Wednesday, 30 May 2012

ग़ज़ल : - बनारस के घाट पर

कुछ था ज़रूर खास बनारस के घाट पर ,
धुंधला दिखा लिबास बनारस के घाट पर |

घर था हज़ार कोस मगर फ़िक्र साथ थी ,
मन हो गया उदास बनारस के घाट पर |

संज्ञा क्रिया की संधि में विचलित हुआ ये मन
गढ़ने लगा समास बनारस के घाट पर |

दुनिया के रंग देख कर हर रोज ही कबीर ,
करता है अट्टहास बनारस के घाट पर |

बदरंग हुआ जल तमाम मछलियाँ मरीं ,
किसका हुआ निवास बनारस के घाट पर |

फिर आओ भगीरथ नयी सी गंगा बुलाओ ,
गाता है रविदास बनारस के घाट पर |

जमने लगी है आरती उत्सव भी हो रहे ,
फिर से जगी है आस बनारस के घाट पर |

काशी को बम का खौफ अमाँ भूल जाईये ,
मत बोइये खटास बनारस के घाट पर |

दीना की चाट  खूब तो अख्तर की मलइयो ,
रिश्तों में है मिठास बनारस के घाट पर |

तब और अब

                                                                 तब और अब

वो अक्षत वो रोली और वो पुअरे की डोली


      संकट में पड़ी गंगा आज जब अपने बेटों को आवाज दे रही है तब गंगा अवतरण पर्व गंगा दशहरा जैसे त्योहार कहीं और ज्यादा प्रासंगिकता के साथ सामने आ खड़े होते हैं। गंगा की अविरलता के लिए चल रहे आंदोलनों में भी अगर कोई कमी शिद्दत के साथ महसूस की गई है तो वह है आत्मीय भाव के क्षरण के साथ गंगा के साथ हमारे रिश्तों का महज औपचारिक बन कर रह जाना। ख्यात साहित्यकार डा. जीतेंद्र नाथ मिश्र कहते हैं- गंगा को अगर बचाना है तो उसके साथ अपनी नातेदारी उस सहज भाव तक प्रगाढ़ करनी होगी कि मां के रूप में हम उसकी पीड़ा को अपने ही दर्द के रूप में महसूस सकें। इस के लिए गंगा दशहरा जैसे पर्व एक अवसर, एक निमित्त साबित हो सकते हैं। उनके सामने है कोई तीन दशक पहले के गंगा दशहरा पर्व की तस्वीर जिसमें गंगा दशहरा पर्व को होली दीपावली जैसी रौनक हासिल थी। पूरा शहर उस दिन उमड़ पड़ता था गंगा के घाटों की ओर। स्नान की रस्म के बाद अक्षत-और रोली से गंगा मइया का श्रृंगार और पूजन। तीर्थ पुरोहित को आम की फसल का दान। उधर घर में दालपूरी और बखीर सहित विविध पकवानों के सहभोज का आनंद मानों घर के किसी सदस्य का जन्म दिन मनाया जा रहा हो। शाम को फिर एक बार गंगा तट पर होती थी जुटान वह भी बाल-गोपाल की पूरी फौज के साथ। रस्म के मुताबिक हर बच्चे के हाथ में पुअरे (पुआल) से बनी डोली और डोली में मउरी से सजे गुड्डे-गुडि़या की जोड़ी। इस डोली को खील-बताशों और पके आम से भर कर गंगा में प्रवाहित करने की होड़। बाकायदा ढोल-नगाड़े बजाते बच्चों के जुलूस निकलते थे टोले- मुहल्लों से। शीतला मंदिर के श्री महंत आचार्य शिव प्रसाद पांडेय कहते हैं-यह सिर्फ खेलवाड़ नहीं एक प्रतीकात्मक माध्यम था गंगा के प्रति श्रद्धा और विश्वास की अभिव्यक्ति का। जिसमें छिपा होता था यह भाव कि सुरसरि मैने अपने जीवन का संपूर्ण योग-क्षेम तेरे हवाले किया। जाहिर है खेल ही खेल में कोमल भावनाओं का एक बिरवा बच्चों के मन में संस्कार के रूप में रोपित हो जाता था। वरिष्ठ पत्रकार तथा संस्कृतिकर्मी अमिताभ भट्टाचार्य के अनुसार गंगा के अखंड अस्तित्व के लिए लुप्त होते इन पर्वो और संस्कारों को जीवित रखना आज का युगधर्म है।

