Friday, 17 September 2010

ganga ki ye kaisi safaie 16 sept 2010

गंगा में गिरने वाले जहरीले पानी से जल-जीवों मानव दोनों को खतरा पैदा हो चुका है। जहां जल-जीव मर रहे हैं, वहीं इस पानी से इंसानों की मौतें भी हो रही है। लोग पीलिया, दमा खुजली जैसे रोगों से पीड़ित हैं। गंगा में प्रदूषण को लेकर 1999 में केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के सिविल रिट पिटीशन नंबर 3727/1985 (एमसी मेहता बनाम केंद्र सरकार एवं अन्य) में इंटरलोकुटरी प्रार्थना पत्र पर संबंधित राज्य सरकारों से गंगा एक्शन प्लान के बारे में जवाब आया। इस पर 28 मार्च, 2001 को सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया कि गंगा में प्रदूषण को रोकने के वाटर ट्रीटमेंट प्लांट लगाए जाएं। गंदगी के स्रोतों को रोका जाए, जिसमें लाशों का बहाना औद्योगिक कचरा सीधे ही गंगा में डालना शामिल था। बोर्ड ने अपने प्रार्थना पत्र में कहा था कि गोमुख से बंगाल की खाड़ी तक 2,510 किलोमीटर में बहने वाली गंगा नदी में इसके किनारे बसे 12 बड़े शहरों सहित उत्तर प्रदेश (अब उत्तराखंड भी), बिहार पश्चिम बंगाल की नगरपालिकाओं, उद्योगों तथा अन्य लोकल बॉडीज द्वारा सारा कचरा सीधे गंगा में डालना ही गंगा प्रदूषण का मुख्य कारण है। इसे दूर करने के लिए कोर्ट ने आदेश दिया। अब तक 1500 करोड़ रुपया गंगा एक्शन प्लान पर खर्च होने के बाद भी गंगा में प्रदूषण कम नहीं हो रहा, बल्कि बढ़ा ही है। आज हालात यहां तक पहुंच चुके हैं कि 100 करोड़ लीटर गंदा पानी रोजाना गंगा में बह रहा है, जिसमें हरिद्वार बनारस जैसे धार्मिक स्थानों के कचरे के अलावा अकेले गाजियाबाद जिले की सिंभावली शराब मिल का मिथेन मिला हुआ पानी कानपुर के चमड़े की 15,000 (टेनेरी) इकाइयां गंगा में प्रदूषण का प्रमुख कारण हैं। उत्तर प्रदेश के अलावा बिहार में पटना की औद्योगिक रासायनिक गंदगी सिमरिया में मुंडन करवाने वालों का भी गंगा को गंदा करने में भारी सहयोग है। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने भी 5 मई, 1998 को गंगा की सफाई के लिए एक हाई पावर्ड कमेटी का गठन करने का आदेश दिया था, जो बनी भी, लेकिन कुछ खास काम नहीं कर पाई।केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अनुसार गंगा में पीने का जो जल है, उसमें कोलीफार्म की मात्रा 50 से कम नहाने योग्य जल में इसकी मात्रा 300 से कम, और खेती में प्रयोग होने वाले जल में 5,000 से कम होना चाहिए। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इस कोलीफार्म को कम करने के आदेश राज्य सरकारों को दिए, लेकिन आश्चर्य है कि आज गंगाजल में कोलीफार्म अन्य का स्तर चिंता का विषय है। गंगा नदी के किनारे करीब 30 करोड़ लोग बसे हुए हैं, जिसमें 1.8 करोड़ उत्तराखंड में और 17 करोड़ अकेले उत्तर प्रदेश में बसे हैं। और कुल गंगा की गंदगी का 60 प्रतिशत भाग इन्हीं दो राज्यों के हिस्से में है। जिसमें हरिद्वार, गढ़मुक्तेश्वर, विंध्याचल, इलाहाबाद, बनारस और सिमिरिया मुख्य बड़े हैं, जहां से तीर्थयात्रियों की गंद इतनी होती है कि इन धार्मिक स्थानों की कुल गंद का 40 प्रतिशत होती है। इसके अलावा गाजियाबाद से सिंभावली शराब मिल से एक नहर के बराबर मिथेन मिला जहरीला पानी निकलता है, जो वहीं 30 किलोमीटर दूर पूठ गांव में गिरता है। कानपुर में कम से