जीवनदायिनी नदियों पर खतरे के बादल
- अमितांशु पाठक
छायाएँ, पेड़, मकान, खेत और उगता हुआ सूरज सब जड़ हैं। उसे किसी ने आवाज देकर रोका नहीं। गाँव से पार होते ही उसे माँ की चीख सुनाई दी। उसने इधर-उधर दूर तक देखा। लगा किसी माँ की गोद से उसका बच्चा वक्त का दानव संग लिए चला जा रहा है।
उत्तरप्रदेश के पूर्वांचल को हराभरा रखने वाली एक दर्जन से ज्यादा नदियाँ मृतप्राय हो चुकी हैं। जो बची हैं उनके अस्तित्व पर खतरे के बादल मंडरा रहे हैं। गंगा समेत सभी नदियाँ या तो प्रदूषण की मार झेल रही हैं या सूख गई हैं। नदियों के सूखने एवं उनके जल स्तर में हो रही कमी की खबरें जिस तरह से आ रही हैं वे किसी त्रासदी से कम नहीं हैं।
पूर्वी उत्तरप्रदेश के जिलों में जिस तरह से भूजल स्तर गिरता जा रहा है एवं पानी का संकट गंभीर होता जा रहा है, यह चिंता का विषय है। इनमें से ज्यादातर नदियाँ गंगा की सहायक नदियाँ (ट्रिब्यूटरी) हैं। 'जल ही जीवन है' और 'पानी को बर्बादी से बचाएँ' जैसे लुभावने नारे तो सुनने और पढ़ने को मिलते हैं लेकिन कीमती जल को बचाने के प्रति न तो जनता गंभीर है, न ही सरकार।
नहाने, धोने, सिंचाई करने, पूजा-पाठ से लेकर सभी संस्कार आज भी इन्हीं नदियों के किनारे संपन्न होते हैं। इन जीवनदायिनी नदियों के सूख जाने से हमारी क्या दुर्दशा होगी शायद हमें अभी आभास नहीं हो रहा है। पानी का जीवन में क्या महत्व है यह नदियों के किनारे बसने वाले ही बता सकते हैं। धार्मिक नगरी वाराणसी को ही लें। शहर के मध्य बहने वाली दो पौराणिक नदियों वरुणा एवं असि (अस्सी) के बीच बसी काशी को वाराणसी नाम मिला है। काशी का तो अस्तित्व भी नहीं बचा है। दोनों नदियाँ गंदे नाले के रूप में परिवर्तित हो चुकी हैं। उनके जल से दुर्गंध आती है।
शहर की एक बड़ी आबादी का मल-मूत्र सीधे इन्हीं नदियों से होकर गंगा में सीधे गिर रहा है जो गंगा में प्रदूषण का मुख्य कारण है। नदी के दोनों किनारों पर लोगों ने कब्जा कर बड़ी-बड़ी अट्टालिकाएँ बना ली हैं। इन नदियों के अस्तित्व को बनाए रखने के लिए न सरकार गंभीर है और न ही जनता।
वरुणा में जलचर जीवों मछली एवं कछुआ के बारे में सोचना भी कल्पना मात्र है। ऐसा नहीं कि वरुणा की दुर्दशा के बारे में अधिकारियों एवं मंत्रियों को जानकारी नहीं है। जिले के अधिकारी वरुणा की सफाई एवं उसमें गिर रहे नालों को रोकने, नौका विहार एवं वृक्षारोपण जैसी योजना भी बनाते हैं लेकिन ये प्लान कागजों तक ही सीमित हैं। जिस वरुणा एवं असि के योग से काशी का नाम वाराणसी पड़ा उसमें गंदे नाले बेरोकटोक गिर रहे हैं। वरुणा एवं अस्सी में पानी की मात्रा कम कचरा ज्यादा नजर आता है।
जौनपुर में गोमती एवं पीली नदी का यही हाल है। गोमती की हालत खस्ता है। पीली नदी में पानी का नामोनिशान नहीं है। गाजीपुर में मगई नदी सूख चली है। नदी की तलहटी में धूल उड़ रही है। गड़ई, तमशा, विषही, चंद्रप्रभा एवं सोन नदियों की भी हालत बदतर है। गर्मी शुरू होते-होते ये नदियाँ सूख जाती हैं और उनमें केवल धूल उड़ती रहती है। इस बार भी वे नदियाँ सूख चुकी हैं। फैजाबाद में भी विषही एवं मडहा नदियों के पेटे तक लोग खेती करने लगे हैं।