गंगा अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए संघर्ष कर रही है।

                         गंगा अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए संघर्ष कर रही है।

नदियां कराहती रहीं और गाल बजाते रहे हम


रवीन्द्र मिश्र वाराणसी
अर्से से हम नदियों के प्रति बहुत ही संवेदनहीन रहे हैं। फिर चाहे वह नदी भारतीय संस्कृति की जीवन रेखा मां गंगा रही हों..वरुणा या असि। हमें जीवन देने वाली ये नदियां अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए कराहती रहीं.. लेकिन हम आज तक हाथ पर हाथ धरे बैठे रहे। इसी काशी में कभी गंगा के साथ वरुणा और असि नदियां वैभव का प्रतीक हुआ करती थीं। अफसोस कि..अब असि विलुप्त हो चुकी है..। वरुणा नाले का रूप अख्तियार कर चुकी है और गंगा अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए संघर्ष कर रही है। ये वहीं नदियां हैं जो कभी एक खूबसूरत सुबह हर खासो आम को ताजगी और नई उर्जा का उपहार बांटती रहीं हैं।
 सवालों के घेरे में निगहबानी
 नाले में तब्दील हो रही गंगा की निगहबानी सवालों के घेरे में है। अकेले काशी में ही गंगा एक्शन प्लान के तहत पिछले 26 वर्षो में एक अरब से कहीं अधिक खर्च किए जा चुके हैं लेकिन गंगा में गिरने वाले लगभग 400 एमएलडी सीवर जल के विपरीत अब तक महज 100 एमएलडी सीवर जल के शोधन का ही बंदोबस्त किया जा सका है। शेष 300 एमएलडी यानी मिलियन लीटर सीवर जल रोज गंगा में प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से गिर रहा है। ऐसा भी नहीं कि शेष सीवर जल के लिए कोई प्लान बना ही नहीं लेकिन जो भी बने वे इच्छा शक्ति के अभाव में सिर्फ फाइलों तक ही सीमित हो कर रह गए। मौजूदा हाल- अवहाल : नगवा नाले से तकरीबन 70 एमएलडी, आरपीघाट पर 10 एमएलडी, राजघाट के निकट 60 एमएलडी नाले का पानी गंगा में गिरते किसी भी समय देखा जा सकता है। इतना ही नहीं तकरीबन 45 एमएलडी कल-कारखानों का दूषित जल विभिन्न घाटों पर निकलने वाले छोटे-छोटे नालों के जरिए गंगा में गिराया जा रहा है। इसे रोकने की दिशा में अब तक कोई कार्य योजना सामने नहीं आई। परिणामस्वरूप शहर व आसपास के इलाकों में बढ़ती आबादी और कल कारखानों के संजाल के चलते इन नालों की निकासी भी उसी अनुपात में बढ़ती जा रही है। इसी तरह विभिन्न नालों के जरिए वरुणा में गिरने वाले लगभग 90 एमएलडी सीवर जल परोक्ष रूप से गंगा को ही दूषित करते हैं। इससे जुड़े जानकारों की मानें तो नगवा नाले के लिए रमना में 60 एमएलडी का ट्रीटमेंट प्लांट और शहर व वरुणापार के सीवर जल की निकासी के लिए सथवां में 240 एमएलडी का ट्रीटमेंट प्लांट प्रस्तावित है। दु:खद स्थिति यह है कि ये सारे प्रस्ताव 2003 से ही शासन और प्रशासन की चौखट पर माथा टेक रहे हैं। समस्या यह भी है कि जिस समय यह प्रस्ताव बना उस समय नगर की सीवर जल की निकासी 240 एमएलडी के आसपास थी। आज सीवर जल की निकासी 400 एमएलडी पहुंच गई लेकिन प्रोजेक्ट अस्तित्व में नहीं आ सका। गंगा एक्शन प्लान के ही तहत नगर के पुराने और जर्जर हो चले ब्रिक सीवर का भार कम कर इसका जल ट्रीटमेंट प्लांट तक पहुंचाने के लिए रिलीविंग ट्रंक सीवरेज योजना भी क्रियान्वित की गई। वर्ष 2003 में शुरू हुई इस सीवरेज योजना को वर्ष 2005 में ही अंतिम रूप दे दिया जाना था लेकिन वर्ष 2012 आधा बीतने को है आज भी इसे अंतिम रूप नहीं दिया जा सका। इधर, गंगा में अवजल की मात्रा जहां बढ़ती जा रही है वहीं नदी का डिस्चार्ज (प्रवाह) घटने से काशी में गंगा सिकुड़ कर नाले का रूप अख्तियार करती जा रही हैं। लोगों का मानना है कि यदि प्रवाह बढ़ाया नहीं गया और सीवर जल की निकासी बंद नहीं की गई तो इस नदी को नाला बनने से कोई रोक नहीं सकेगा। चाहे कई लाख करोड़ रुपए क्यों न खर्च कर दिए जाएं।
 सरकारी प्रयास कमजोर 
हर कोई शिद्दत से इस सच को स्वीकारता है कि नदियों की सफाई को लेकर अब तक किए गए सरकारी प्रयास नाकाफी रहे हैं। हालांकि इस दिशा में पहल करते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने वर्ष 1985 में 20 जून को गंगा एक्शन प्लान की शुरुआत काशी के राजेंद्र प्रसाद घाट से की थी। इसके बाद मौजूदा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने वर्ष 2008 में नेशनल गंगा रिवर बेसिन प्राधिकरण का गठन किया। दोनों ही प्रयासों का जमीनी हाल क्या है यह सबके सामने है। गंगा एक्शन प्लान के दो चरणों की कार्ययोजनाओं पर अरबों रुपये खर्च होने के बाद गंगा में मलजल तथा टेनरियों का रसायनयुक्त पानी अनवरत गिर रहा है।
 गंगा एक्शन प्लान पर नजर 
यह सच है कि गंगा एक्शन प्लान से पूर्व नदियों की सफाई सुनिश्चित करने की दिशा में न तो कोई योजना बनी और न ही कोई सकारात्मक प्रयास किए गए। गंगा एक्शन प्लान के प्रथम और द्वितीय चरण भी सफल नहीं हुए। इसका कारण रहा केंद्र और राज्य सरकार तथा स्थानीय कार्ययोजना के क्रियान्वयन में सामंजस्य का घोर अभाव। 
ट्रीटमेंट का उद्देश्य अधूरा
 गंगा एक्शन प्लान के अन्तर्गत जो ट्रीटमेंट प्लांट लगाए गए, वो मानक के अनुरूप नहीं हैं। प्लान के तहत बने प्लांट मलजल और कारखानों से निकले रासायनिक पदार्थयुक्त जल को पूरी तरह शोधित नहीं कर पाए। फलस्वरूप जो जल था, उसमें धातुओं की भारी मात्रा मौजूद थी और वह प्रदूषित बना रहा।
 उच्च शोधन क्षमता नहीं
 गंगा एक्शन प्लान के अन्तर्गत जो प्लांट लगाए गए, वो उच्च शोधन क्षमता वाले नहीं थे। यह प्लान में बड़ी कमी थी। दूसरा कालांतर में ज्यों-ज्यों समय बीतता गया, गंगा किनारे की जनसंख्या बढ़ती गई और प्रदूषण वाले तत्वों की मात्रा में निरंतर वृद्धि होती चली गई। साथ गंगा में पानी का प्रवाह निरंतर कम होता चला गया। गंगा में पानी के प्रवाह कम होने से गंगा की पाचन क्षमता निरंतर गिरती चली गई जिसकी वजह से प्रदूषण के स्तर में निरंतर वृद्धि हुई। इस कारण गंगा में प्रदूषण को रोकने का लक्ष्य हासिल नहीं किया जा सका। 
गंगा रिवर बेसिन प्राधिकरण
 प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में सन् 2008 में गंगा बेसिन प्राधिकरण का गठन हुआ। गंगा एक्शन प्लान के प्रथम व द्वितीय चरण की कमियों को दूर करने की दिशा में बिना किसी प्रयास के ही प्राधिकरण बन गया। उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्रियों की अध्यक्षता में भी प्राधिकरण की राज्य इकाईयां गठित हुई, किंतु इन राज्यों के दायित्वों का निर्धारण सही ढंग से नहीं किया गया। प्राधिकरण के गठन के समय यह कहा गया कि सभी राज्यों में लोकल बाडी यानी नगर निगम व नगर पालिका को भी प्राधिरकण से जोड़ा जाय, पर यह काम भी आधा-अधूरा ही रहा। यह भी कहा गया था कि समन्वय हर स्तर पर विकसित हो, किंतु यह लक्ष्य भी पूरा न हो सका। गंगा में प्रदूषण नियंत्रण के लिए समग्र योजना बनाने के लिए सात आईआईटी को जिम्मेदारी दी गई लेकिन उनके दायित्वों की निगरानी अब तक नहीं हो सकी है।

