा करते थे। मसलन आग, हवा, पानी, पेड़-पौधे, सूर्य व चांद। पौराणिक नदियों को हमारे यहां देवी का मान दिया गया है। प्राचीन काल में चांदी व तांबे के सिक्कों का प्रचलन हुआ करता था। नदियों में स्नान-पूजन के बाद श्रद्धालु उसमें दान स्वरूप चांदी-तांबे के सिक्के डालते थे। नदियों के किनारे रहने वाले गरीब बच्चे उन्हें एकत्र करते थे। ज्योतिष विज्ञान के अनुसार बहते पानी में चांदी का सिक्का डालने से चंद्रदोष का प्रभाव समाप्त होता है। यानि दान पुण्य के साथ ही दोष का भी अंत। अब जरा इसके दूसरे पहलू पर भी नजर डालिए। सभी जानते हैं कि तांबा व चांदी में जल को शुद्ध करने के तमाम गुण मौजूद हैं। नदियों की तलहटी में जमा रहने वाले चांदी-तांबा के सिक्के पानी के शुद्धीकरण का कार्य करते थे। समय बदला तो प्राचीन काल में चलने वाले सिक्के भी बदल गए। वर्तमान में भारत में गिलट के सिक्कों का प्रचलन है जो मिश्रित धातुओं का आकार है। उनमें ऐसा कोई खास गुण नहीं है जो जल के शुद्धीकरण में महती भूमिका निभा सके। अधिकतर बड़े बुजुर्ग अभी भी परंपरा को निभाते हुए मजबूरीवश प्रचलित सिक्के फेंकते हैं। कुछ दिनों पूर्व ही एक रिपोर्ट आई थी कि गंगा के पानी में आक्सीजन की मात्रा मानक से बहुत कम रह गई है। कुछ तटवर्ती इलाकों में अब गंगा का जल आचमन योग्य भी नहीं रह गया है। ऐसे में हम अगर एकजुट होकर अपनी परंपराओं का सहारा लें तो गंगाजल के शुद्धीकरण में अपनी भूमिका का निर्वहन कर सकते हैं। सिक्का न सही, धातु ही सही।

Wednesday, 2 March 2011

हर बरस एक मीटर नीचे

वाराणसी, जल ही जीवन है। इसके बिना आम आदमी ही नहीं पशु-पक्षी की जिंदगी के साथ हरे-भरे पेड़-पौधे की कल्पना करना भी बेमानी है। ऐसे में खासकर शहरी इलाके में पानी का स्तर हर साल एक मीटर नीचे भाग रहा है। आलम यह है कि नगर क्षेत्र में हैंडपंप जवाब देने लगे हैं। वहीं कूपों का पानी भी सतह पकड़ने लगा है जबकि गर्मी अभी आने को बाकी है। नगर क्षेत्र में भूजल की मापी के लिए 46 जगहों पर लगाए गए यंत्रों के जरिए बरसात के पहले और बाद की स्थिति में तेजी से बदलाव आने के संकेत मिले हैं। पिछले तीन साल के आंकड़ों पर नजर डालें तो यह बात साफ हो जाती है कि शहरी इलाके में बरसात के पहले पानी के लेबल का अधिकतम औसत क्रमश: 17, 18 व 19 मीटर तक पहुंच चुका है। इस तरह से एक मीटर तक नीचे गिरता जल स्तर खतरे की घंटी है। भूगर्भ जल विभाग के आंकड़े खुद ही इस बात की पुष्टि करते हैं कि शहरी सीमा से सटे जगतपुर व भिटारी की स्थिति कुछ ज्यादा ही भयावह है। वर्ष 2010 की रिपोर्ट में जगतपुर में बरसात के पहले पानी की अधिकतम गहराई 27 मीटर जबकि भिटारी में 25 मीटर तक दर्ज की गई है। शहर में पानी का अधिकतम औसत 19 मीटर तक रिकार्ड किया गया है। वहीं बरसात के बाद पानी का औसत 16 मीटर तक पहुंच गया। उधर, डॉक्टर कालोनी (पाण्डेयपुर) में पानी का न्यूनतम औसत छह मीटर तथा सराय में 2.5 मीटर तक होना पाया गया है

तालाबों व कुंडों की बदहाली गंभीर मामला

वाराणसी, नगर विकास विभाग के प्रमुख सचिव आलोक रंजन ने यहां के तालाबों व कुंडों की बदहाली को गंभीर बताया है। विभागीय मंत्री के साथ सोमवार को मंडलीय समीक्षा बैठक में हिस्सा लेने के बाद वह सर्किट हाउस में मीडिया से बातचीत कर रहे थे। यह बताने पर कि वाराणसी शहर में 65 तालाब व कुंड सरकारी अभिलेख में दर्ज हैं। इन जलाशयों की स्थिति बेहद खराब है। कहीं अवैध कब्जा तो बेइंतहा गंदगी है। इस बारे में न्यायालय के स्पष्ट निर्देश हैं लेकिन उनका पालन नहीं हो रहा है। इस पर प्रमुख सचिव ने कहा, ऐसा है तो बेहद गंभीर बात है। वह इसे खुद देखेंगे। गंगा में 18 नालों से गिर रहे कचरे के बारे में सवाल उठा तो रंजन ने बताया कि सर्वोच्च न्यायालय का आदेश है कि नालों के ऊपर जाली लगाई जाए ताकि गंदगी सीधे गंगा में न गिरे। यहां इसका पालन नहीं होने की आज जानकारी मिल रही है। इस बारे में नगर निगम प्रशासन से पूछताछ की जाएगी। फिर जो भी जिम्मेदार होगा उसे दंड मिलेगा। नगर निगम में तैनात कर्मचारियों से उनके मूल पद के विपरीत काम लेने संबंधी सवाल से किनारा काट लिया। प्रमुख सचिव ने बताया कि मलिन बस्तियों समेत शहर की सड़कों व गलियों की मुकम्मल सफाई मंडलीय समीक्षा का मुख्य एजेंडा है। समीक्षा का शुरू यह दौर थमेगा नहीं वरन आगे जारी रहेगा। मलिन बस्तियों का निरीक्षण : प्रमुख सचिव ने शाम को तीन मलिन बस्तियों का निरीक्षण भी किया। इसमें बड़ी मलदहिया, दयानगर व सेनपुरा मलिन बस्ती शामिल है। मलिन बस्तियों में सफाई व्यवस्था ठीक रखने में निगम का अमला जुटा रहा। सचिव ने इन बस्तियों में विकास कार्य पूरे करने, सफाई व पेयजल आपूर्ति की कमी दूर करने के निर्देश दिए। बड़ी मलदहिया बस्ती में छतिग्रस्त सुलभ शौचालय को तत्काल दुरुस्त कराया जाए। इस दौरान अपर नगर आयुक्त सच्चिदानंद सिंह व अधिशासी अभियंता उपेंद्रनाथ त्रिपाठी समेत अन्य अधिकारी भी मौजूद थे