संकट में पड़ी गंगा आज जब अपने बेटों को आवाज दे रही है तब गंगा अवतरण पर्व गंगा दशहरा जैसे त्योहार कहीं और ज्यादा प्रासंगिकता के साथ सामने आ खड़े होते हैं। गंगा की अविरलता के लिए चल रहे आंदोलनों में भी अगर कोई कमी शिद्दत के साथ महसूस की गई है तो वह है आत्मीय भाव के क्षरण के साथ गंगा के साथ हमारे रिश्तों का महज औपचारिक बन कर रह जाना। ख्यात साहित्यकार डा. जीतेंद्र नाथ मिश्र कहते हैं- गंगा को अगर बचाना है तो उसके साथ अपनी नातेदारी उस सहज भाव तक प्रगाढ़ करनी होगी कि मां के रूप में हम उसकी पीड़ा को अपने ही दर्द के रूप में महसूस सकें। इस के लिए गंगा दशहरा जैसे पर्व एक अवसर, एक निमित्त साबित हो सकते हैं। उनके सामने है कोई तीन दशक पहले के गंगा दशहरा पर्व की तस्वीर जिसमें गंगा दशहरा पर्व को होली दीपावली जैसी रौनक हासिल थी। पूरा शहर उस दिन उमड़ पड़ता था गंगा के घाटों की ओर। स्नान की रस्म के बाद अक्षत-और रोली से गंगा मइया का श्रृंगार और पूजन। तीर्थ पुरोहित को आम की फसल का दान। उधर घर में दालपूरी और बखीर सहित विविध पकवानों के सहभोज का आनंद मानों घर के किसी सदस्य का जन्म दिन मनाया जा रहा हो। शाम को फिर एक बार गंगा तट पर होती थी जुटान वह भी बाल-गोपाल की पूरी फौज के साथ। रस्म के मुताबिक हर बच्चे के हाथ में पुअरे (पुआल) से बनी डोली और डोली में मउरी से सजे गुड्डे-गुडि़या की जोड़ी। इस डोली को खील-बताशों और पके आम से भर कर गंगा में प्रवाहित करने की होड़। बाकायदा ढोल-नगाड़े बजाते बच्चों के जुलूस निकलते थे टोले- मुहल्लों से। शीतला मंदिर के श्री महंत आचार्य शिव प्रसाद पांडेय कहते हैं-यह सिर्फ खेलवाड़ नहीं एक प्रतीकात्मक माध्यम था गंगा के प्रति श्रद्धा और विश्वास की अभिव्यक्ति का। जिसमें छिपा होता था यह भाव कि सुरसरि मैने अपने जीवन का संपूर्ण योग-क्षेम तेरे हवाले किया। जाहिर है खेल ही खेल में कोमल भावनाओं का एक बिरवा बच्चों के मन में संस्कार के रूप में रोपित हो जाता था। वरिष्ठ पत्रकार तथा संस्कृतिकर्मी अमिताभ भट्टाचार्य के अनुसार गंगा के अखंड अस्तित्व के लिए लुप्त होते इन पर्वो और संस्कारों को जीवित रखना आज का युगधर्म है।
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