गंगा को अविरल बहने दो


कपिल मुनि पंकज  
     मां गंगा के अस्तित्व की परिकल्पना अनादिकाल से है। जाह्नवी, मंदाकिनी, भागीरथी, आदि नामों से संबोधित की जाने वाली गंगा की अविरल धारा का महत्व हर युग में सर्वमान्य रहा है। मां गंगा की परिकल्पना शोध का नहीं चिंतन का विषय है। मां गंगा में बढ़ते प्रदूषण, इसकी अविच्छिन्नता व अविरलता को लेकर चला आंदोलन आज विराट स्वरूप लेकर जनमानस को झकझोर रहा है। साधु-संतों की तपस्या, अनशन, चेतावनी के द्वारा हुआ जागरण आज किसी खास वर्ग का नहीं अपितु सभी संप्रदाय व वर्गो का आंदोलन बन चुका है ताकि गंगा की निर्मलता बनी रहे। गंगा भारत की एक नदी नहीं वरन मां गंगा देश की धार्मिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक धरोहर, व अस्मिता की पहचान हैं। प्रदूषण मुक्त औषधीय गुणों से पूर्ण व जीवनदायिनी नदी है जिसमें अवगाहन कर हम मुक्ति की कामना करते है। तभी तो जब सिंकदर ने महान भारत विजय हेतु प्रस्थान किया तो उसके गुरु अरस्तू ने लौटते समय उससे पवित्र गंगाजल गुरु दक्षिणा में मांगा था। इसी से मां गंगा की महत्ता स्पष्ट हो जाती है। गंगा मुक्ति आंदोलन को लेकर कुंभकर्णी नींद में सोये सत्ता संचालन से जुड़े मुखिया व अन्य लोगों के कानों में जूं तक नही रेंग रही है जो गंगा की निर्मलता व अविरलता के बारे में न सोचकर गंगा व मंदाकिनी पर 121 और बांध बनाने की योजना बना रहे है। पनबिजली द्वारा 1875 मेगावाट विद्युत उत्पादन की बात सामने की जा रही है। तो क्या! मात्र निजी उत्पादन हेतु क्या थर्मल पावर या पवन चक्की के माध्यम से यह कार्य नहीं हो सकता है। टिहरी बांध अकेले गंगा को अवरुद्ध किए है। आंदोलनरत साधु संन्यासियों की मांग पर यदि टिहरी बांध का फाटक खोलकर पर्याप्त मात्रा में जल निस्तारण किया जाय तो गंगा की अविरलता कायम रह सकती है। समझ में नहीं आता कि सरकार को इसमें दिक्कत क्या है। मेरा मानना है कि गंगा किनारे अवस्थित टेनरियों, कल कारखानों, व शहरों के सीवर का मल जल गंगा में गिराए जा रहे है जिससे गंगा की निर्मलता प्रभावित हो रही है। यदि तत्काल प्रभाव से ट्रीटमेंट प्लांट लगाकर इसका उपचार सरकार करे तो समस्या का समाधान हो सकता है। गंगा में रेत व बालू जमा होने के कारण गंगा की धारा कई भागों में बंट कर दम तोड़ रही है। अत: इसका उत्खनन कराकर रेत व बालू का निस्तारण हो और गंगा की गहराई बढ़े तो इस समस्या का समाधान हो सकता है। आज आवश्यकता है पुन: एक भगीरथ की जो गंगा मां को समस्याओं की जय से निकाल कर माता की महत्ता को पुर्नस्थापित करें तभी तो हम गर्व से यह गीत गाएगें। गंगा मइया में जब तक पानी रहे-मेरे सजना तेरी जिंदगानी रहे अन्यथा सजना अकाल मौत मरेगा। तुलसी की चौपाई जब तक रहे गंगा जल धारा अचल रहे। जागो शंखनाद हो चुका है आगे बढ़े और गंगा की पवित्रता को कलंकित न होने दें। पूर्वजों को इसने तारा है मगर वंशजों से यह गई मारी नदी जागो वरन मृत्युशय्या पर पड़े हमारे स्वजन तरस जाएगें। तुलसी गंगाजल के बिना, तरस जाएगें देव पूजा पात्र गंगाजल के बिना। आइए हम सभी गंगा की अविच्छिन्नता अविरलता और इसको प्रदूषणमुक्त बनाने का संकल्प ले। जय मां गंगा। (लेखक भोजपुरी के लब्ध गीतकार हैं)