कम 5,000 ट्रक लोड क्रोम निकलता है, जो जहरीला होता है। बनारस में बनारसी साड़ियों की प्रिंटिंग का रसायन भरा पानी भी कम जहरीला नहीं होता। इसके अलावा मिर्जापुर में कालीन बनाने का काम होता है और वहां लगभग 50,000 लीटर केमिकल का पानी रोज निकलता है। गाजियाबाद जिले में जिला मुख्यालय से 50 किलोमीटर दूर गढ़मुक्तेश्वर क्षेत्र में सिंभावली कस्बा है, जहां उद्योगपति सरदार गुरमीत सिंह मान की शुगर डिस्टिलरी मिलें हैं। सिंभावली शुगर मिल में जो शराब के प्लांट लगे हैं, उनसे जो जहरीला गंदा पानी निकलता है, उसे गंगा में डाला जाता है, जिसकी प्रतिदिन की निकासी गंगा की एक नहर के बराबर है। कंपनी रम व्हिस्की भी बनाती है। कंपनी के अधिकारियों ने कुछ ग्राम सभाओं के अध्यक्षों यूपी पोल्यूशन कंट्रोल बोर्ड के अधिकारियों को लालच देकर शराब बनाने की प्रक्रिया से निकलने वाले पानी को गंगा में डालना आरंभ कर दिया। इसके लिए कंपनी ने एक बड़ा नाला बनवाया जो बक्सर, जमालपुर, निचोड़ी, सियाना, लोंगा, सिहेल, बहादुरगढ़, आलमपुर, पसवाड़ा, नवादा आदि गांवों के पास से होते हुए अंत में पूठ गांव के पास गंगा नदी में गिरता है। इस पानी में शराब जैसी दुर्गंध आती है। जिसका कारण बताया गया कि इस पानी में मिथेन नामक जहर मिला होता है। कंपनी ने मिल के अंदर एक आरओ प्लांट भी लगाया हुआ है, जिसके साफ करने के बाद जो पानी निकलता है, उसे नाले में बहाकर गंगा में डाला जा रहा है। आरओ प्लांट से मिथेन नाम के जहरीले तत्व की मात्रा कम हो जाती है और जो मिथेन वहां निकलता है, उससे 20 हजार टन तक सालाना बायो कंपोस्ट तैयार की जाती है। सिंभावली शुगर मिल में लगी डिस्टिलरी मेंइथेनलभी तैयार किया जाता है और वह इतनी बड़ी मात्रा में तैयार होता है कि देश की बड़ी कंपनियां उसे खरीदती हैं। ऑक्सीजन होने से या कम होने से वहां जल जीवों का जिंदा रहना नामुमकिन-सा हो गया है। इसके अलावा सियाना में एक मिल्क प्लांट का रसायन भी गंगा में डाला जाता है, जो पानी की ऑक्सीजन को कम करता है। 2005 में वर्ल्ड वाइल्ड लाइफ फंड की संस्तुति पर गंगा नदी में 165 किलोमीटर के हिस्से मेंरामसर साइटकी घोषणा की थी, जिसमें राष्ट्रीय जल जीव डोलफिन से लेकर सभी प्रकार के जल जीवों की रक्षा के लिए सुरक्षा के व्यापक प्रबंध किए गये थे और उस क्षेत्र में इन जल जीवों को किसी भी प्रकार से मारने पर वाइल्ड लाइफ प्रोटेक्शन एक्ट 1972 के अंतर्गत कार्रवाई तक करने की संस्तुति की गई थी। उस समय यहां 126 डोलफिन थीं, जो अब मात्र 29 ही रह गई हैं। जहां यह जहरीला और गंदा पानी गंगा में पड़ रहा है, वहां हालत यह है कि मछलियां, कछुए चिड़ियां जिंदा नहीं रह पाते। रामसर साइट को खतरा पैदा हो चुका है। उसके कम से कम पांच किलोमीटर के दायरे में गंगाजल दूषित हो चुका है। और इस क्षेत्र में जल जीव सुरक्षित नहीं हैं। 30 किलोमीटर लंबे इस नाले में गंदगी का असर यह है कि उसमें किसी भी प्रकार का जलजीव नहीं है। यहां तक कि इस पानी को पीने से लोगों की भैंसे मर चुकी हैं और पांच बच्चे भी इस पानी के संपर्क में आने पर अपनी जान गंवा चुके हैं। पीलिया, दानेदार खुजली होना तो यहां के लोगों के लिए आम बात है। असर जमीन के पानी तक में है। हैंडपंप ट्यूबवेल तक से भी गंदा दूषित पानी ही निकलता है।


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