Friday, 17 September 2010

वाराणसी को पहचान देने वाली वरूणा नदी तेजी से समाप्त हो रही है।

वरूणा

- डा0 व्योमेश चित्रवंश एडवोकेट

विश्व की सांस्कृतिक राजधानी प्राच्य नगरी वाराणसी को पहचान देने वाली वरूणा नदी तेजी से समाप्त हो रही है। कभी वाराणसी आसपास के जनपदों की जीवनरेखा आस्था की केन्द्र रही वरूणा आज स्वयं मृत्युगामिनी होकर अस्तित्वहीन हो गयी है।
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार सतयुग में भगवान विष्णु के दाहिने चरण के अंगूठे से निकली मोक्षदायिनी वरूणा (जिसे आदि गंगा भी कहा जाता है) इलाहाबाद के फूलपुर तहसील के मेलहम गॉव के प्राकृतिक तालाब मेलहम ताल से निकलती है जो लगभग 110 किमी की यात्रा पूरी करते हुये सन्तरविदास नगर भदोही और जौनपुर की सीमा बनाते हुये वाराणसी जनपद के ग्रामीण इलाको से होते हुये कैण्टोमेन्ट जनपद मुख्यालय से लगते हुये राजघाट के पास सरायमोहाना (आदि विश्वेश्वर तीर्थ ) में गंगा से मिल जाती है।
वरूणा तट पर पंचकोशी तीर्थ के अनेकों मंदिर रामेश्वर जैसे प्रसिद्ध तीर्थस्थल है। पूर्व में यह सदानीरा नदी लगभग 150 से 250 किमी क्षेत्र के वर्षाजल को प्राकृतिक रूप से समेटती हुई आसपास के क्षेत्र में हरितिमा विखेरती हुई गंगा में समाहित हो जाती थी। आज से मात्र बीस साल पूर्व वरूणा नदी काफी गहरी हुआ करती थी और वर्ष पर्यन्त जल से भरी रहती थी जिससे आस-पास के ग्रामवासी खेती, पेयजल दैनिक क्रियाकलाप, श्राद्ध तर्पण और पशुपालन के लिये इसी पर निर्भर रहते थे। वरूणा तट पर पाये जाने वाली वनस्पतियों नागफनी, घृतकुमारी, सेहुड़, पलाश, भटकैया, पुनर्नवा, सर्पगन्धा, चिचिड़ा, शंखपुष्पी, ब्राह्मी, शैवाल, पाकड़ के परिणाम स्वरूप वरूणा जल में विषहारिणी शक्ति होती थी जो एण्टीसेप्टिक का कार्य करती थी।
समय बीतने के साथ जनसंख्या के दबाव पर्यावरण के प्रति उदासीनता के चलते नदी सूखने लगी। इसे जिन्दा रखने के लिये नहरों से पानी छोड़ा जाने लगा लेकिन नहरों से पानी कम और सिल्ट ज्यादा आने लगी। नदी की सफाई होने से सिल्ट नदी में हर तरफ जमा हो गयी जिससे वरूणा काफी उथली हो गयी। परिणामत: अब झील और नदी में बरसाती पानी भी एकत्र नहीं हो पाता है और वरूणा अपने उद्गम से लेकर सम्पूर्ण मार्ग में सूखती जा रही है। कमोवेश यही हालत 20 किमी दूर भदोही जनपद तक है जहॉ नालों के मिलने से यह पुन: नदी के रूप में दिखाई देने लगती है। पुन: यही हालत वाराणसी में इसके संगम स्थल तक है। गुरूदेव रविन्द्र नाथ टैगोर ने सामान्य क्षत्रि में जिस जीवनदायिनी, मोक्षदायिनी वरूणा का विहंगम वर्णन कर आस्था के केन्द्र में इसे प्रतिष्ठापित किया वह आज राजघाट (सरायमुहाना) से फुलवरिया (39 जी टी सी कैन्टोमेन्ट) तक लगभग 20 किमी क्षेत्र तक बदबूदार गन्दे नाले में तब्दील हो जाती है। मात्र इस बीस किलोमीटर के क्षेत्र में बड़े-बडे़ सीवर , ड्रेनेज खुले आम बहते देखा जा सकता है। लोहता, कोटवा क्षेत्र में मल, सीधे घातक रसायन नदी में बहाये जा रहे है। वही शहरी क्षेत्र में लगभग 17 नाले प्रत्यक्षत: बरूणा में मल गन्दगी गिराते देखे जा सकते है। ऊपर से कोढ़ में खाज की तरह जनपद मुख्यालय से सटे वरूणा पुल पर से प्रतिदिन मृत पशुओं के शव और कसाईखाने के अवशेष, होटलों के अवशिष्ट पदार्थ वरूणा में गिराये जाते है। वरूणा के किनारे स्थित होटलों, चिकित्सालयों एवं रंग फैिक्ट्रयों कारखानों के सीवर लाइने प्रत्यक्ष अथवा भूमिगत रूप से इसमें मिला दी गयी है।