Tuesday, 29 May 2012


नदियों की बर्बादी को हम भी जिम्मेदार


वाराणसी : अविरलता व निर्मलता के लिए सिर्फ गंगा तक ही बात सीमित नहीं है। इस धार्मिक नगरी की अन्य नदियों की बर्बादी के लिए आम नागरिक भी जिम्मेदार हैं। छोटी गैबी निवासी कपड़ा व्यवसायी मनीष तुलस्यान ने कहा कि जो नदियां बची हैं उनकी हमें अपने स्तर से रक्षा करनी होगी। गौरीगंज के होटल व्यवसायी इमरान अहमद साफ तौर पर कहते हैं कि नदियों में प्लास्टिक, कूड़ा, कचरा डालने के साथ पशुओं को नहलाने का काम हम करते हैं। नागरिक सुरक्षा के पूर्व अधिकारी नदेसर के धीरेंद्र श्रीवास्तव ने कहा कि गंगा व वरुणा में बह रही गंदगी से काशीवासियों का सिर शर्म से झुक जा रहा है। लल्लापुरा के नजीर अहमद आजमी का कहना है कि यहां की नदियों की अविरलता के लिए हर कुर्बानी के लिए तैयार होना पडे़गा। मदनपुरा के अब्दुल रहमान (ताजबाबा) ने कहा नदियों को मजहब के चश्में से नहीं देखना चाहिए। सोनारपुरा के बीपी त्रिपाठी, ब्रदर एसपी सिंह, डॉ. काजी मोहम्मद शाहिद व शकील अहमद ने कहा कि जो नदियां बची हैं अगर उन पर ध्यान नहीं दिया गया तो आने वाली पीढ़ी हमें माफ नहीं करेंगी।

नदियां जो बल खा रही थीं, वो बिलख रहीं


वाराणसी, संवाददाता : बगावत पर उतारू पाताल, साथ छोड़ते कुएं, तालाब, ताल-तलैया, सूखते हलक, संकट में संस्कृति और चरमराती अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए नदियों को संरक्षित करने की जरूरत महसूस की जाने लगी है। अधिक नहीं दो दशक के ही दौरान पूर्वाचल में लहराती-बलखाती एक दर्जन से अधिक नदियां देखते-देखते विलुप्त हो गईं, जो बची हैं वे नाले में तब्दील होती जा रही हैं। एक तरफ संकट के दौर से गुजर रही गंगा, वरुणा, घाघरा, गोमती, सोन जैसी प्रमुख नदियों को बचाने की गंभीर चुनौती तो दूसरी तरफ पेयजल और सिंचाई सुविधा को बरकरार रखने की जरूरत। ऐसा ही चलता रहा तो वह दिन दूर नहीं जब हमें अपनी अगली पीढ़ी से यही कहना पड़ेगा कि ये जो नाले हैं, कभी नदियां हुआ करती थीं। नदियों के किनारे विकास विशेषज्ञों का कहना है कि नदियां हमारे देश की धर्म, संस्कृति और अर्थनीति तय करती हैं। इतिहास गवाह है कि सभ्यता का विकास नदियों के किनारे ही हुआ। बिना जल के जीवन की आशा नहीं की जा सकती लिहाजा जहां-जहां जलस्रोत मिले उसके किनारे-किनारे जनजीवन विस्तार लेता गया और उसी के अनुरूप वहां के आर्थिक, सामाजिक विकास को आधार मिला। एक तरफ डैम, बैराज व नहरों के जरिये नदियों का प्रवाह रोका जा रहा है तो दूसरी तरफ नदियों के जल स्तर को बनाए रखने वाले तालाब, कुंड, कुएं, पोखरे पाट कर कंक्रीट की इमारतें खड़ी करने का सिलसिला जारी है। नदियों का खुद का सिस्टम लड़खड़ा गया और बड़े भू भाग में फैले इसके बेसिन क्षेत्र में तापमान वृद्धि, मृदाक्षरण, भूमिगत जल स्तर में गिरावट, पेड़ों के सूखने जैसे हालात बनते जा रहे हैं। नदी विज्ञान आधारित हो संरक्षण नदी विशेषज्ञ प्रो. यूके चौधरी कहते हैं कि नदियां केवल जल का नहीं वरन जीव-जंतु, पेड़-पौधों के संवर्धन, वातावरण संतुलन और देश की अर्थ व्यवस्था की रीढ़ भी है। इनका संरक्षण सरकारी स्तर पर नदी विज्ञान के आधार पर किया जाना चाहिए। मानव जीवन में नदियों की महत्ता को देखते हुए ही वेद, पुराण, उपनिषद् आदि ग्रंथों में इन्हें तमाम धार्मिक मान्यताओं से जोड़ा गया है। बताया- नदी मॉर्फोलॉजी (आकार, प्रकार और इसका ढलान) को समझे बिना जहां-तहां प्रवाह रोके जाने से नदियां अपना वजूद खोती जा रही हैं। कोई भी नदी उसमें प्रवाहित हो रहे जल के आयतन, उसके गुण और गतिशीलता से ही जानी जाती