रवीन्द्र मिश्र वाराणसी :
अर्से से हम नदियों के प्रति बहुत ही संवेदनहीन रहे हैं। फिर चाहे वह नदी भारतीय संस्कृति की जीवन रेखा मां गंगा रही हों..वरुणा या असि। हमें जीवन देने वाली ये नदियां अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए कराहती रहीं.. लेकिन हम आज तक हाथ पर हाथ धरे बैठे रहे। इसी काशी में कभी गंगा के साथ वरुणा और असि नदियां वैभव का प्रतीक हुआ करती थीं। अफसोस कि..अब असि विलुप्त हो चुकी है..। वरुणा नाले का रूप अख्तियार कर चुकी है और गंगा अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए संघर्ष कर रही है। ये वहीं नदियां हैं जो कभी एक खूबसूरत सुबह हर खासो आम को ताजगी और नई उर्जा का उपहार बांटती रहीं हैं।
सवालों के घेरे में निगहबानी
नाले में तब्दील हो रही गंगा की निगहबानी सवालों के घेरे में है। अकेले काशी में ही गंगा एक्शन प्लान के तहत पिछले 26 वर्षो में एक अरब से कहीं अधिक खर्च किए जा चुके हैं लेकिन गंगा में गिरने वाले लगभग 400 एमएलडी सीवर जल के विपरीत अब तक महज 100 एमएलडी सीवर जल के शोधन का ही बंदोबस्त किया जा सका है। शेष 300 एमएलडी यानी मिलियन लीटर सीवर जल रोज गंगा में प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से गिर रहा है। ऐसा भी नहीं कि शेष सीवर जल के लिए कोई प्लान बना ही नहीं लेकिन जो भी बने वे इच्छा शक्ति के अभाव में सिर्फ फाइलों तक ही सीमित हो कर रह गए। मौजूदा हाल- अवहाल : नगवा नाले से तकरीबन 70 एमएलडी, आरपीघाट पर 10 एमएलडी, राजघाट के निकट 60 एमएलडी नाले का पानी गंगा में गिरते किसी भी समय देखा जा सकता है। इतना ही नहीं तकरीबन 45 एमएलडी कल-कारखानों का दूषित जल विभिन्न घाटों पर निकलने वाले छोटे-छोटे नालों के जरिए गंगा में गिराया जा रहा है। इसे रोकने की दिशा में अब तक कोई कार्य योजना सामने नहीं आई। परिणामस्वरूप शहर व आसपास के इलाकों में बढ़ती आबादी और कल कारखानों के संजाल के चलते इन नालों की निकासी भी उसी अनुपात में बढ़ती जा रही है। इसी तरह विभिन्न नालों के जरिए वरुणा में गिरने वाले लगभग 90 एमएलडी सीवर जल परोक्ष रूप से गंगा को ही दूषित करते हैं। इससे जुड़े जानकारों की मानें तो नगवा नाले के लिए रमना में 60 एमएलडी का ट्रीटमेंट प्लांट और शहर व वरुणापार के सीवर जल की निकासी के लिए सथवां में 240 एमएलडी का ट्रीटमेंट प्लांट प्रस्तावित है। दु:खद स्थिति यह है कि ये सारे प्रस्ताव 2003 से ही शासन और प्रशासन की चौखट पर माथा टेक रहे हैं। समस्या यह भी है कि जिस समय यह प्रस्ताव बना उस समय नगर की सीवर जल की निकासी 240 एमएलडी के आसपास थी। आज सीवर जल की निकासी 400 एमएलडी पहुंच गई लेकिन प्रोजेक्ट अस्तित्व में नहीं आ सका। गंगा एक्शन प्लान के ही तहत नगर के पुराने और जर्जर हो चले ब्रिक सीवर का भार कम कर इसका जल ट्रीटमेंट प्लांट तक पहुंचाने के लिए रिलीविंग ट्रंक सीवरेज योजना भी क्रियान्वित की गई। वर्ष 2003 में शुरू हुई इस सीवरेज योजना को वर्ष 2005 में ही अंतिम रूप दे दिया जाना था लेकिन वर्ष 2012 आधा बीतने को है आज भी इसे अंतिम रूप नहीं दिया जा सका। इधर, गंगा में अवजल की मात्रा जहां बढ़ती जा रही है वहीं नदी का डिस्चार्ज (प्रवाह) घटने से काशी में गंगा सिकुड़ कर नाले का रूप अख्तियार करती जा रही हैं। लोगों का मानना है कि यदि प्रवाह बढ़ाया नहीं गया और सीवर जल की निकासी बंद नहीं की गई तो इस नदी को नाला बनने से कोई रोक नहीं सकेगा। चाहे कई लाख करोड़ रुपए क्यों न खर्च कर दिए जाएं।