आज भी प्रतिदिन प्रात: काल तीन बजे से पॉच बजे के बीच होटलों और चिकित्सालयों के अपशिष्ट पदार्थ नदी में फेके जाते है। नदी किनारे का जीवन जीने की लालसा में नदी के किनारे पंचसितारा होटल, कालोनियां और बड़े इमारतों का निर्माण निरन्तर जारी है। इसके लिये खुलेआम वरूणा को पाटा जा रहा है। दुखद तो यह है कि ये सभी कार्य जनपद मुख्यालय से सटे एवं प्रशासनिक अधिकारियों के आवास के पास हो रहा है। इस पूरे सन्दर्भ में प्रशासन की भूमिका भी कम नकारात्मक नही है। पूरे शहर में नई सीवर ट्रंक लाईन बेनियाबाग से लहुराबीर होते हुये चौकाघाट पुल तक विछाई जा रही है जिसमें सिगरा से लेकर लहुराबीर तक नई ट्रंक लाईन मिलाई जा रही है। हालांकि इस पूरे सीवर लाईन को वरूणा नदी में बनाये जा रहे। पंपिंग स्टेशन में मिलाया जायेगा परन्तु फिलहाल यह सीवर सीधे वरूणा नदी में बहाया जा रहा है और बहाया जाता रहेगा। इसी प्रकार गंगा प्रदूषण नियन्त्रण इकाई के अधिकारिक सूचना के अनुसार शहर में कुल सीवर का उत्पादन 290 एम एल डी प्रतिदिन है परन्तु कुल 102 एम एल डी / प्रतिदिन का ही शोधन हो पाता है। शेष 188 एम एल डी सीवर प्रतिदिन सीधे गंगा वरूणा नदियों में बह जाता है। यह स्थिति विद्युत व्यवस्था रहने पर ही कारगर होती है और वाराणसी में विद्युतपूर्ति की स्थिति किसी से छिपी नही है।
वर्तमान समय में वाराणसी के पहचान देने वाली दूसरी नदी अस्सी भू-माफियाओं और सरकारी तन्त्र के उदासीनता के चलते समाप्त हो चुकी है। वह मात्र अपने ऐतिहासिक सन्दर्भो में ही जीवित है जबकि भौगोलिक धरातल पर उसका पता अब नाम मात्र को ही मिलता है। वही स्थिति आज वरूणा नदी की भी है। सोची समझी साजिश के तहत वरूणा को समाप्त करने का प्रयास किया जा रहा है। कभी नदी के तट से 200 मीटर दूर रहने वालों के मकान कोठियॉँ होटल नदी के बीचोबीच बन गये है। सदानीरा रहने वाली कलकल करती यह नदी आज गन्दी नाली के शक्ल में परिवर्तित हो चुकी है। पुराने पुल के पास इसे बॉध कर इसका प्राकृतिक स्वरूप ही समाप्त किया जा चुका है। आज की स्थिति में वरूणा भारत की सर्वाधिक प्रदूषित नदियों में से एक है जिसमें एक भी जीव जन्तु जीवित नहीं है। प्रयोगशाला के मानकों के अनुसार वरूणा नदी रासायनिक जॉच के सभी मानदण्डों को ध्वस्त कर चुकी है। भारत सरकार केन्द्रीय पर्यावरण मन्त्रालय ने इसे डेड रिवर्स मृत नदियों की सूची में शामिल कर लिया गया है और इसे मृत नदी मान लिया गया है। वरूणा जल में प्रदूषण का अन्दाजा मात्र इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि रासायनिक तत्वों के प्रभाव पद कार्य करने वाली संस्था टािक्सक लिंक के द्वारा वरूणा तट पर स्थित लोहता और शिवपुर में उगाई जा रही सिब्जयों के अध्ययन से यह निष्कर्ष प्राप्त हुआ है कि वरूणा जल में भारी तत्वों की मात्रा अत्यधिक है जिनमें जिंक, क्रोमियम, मैग्नीज निकाल कैडमियम कापर लेड की मात्रा विश्व स्वास्थ्य संगठनों के मानक से अत्यधिक है जो मानक जीवन के लिये अत्यन्त घातक है। वरूणानदी में कह रहे सीवर अपशिष्ठ पदार्थों के चलते तटवर्ती इलाकों का जल अत्यधिक प्रदूषित हो गया है जिससे आस-पास के इलाकों में पेट ऑत लीवर सम्बन्धी बीमारियों के साथ-साथ चर्म रोग बढ़ रहे है।
भौगोलिक और भू भौतिकी दृष्टि से वरूणा नदी के सूखने से आस पास के क्षेत्रों में भू-जल स्तर की समस्या गहराती ही जा रही है। वाराणसी भदोही जौनपुर में भूजल काफी तेजी से नीचे जा रहा है। प्रथम स्टेट पूरी तरह प्रदूषित हो चुका है। संक्षेप में कहे तो संपूर्ण स्थिति निराशाजनक है। भारतीय संस्कृति एवं दर्शन में नदी को मॉँ के समान माना गया है जो हमारे खेतों को हमारे फसलों को अमृत रूपी जल देती है। ऐसे में वरूणा का दु: हमारी मॉँ का दु: है। वरूणा हमारी मॉँ है और हम अपनी मॉँ पर आये संकट की अवहेलना नही कर सकते है।
(
लेखक हमारी वरूणा अभियान के संयोजक हैं.)

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