है। ये तीन उसकी अपनी शक्तियां हैं जो आपस में जुड़ी होती हैं। यह प्रवाह नदी की मॉर्फोलॉजी को परिभाषित करती है। यह मॉर्फोलॉजी हमें बताती है कि कहां से कितना जल, किस विधि से निकाला जाए, विद्युत उत्पादन कहां से और कितना किया जाए। अवजल को नदी में कहां कितनी मात्रा में तथा किस विधि से डाला जाए। नदी मॉर्फोलॉजी के ज्ञान की जरूरत ठीक उसी तरह है जैसे किसी डॉक्टर के लिए शरीर के भीतरी अंगों के बनावट और उसके क्रियाकलापों को जानना। नदी मॉर्फोलॉजी को समझे बिना नदी में सतही, भूमिगत व अवजल आने की प्रक्रिया और जल निकासी की क्रिया को नहीं समझा जा सकता। जन-जीवन के लिए खतरा बीएचयू के वर्यावरण विज्ञानी प्रो. बीडी त्रिपाठी कहते हैं कि नदियों का वजूद समाप्त होने से पर्यावरण संतुलन बिगड़ रहा है जो जन-जीवन के लिए बड़े खतरे का संकेत है। नदियों का सीधा संबंध वायुमंडल से होता है। अत्यधिक जल दोहन और मलजल की मात्रा बढ़ने से नदियों के जल में लेड, क्रोमियम, निकिल, जस्ता आदि धातुओं की मात्रा बढ़ती जा रही है। यह स्थिति वातावरण को जनजीवन के प्रतिकूल बनाती जा रही है। वजह, नदी जल गतिशील होगा तो वह मिट्टी के गुण को कम और वायु के गुण को ज्यादा ग्रहण करेगा। गतिशीलता घटने पर वह मिट्टी के गुण को ज्यादा और वायु के गुण को कम ग्रहण करेगा। लिहाजा नदी का वायु, पानी और मिट्टी के बीच संतुलित संबंध ही वातावरण को नियंत्रित करता हैं। नदी की गतिशीलता घटते ही इसके पानी में टीडीएस (टोटल डिजाल्व सॉलिड) की मात्रा बढ़ने और ऑक्सीजन की मात्रा घटने लगती है। इसी अनुपात में वायुमंडल का ताप, दबाव और आद्रता प्रभावित होती है। नदी जल के अत्यधिक दोहन और अवजल की बढ़ती मात्रा के कारण दमघोंटू वातावरण सामने है। नदी के मौलिक जल और अवजल का अनुपात जैसे-जैसे बढ़ता जाएगा वैसे-वैसे वातावरण जीव-जंतु के विपरीत होगा। दुखद तो यह है कि नदी के प्रदूषण को आंकने की सरकारी स्तर पर अब तक कोई व्यवस्था ही नहीं की जा सकी है। पूर्वाचल में नदियों का हाल वाराणसी में कहने के लिए गंगा, वरुणा, नाद, पीली और असि नदियां हैं। इसमें से महज गंगा, वरुणा वजूद में हैं, शेष विलुप्त हो चुकी हैं। गंगा : देवनदी गंगा का पानी आज स्नान को कौन कहे, आचमन योग्य भी नहीं रहा। गंगा की इस दशा से जहां आस्था आहत हुई हैं तो विश्वास भी रो रहा है। गंगा में उसके मौलिक जल का स्थान सीवर, नाले और कल-कारखानों से निकलने वाले रसायन युक्त जल ने ले लिया है। अधिक नहीं दो दशक पहले तक तीन सौ मीटर चौड़ाई में बहने वाली गंगा का पाट सिकुड़ कर बमुश्किल 70 मीटर तक आ गया है। वरुणा नदी : यह नदी आज अपने वजूद के लिए संघर्ष कर रही है। अतिक्रमण की होड़ से जहां इसके पाट सिकुड़ते जा रहे हैं वहीं इसमें गिरने वाले नालों की बढ़ती संख्या ने इसे मैला ढोने वाली नदी बना दिया है। इस नदी के बारे में लोगों की धारणा थी कि इसके पानी में सर्पविष दूर करने का अलौकिक गुण है लेकिन आज यह नाले के रूप में खुद की बेबसी पर बिलख रही है। गनीमत यह है कि पुराना पुल के पास इसका पानी रोक दिया गया है इसलिए इसका वजूद बना हुआ है। असि नदी : नगर के दक्षिणी छोर पर मिलने वाली असि नदी को अब नदी मानने में कठिनाई होती है। वजह, इसका वजूद अस्सी नाला से तब्दील हो कर नगवा नाला के रूप में है। इसके भू खंड पर आज बड़ी-बड़ी कालोनियां आबाद हो चुकी हैं। इस नदी के हिस्से वाली जमीन पर अतिक्रमण का दौर जारी है। गंगा-वरुणा के सतह से काफी ऊंचाई पर बहने वाली यह नदी कॉलोनियों के बीच से एक संकरे-पतले नाले के रूप में बहती है और अस्सी के पास नगवा नाले में जा मिलती है।