इन नदियों के सूखने का सबसे बड़ा कारण यह है कि इनमें सिल्ट जमते-जमते ये छिछली हो गई हैं। बारिश के कुछ घंटे बाद ही इनका पानी बह जाता है। इस समस्या का अध्ययन करने वाले काशी हिंदू विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों की राय है कि जब तक इन नदियों में जमी सिल्ट को हटाकर गहरा नहीं किया जाएगा तब तक गहरे पानी की कल्पना करना बेमानी होगा। इन नदियों पर सैकड़ों गाँवों के लाखों लोगों की जिंदगी की गुजर-बसर आधारित है।
रामचरित मानस में वर्णित तमसा नदी का वजूद भी खतरे में है। आजमगढ़ में साल-दर-साल इसका जलस्तर गिरता जा रहा है। नदी का स्वरूप नाले जैसा हो गया है। मिर्जापुर में बहने वाली खजुरी नदी का भी अस्तित्व मिटने की कगार पर है। इन नदियों के सूखने से आम आदमी और पशुओं की पेयजल की भी समस्या पैदा हो गई है। पहले शहरवासी पानी के संकट से जूझते थे लेकिन अब तो ग्रामीण भी पानी की कमी की मार झेल रहे हैं। प्रतापगढ़ में सई नदी का पानी प्रदूषण से काला पड़ गया है। आदमी तो दूर, जानवर भी इस पानी को नहीं पीते।
नदियों की धारा बनाए रखने एवं इन्हें प्रदूषण से मुक्त करने की बात सरकारी तौर पर समय-समय पर की जाती है तथा तमाम योजनाएँ भी बनती रही हैं लेकिन कोई भी योजना कारगर रूप से नहीं लागू हो पाई। गंगा को प्रदूषण मुक्त करने के नाम पर सरकार ने अब तक तीन चरणों में अरबों रुपए खर्च किए हैं लेकिन खुद सरकारी आंकड़े बताते हैं कि प्रदूषण कम होने के बजाय और बढ़ा है। प्रख्यात पर्यावरणविद् महंत वीरभद्र मिश्र के अनुसार इन नदियों के तट पर हर साल वरुणा महोत्सव, तमसा महोत्सव, गोमती महोत्सव जैसे खर्चीले आयोजन कर सरकार अपने कर्तव्य को पूरा मान लेती है पर जब तक इन नदियों को बचाने के लिए कारगर मुहिम को जन आंदोलन का रूप नहीं दिया जाएगा तब तक नदियों को विनाश से बचाना संभव नहीं होगा।
देश की प्रमुख नदियों को जोड़ने की बात सालों से चल रही है लेकिन आज तक इस पर अमल नहीं हुआ। काशी हिंदू विश्वविद्यालय के पर्यावरणविद् प्रो. वी.डी. त्रिपाठी का कहना है कि नदियों का पर्यावरण संतुलन दिनोदिन बिगड़ रहा है जो मानव जीवन के लिए खतरे का संकेत है। नदियों का सीधा संबंध वायुमंडल से होता है। अत्यधिक जलदोहन एवं मल-जल की मात्रा बढ़ने से नदियों के जल में लेड, क्रोमियम, निकेल, जस्ता आदि धातुओं की मात्रा बढ़ती जाती है जो मानव जीवन के लिए खतरे की घंटी है।
काशी हिंदू विश्वविद्यालय के ही प्रो. यू.के. चौधरी का मानना है कि नदियाँ हमारी जीवन रेखा हैं। इन्हें हर कीमत पर बचाया जाना चाहिए। नदी का सीधा संबंध पानी, मिट्टी एवं वायु से होता है। अगर इन नदियों का अस्तित्व समाप्त हो गया तो गंगा एवं यमुना के हरे-भरे क्षेत्र को रेगिस्तान में बदलते देर नहीं लगेगी। न केवल पीने के पानी बल्कि खेती के लिए गंभीर समस्या पैदा हो जाएगी। वैज्ञानिकों का मानना है कि नदी के किनारे खेती होनी चाहिए। अगर उनके दोनों किनारों पर कब्जा करके अट्टालिकाएँ खड़ी की जाती रही, जैसा पूर्वी उत्तरप्रदेश की नदियों के तटों पर हो रहा है, तो नदियों की सांसें थम जाएँगी और हमारी जीवनदायिनी नदियाँ इतिहास के पन्नों तक सीमित रह जाएँगी।
SUNDAY MAGAZINE
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