सरकारी प्रयास कमजोर
हर कोई शिद्दत से इस सच को स्वीकारता है कि नदियों की सफाई को लेकर अब तक किए गए सरकारी प्रयास नाकाफी रहे हैं। हालांकि इस दिशा में पहल करते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने वर्ष 1985 में 20 जून को गंगा एक्शन प्लान की शुरुआत काशी के राजेंद्र प्रसाद घाट से की थी। इसके बाद मौजूदा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने वर्ष 2008 में नेशनल गंगा रिवर बेसिन प्राधिकरण का गठन किया। दोनों ही प्रयासों का जमीनी हाल क्या है यह सबके सामने है। गंगा एक्शन प्लान के दो चरणों की कार्ययोजनाओं पर अरबों रुपये खर्च होने के बाद गंगा में मलजल तथा टेनरियों का रसायनयुक्त पानी अनवरत गिर रहा है।
गंगा एक्शन प्लान पर नजर
यह सच है कि गंगा एक्शन प्लान से पूर्व नदियों की सफाई सुनिश्चित करने की दिशा में न तो कोई योजना बनी और न ही कोई सकारात्मक प्रयास किए गए। गंगा एक्शन प्लान के प्रथम और द्वितीय चरण भी सफल नहीं हुए। इसका कारण रहा केंद्र और राज्य सरकार तथा स्थानीय कार्ययोजना के क्रियान्वयन में सामंजस्य का घोर अभाव।
ट्रीटमेंट का उद्देश्य अधूरा
गंगा एक्शन प्लान के अन्तर्गत जो ट्रीटमेंट प्लांट लगाए गए, वो मानक के अनुरूप नहीं हैं। प्लान के तहत बने प्लांट मलजल और कारखानों से निकले रासायनिक पदार्थयुक्त जल को पूरी तरह शोधित नहीं कर पाए। फलस्वरूप जो जल था, उसमें धातुओं की भारी मात्रा मौजूद थी और वह प्रदूषित बना रहा।
उच्च शोधन क्षमता नहीं
गंगा एक्शन प्लान के अन्तर्गत जो प्लांट लगाए गए, वो उच्च शोधन क्षमता वाले नहीं थे। यह प्लान में बड़ी कमी थी। दूसरा कालांतर में ज्यों-ज्यों समय बीतता गया, गंगा किनारे की जनसंख्या बढ़ती गई और प्रदूषण वाले तत्वों की मात्रा में निरंतर वृद्धि होती चली गई। साथ गंगा में पानी का प्रवाह निरंतर कम होता चला गया। गंगा में पानी के प्रवाह कम होने से गंगा की पाचन क्षमता निरंतर गिरती चली गई जिसकी वजह से प्रदूषण के स्तर में निरंतर वृद्धि हुई। इस कारण गंगा में प्रदूषण को रोकने का लक्ष्य हासिल नहीं किया जा सका।
गंगा रिवर बेसिन प्राधिकरण
प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में सन् 2008 में गंगा बेसिन प्राधिकरण का गठन हुआ। गंगा एक्शन प्लान के प्रथम व द्वितीय चरण की कमियों को दूर करने की दिशा में बिना किसी प्रयास के ही प्राधिकरण बन गया। उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्रियों की अध्यक्षता में भी प्राधिकरण की राज्य इकाईयां गठित हुई, किंतु इन राज्यों के दायित्वों का निर्धारण सही ढंग से नहीं किया गया। प्राधिकरण के गठन के समय यह कहा गया कि सभी राज्यों में लोकल बाडी यानी नगर निगम व नगर पालिका को भी प्राधिरकण से जोड़ा जाय, पर यह काम भी आधा-अधूरा ही रहा। यह भी कहा गया था कि समन्वय हर स्तर पर विकसित हो, किंतु यह लक्ष्य भी पूरा न हो सका। गंगा में प्रदूषण नियंत्रण के लिए समग्र योजना बनाने के लिए सात आईआईटी को जिम्मेदारी दी गई लेकिन उनके दायित्वों की निगरानी अब तक नहीं हो सकी है।