वरुणा तट पर गांधी के तीन बंदर


वाराणसी, संवाददाता : गंगा-वरुणा के सवाल की अनदेखी को दर्शाने के लिए वरुणा किनारे प्रतीक स्वरूप गांधी के तीन बंदरों को बैठाया गया। बताया गया कि इन्हें गंगा-वरुणा के हितों की बात न सुनाई देती है, न दिखाई देती है और ना ही कुछ बोल सकते हैं। लोकचेतना की ओर से आयोजित इस प्रदर्शन कार्यक्रम में केके उपाध्याय, इंद्रजीत निर्भीक, हरिशंकर सिंह, नित्यानंद मिश्र, कैलाश सिंह, शमसुल आरफिन आदि ने हिस्सा लिया

Friday, 25 May 2012

बनारस की पहचान में वरुणा नदी जुड़ी है

सेवापुरी। वरुणा नदी की निर्मलता और अविरलता की मांग को लेकर मंगलवार को भाजपा और भाजयुमो कार्यकर्ताओं ने सत्तनपुर बाजार में जुलूस निकाला। नारेबाजी करते हुए कार्यकर्ता वरुणा घाट पर पहुंचे जहां वरुणा को निर्मल बनाने का संकल्प लिया।
भाजपा पदाधिकारियों ने कहा कि बनारस की पहचान में वरुणा नदी जुड़ी है। बावजूद इसके नदी को निर्मल रखने की दिशा में कदम नहीं उठाया गया जिससे आज इस नदी की स्थिति काफी दयनीय हो गई है। वरुणा घाट पर कार्यकर्ताओं ने नदी को स्वच्छ और निर्मल रखने के लिए हरसंभव प्रयास करने का संकल्प लिया। सिंचाई विभाग के अधिशासी अभियंता से शारदा सराय और ज्ञानपुर नहर प्रखंड का पानी वरुणा में छोड़ कर उसे रिचार्ज करने और पुराने पुल का गेट खुलवाने की मांग की। जुलूस का नेतृत्व भाजपा के जिला महामंत्री प्रेमनारायण पांडेय, भाजयुमो के पूर्व मंडल अध्यक्ष पंकज सिंह, महामंत्री शशि सिंह ने किया। इस मौके पर धुरंधर सिंह, जटाशंकर सिंह डब्लू, धर्मेंद्र पांडेय, मुन्ना गुप्ता, शंकर कन्नौजिया, नागेेंद्र तिवारी, सुनील गुप्ता, विनोद सिंह, सतीश सिंह, श्यामसुंदर पटेल आदि थे। उधर, पं. ताराशंकर और पं. रमेशचंद तिवारी ने कहा कि वरुणा और अस्सी को मिलाकर ही वाराणसी का नाम पड़ा है। वरुणा का दूसरा नाम अमृतदायिनी भी है। वरुणा की दुर्दशा बर्दाश्त नहीं की जा सकती है।

नगर निगम व जल निगम की कुदृष्टि का शिकार सिगरा के पॉश बादशाह बाग कालोनी के पार्क

वाराणसी, सिटी रिपोर्टर : एक ऐसे दौर में जब ग्लोबल वार्मिग को लेकर दुनिया भर में मंथन का दौर चल रहा हो..शासन स्तर पर तमाम योजनाएं भी बनायी गईं हों, किंतु निजी स्वार्थ और विकास की अंधी दौड़ ने प्राकृतिक संतुलन को तहस-नहस करने में कोई कसर बाकी नहीं रखा है। बाग-बगीचों को काटकर कंक्रीट के जंगल खड़े करने का दौर बदस्तूर जारी है। एक ऐसी ही कोशिश गुरुवार की देर शाम नगर निगम व जल निगम की कुदृष्टि का शिकार सिगरा के पॉश बादशाह बाग कालोनी के पार्क में की गई, जब ठेकेदार ने ओवरहेड टैंक बनाने के नाम पर कालोनी के एक हरे-भरे पार्क में जेसीबी चलवाकर वहां की हरियाली नष्ट करने की कोशिश की। हालांकि कालोनीवासियों के प्रबल विरोध के कारण ठेकेदार को बैरंग लौटना पड़ा। हरियाली के लिए तरस रहे कालोनीवासियों ने जब हरे-भरे पार्क को उजड़ते देखा तो वे सड़क पर उतर आए। इस बीच ठेकेदार की ओर से जुटाए गए कुछ अराजक तत्वों ने भी मोर्चा संभाल लिया। यह महज संयोग रहा कि टकराव से पूर्व ही पुलिस फोर्स पहुंच गई, वरना किसी अप्रिय घटना से इनकार नहीं किया जा सकता था। इसी ठेकेदार ने लगभग तीन वर्ष पूर्व भी पार्क में भारी खोदाई कर वहां की हरियाली को नष्ट करने का प्रयास किया था, उस समय भी उसे पब्लिक के मुखर विरोध के कारण मुंह की खानी पड़ी थी, तब तत्कालीन अधिकारियों ने जन भावनाओं का ध्यान रखते हुए पार्क में ओवरहेड टैंक बनाने का निर्णय निरस्त कर दिया था। ठेकेदार का कहना था कि उसने जेएनएनयूआरएम के तहत पार्क में ओवरहेड टैंक बनाने की नगर निगम व जल निगम से अनुमति ली है, किंतु मौके पर वह कोई भी वैद्य पत्र नहीं दिखा सका। इस पर एसएसपी के निर्देश पर पहंुचे पुलिस अधिकारियों ने ठेकेदार को ताकीद की कि अगर उसने असामाजिक तत्वों की मदद से शांति भंग की कोशिश की तो कड़ी कार्रवाई की जाएगी। टंकियों के निर्माण के पीछे आर्थिक घोटाले की साजिश : विरोध करने सड़क पर उतरे कालोनी के रामस्वरूप अग्रवाल, जगदीश झुनझुनवाला, वेद प्रकाश, रमेश ओझा, कमर अब्बास खान, नवीन श्रीवास्तव व डॉ.रोहित गुप्ता का कहना था- शहर में शुद्ध व स्वच्छ जल की आपूर्ति के बारे में सोचना नि:संदेह एक अच्छी पहल है, किंतु पर्यावरण संतुलन को ध्यान में रखना उससे कहीं ज्यादा जरूरी। उनका कहना था कि बादशाह बाग कालोनी से महज सौ मीटर की दूरी पर गुलाब बाग व शास्त्री नगर पार्क में दो टंकिया कुछ ही समय पूर्व बनी हैं, जहां से काफी बड़े क्षेत्र में पानी की आपूर्ति की जा सकती है। फिर बादशाह बाग कालोनी के पार्क में हरियाली नष्ट कर वहां एक और टंकी बनाने की कोशिश क्यूं की जा रही है? इन टंकियों के निर्माण के पीछे किसी गहरी आर्थिक घोटाले की साजिश की बू आ रही है। आज यहां पानी टंकी बना रहे हैं तो कल पावर हाउस भी बनाएंगे। हम पार्क में ओवरहेड टैंक नहीं बनने देंगे। पुरजोर मुखालफत होगी किसी भी तुगलकी फरमान की।
पब्लिक की भावनाओं का ध्यान रखेंगे : नगर आयुक्त :
 इस संबंध में नगर आयुक्त प्रमोद कुमार पाण्डेय ने कहा कि पब्लिक की भावनाओं का पूरा ख्याल रखा जाएगा। ऐसी कोई कोशिश नहीं होगी कि किसी हरे-भरे पार्क ही हरियाली को नष्ट कर वहां कोई निर्माण कराया जाय। यदि इलाके में जलापूर्ति के लिए ओवरहेड टैंक का निर्माण जरूरी है तो इसके निर्माण के लिए किसी अन्य स्थान की तलाश की जाएगी।

Sunday, 20 May 2012

कहीं खत्म न हो जाए वरुणा का अस्तित्व!




Story Update : Sunday, May 20, 2012     2:11 AM

सेवापुरी। जिस वरुणा नदी के किनारे पंचक्रोशी मार्ग पर रामेश्वर महादेव की स्थापना कर श्रीराम ने रावण वध के पाप से मुक्ति पाई थी, आज उसी वरुणा के अस्तित्व पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं। काशी की जनता की धार्मिक आस्था से जुड़ी नदी वरुणा पर आदमपुर इलाके के पुराना पुल पर सात फाटक बनाकर उसका प्रवाह रोक दिया गया। यहीं वरुणा का संगम गंगा से होता है किंतु अब इन दोनों पौराणिक महत्व की नदियों का संगम सिंचाई विभाग की इच्छा पर निर्भर है। साथ ही वरुणा का प्रवाह रोक देने से नदी गंदगी के अंबार से पट गई है। ऐसे में स्नान-ध्यान तो दूर, वरुणा का जल आचमन योग्य भी नहीं रह गया है। नदी तट पर रहने वाले ग्रामीणों का कहना है कि वरुणा का प्रवाह रोकने से यह नदी गंदगी से पटती जा रही है। यही हाल रहा तो संभवत: आने वाली पीढि़यां वरुणा के बारे में महज पुस्तकों में ही पढ़ेंगी। ऐसे में स्थानीय लोगों ने वरुणा के अविरल प्रवाह रोकने वाले इन फाटकों को हटाने की मांग की है। 
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प्रवाह रोकने से प्रदूषित हो गई वरुणा
वरुणा और गंगा के बीच गेट बना देने से वरुणा दिन-ब-दिन प्रदूषित होती जा रही हैं। इसके चलते गंगा से बड़ी मछलियां वरुणा में नहीं आ पातीं। यह मछलियां अधजले शव समेत तमाम प्रकार के अपशिष्ट खाकर वरुणा को दूषित होने से बचाती थीं पर अब ऐसा नहीं हो पा रहा है। पानी रोकने का लाभ शहरी मछुआरों को हो रहा है जबकि स्थानीय मछुआरों के समक्ष आजीविका का संकट गहरा गया है।
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नहीं सहेंगे धार्मिक आस्था पर प्रहार
वरुणा के तट पर बसे सत्तनपुर, नेवादा, राखी, ईशरवार, कूड़ी, बलुआ, भिटकुरी, रामेश्वर, कालिकाधाम, कुरूं, बलुआ, सरावां, रसूलपुर, इंदरपुर, जग्गापट्टी समेत दर्जनों गांव निवासी राजबिहारी उपाध्याय, दयाशंकर दूबे, सतीश दीक्षित, पंकज सिंह, शशि सिंह, राजेश यादव, शेष कुमार सिंह, डा. भरत मिश्र, हरिशंकर कनौजिया, अख्तर अली, बेचन, गोविंद कुमार अलगू आदि का कहना है कि रामेश्वर स्थित शिव मंदिर, सरावां स्थित सिद्धपीठ भद्रकाली एवं कालिका बाजार स्थित सिद्धपीठ कालिकाधाम के पद को पखारने वाली वरुणा का प्रवाह सिंचाई विभाग द्वारा फाटक लगाकर रोक दिए जाने को किसी भी सूरत में बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। 
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वरुणा की अविरलता-निर्मलता पर कलंक है गेट
भाजपा के जिला उपाध्यक्ष भोला शंकर मिश्र एवं जिला महामंत्री द्वय अजय सिंह मुन्ना एवं प्रेम नारायण पटेल, यूथ कांग्रेस के पूर्व विस क्षेत्र अध्यक्ष प्रीतम शुक्ला, पीस पार्टी के मंडल अध्यक्ष संजय पासवान, राष्ट्रीय अग्रणी दल के जिलाध्यक्ष प्रदीप कुमार पांडेय का कहना है कि सिंचाई विभाग ने गेट बनाकर वरुणा की अविरलता एवं निर्मलता नष्ट करने का प्रयास किया है। यह लोगों की धार्मिक आस्था पर चोट है। इसके विरोध में बड़े आंदोलन की शुरुआत की जाएगी। उधर, सिंचाई विभाग का कहना है कि जल संग्रह करने के मकसद से गेट बनवाए गए हैं। 
00पुराने पुल पर लगे गेट जल संग्रहण के उद्देश्य से लगाए गए हैं। इससे पशु-पक्षियों को पीने का पानी मिलता है। साथ ही नदी तट पर खेती करने वालों के खेत भी इसके जल से सिंचित होते हैं। यदि ग्रामीण विरोध करेंगे तो इन गेटों को खोलने पर विचार किया जाएगा।-केपी सिंह, अधिशासी अभियंता, सिंचाई विभाग।
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गेट लगाकर वरुणा का प्रवाह महज चंद लोगों को लाभ पहुंचाने के लिए रोका गया है। समाज की आस्था पर चोट पहुंचाने वालों को जनता कभी माफ नहीं करेगी। -शिव प्रसाद गिरि, महंत, सिद्धपीठ कालिकाधाम।

गंगा-वरुणा वाटर ट्रांसपोर्ट, रिंग रोड के साथ मोनो रेल





Story Update : Monday, March 26, 2012    1:11 AM

जाम से जूझ रहे शहरियों के लिए फिर एक सपना दुरुस्त यातायात का
वाराणसी। जाम की समस्या से जूझ रहे इस शहर को मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने फिर से कुछ सपने दिखाए हैं। यह सपना साकार कैसे हो इस पर मंथन शुरू हो गया है। स्थानीय प्रशासन से लेकर नियोजक और ट्रांसपोर्ट विशेषज्ञ में से कोई वरुणा वाटर ट्रांसपोर्ट तो कोई रिंग रोड योजना को अविलंब मूर्त रूप देने की बात कर रहा है। मोनो रेल प्रस्ताव की चर्चा भी शुरू हो गई है। इसे पुनर्जीवित करने में लगे हैं काशी हिंदू विश्वविद्यालय के सिविल इंजीनियरिंग विभाग के एसोसिएट प्रोफेसर डा.बृंद कुमार। उनकी मानें तो योजना मूर्त रूप ले ले तो एक झटके में जाम की समस्या में 60 फीसदी कमी आ जाएगी। 
डा. कुमार सितंबर 2011 में प्रदेश के प्रमुख सचिव के समक्ष यह प्रस्ताव रख चुके हैं जो जिले की करीब 30 लाख की आबादी पर आधारित है। उनका मानना है कि इस आबादी में से छह लाख फ्लोटिंग पापुलेशन है जो रोजाना एक से दूसरे छोर को आती-जाती है। इसके अलावा एक बड़ी संख्या देशी-विदेशी पर्यटकों की है। ऐसे में व्यस्ततम दिखती शहर की सड़कों के बीचों बीच आठ मीटर ऊंचाई वाले पिलर लगाते हुए मोनो रेल लाइन बिछाने से सड़क का यातायात बाधित नहीं होगा। मोनो रेल स्टेशन पर नीचे वाहनों के लिए व्यवस्थित पार्किगिं का स्थान नियत होगा। इस रेल लाइन का एक छोर बाबतपुर एयरपोर्ट तो दूसरा लंका होगा। रेल लाइन जिला मुख्यालय, सारनाथ, लहुराबीर, बेनियाबाग, गोदौलिया, सिगरा, रथयात्रा, भेलूपुर के अलावा चितईपुर को जोड़ने वाली होगी। इससे एयरपोर्ट से कचहरी की दूरी 15 मिनट तो लंका तक की दूरी आधे घंटे में पूरी हो सकेगी। मोनो रेल में अधिकतम चार बोगी लगेगी और हर बोगी में 50 यात्री यानी एक फेरे में दो सौ यात्री सफर कर सकेंगेे। मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के रुख से डा. बृंदा प्रफुल्लित हैं। उन्हें लग रहा है कि उनकी मेहनत सफल होगी। बतादें कि मेट्रो रेल योजना 2005-2006 में ही चर्चा में आई थी पर उसी वक्त तत्कालीन मंडलायुक्त सीएन दुबे क ी अध्यक्षता वाली विशेषज्ञ टीम ने इसे काशी के मुनाफिक न पाते हुए खारिज कर दिया था। उसी दौरान तत्कालीन डीएम नितिन रमेश गोक र्ण ने मोनो रेल योजना का प्रस्ताव लाया पर उनके तबादले के बाद उस पर किसी ने तवज्जो नहंीं दिया। 
इसके अलावा विकास प्राधिकरण ने वरुणा पर करीब 170 करोड़ रुपये का वरुणा पायलट प्रोजेक्ट तैयार किया है। इस योजना को स्थानीय स्तर पर स्वीकृति प्रदान करने के साथ ही वीडीए ने चंद रोज पूर्व संपन्न वीडीए बोर्ड की बैठक में अपना अंशदान 17 करोड़ रुपये स्वीकृत भी कर दिया। अब इस योजना पर काम आगे बढ़ाने के लिए शेष धनराशि के लिए फाइल केंद्र सरकार को भेजी गई है। यह योजना न सिर्फ वरुणा को नया जीवनदान देगी। जाम को बहुत हद तक कम भी कर सकेगी। 

जहरीली यमुना पर गुजरने भर से दिल्ली मेट्रो के एसी हो रहे हैं खराब, इंसानों के शरीरों का क्या?

कभी श्रीकृष्ण की मुरली के स्वर-अमृत प्राप्त करने वाली यमुना आज कितनी जहरीली हो चुकी है, वैसे तो इसके लिए दिल्ली में उसे देखना ही काफी है जब कुछ क्षणों के बाद आप वितृष्णा से अपनी दृष्टि फेरने को विवश हो जाते हैं, लेकिन एक डरावना सच सामने आया है दिल्ली मेट्रो के सौजन्य से | दिल्ली मेट्रो के अधिकारीयों का कहना है कि जो मेट्रो रेल रोज यमुना के ऊपर से गुजरती हैं, यमुना से निकलने वाली जहरीली गैसों से उन रेलों के वातानुकूलित यन्त्र खराब हो रहे हैं |

द्वारका-नॉएडा सिटी सेंटर ब्लू लाइन पर चलने वाली रेलों के ३५० कोच के एसी बदले जा चुके हैं और दिलशाद गार्डन - रिठाला रेड लाइन की रेलों के १०० कोचों के एसी बदले जा चुके हैं | ऐसा इसलिए हो रहा है कि यमुना से निकलने वाली जहरीली गैसों से एसी के कंडेंसर पर जमी कोटिंग हट जाती है और गैस लीक होने लगता है |

अब सोचने वाली बात ये है कि केवल यमुना पर से गुजर जाने भर से महंगे यन्त्र खराब हो रहे हैं और इतनी जहरीली नदी का पानी पीने से लोगों के शरीरों का क्या हो रहा होगा | वैज्ञानिकों का मानना है कि यमुना के पानी में ओक्सीजन बचा ही नहीं है - केवल मल है और जहरीले रसायन हैं | यहाँ तक कि उस पानी में मछलियाँ भी जीवित नहीं रह सकती | यमुना के जहर में अमोनिया और हाईड्रोजन सल्फाईड आदि शामिल है | इन सब जहर से श्वसन तंत्र खराब होता है |

भगवान् ने तो जल को मानव के लिए अमृत बना कर भेजा था, पर १०० साल के आधुनिकीकरण में मानव ने उसे जहर में बदल दिया है | जितना प्रदूषण हजारों सालों में नहीं हुआ, गत ५०-६० सालों में ही यमुना, गंगा समेत सभी जीवनदायिनी नदियों को जहर की नदी बना दिया गया |