Monday, 12 March 2012

राजस्व तालाबों की कब्जा मुक्ति उत्तर प्रदेश का एक प्रेरक शासनादेश लेखक: अरुण तिवारी

इस आदेश का उपयोग कर प्रतापगढ़ जिले के एक जिलाधिकारी ने तालाबों की कब्जा मुक्ति की बड़ी मुहिम छेड़ी थी। जिलाधिकारी के हटने पर वे फिर कब्जा होने शुरू हो गये। क्यों? क्योंकि प्रशासन उसे मूल स्वरूप में लौटाने के बजट आधारित कार्य कराने से चूक गया। जनता तालाबों के उपयोग से ज्यादा अपने लालच में फंसी रही। उत्तर प्रदेश के जिला बागपत के गांव डौला की तर्ज पर कई स्थानों पर निजी प्रयास के जरिए कब्जा मुक्ति की अच्छी कोशिशें हुई जरूर, किंतु ज्यादातर जगह प्रशासन आज भी अपेक्षा करता है कि कब्जा मुक्ति के इस प्रशासनिक दायित्व की याद दिलाने कोई उसके पास न आये। कब्जा मुक्ति के निजी प्रयास करने वालों को सहयोग करना या प्रोत्साहित करना तो दूर, प्रशासन निरुत्साहित ही ज्यादा करता है

जो जमीन राजस्व की है... पंचायती है; जो किसी एक की निजी नहीं, उस पर अपना हक जमाना एक जमाने से जबरों का जन्म सिद्ध अधिकार रहा है। इन जबरों में सरकारी दफ्तर भी खाली रहे हैं। उत्तर प्रदेश के मायने में यह बात कुछ ज्यादा ही लागू होती है। इस जन्म सिद्ध अधिकार के चलते शहरों की लाल डिग्गियों पर आज इमारतें खड़ी हैं। सीताकुण्ड कोई कुण्ड नहीं, मकानों का झुण्ड है। लालबाग की जमीन पर कोठियां हैं। गांवों में चारागाह नाम की कोई जगह नहीं है। जिस जगह पर कभी गांव का खलियान लगता था, उस पर किसी दबंग का अड्डा चलता है। दो लाठे के चकरोड सिकुड़कर दो फुट हो गये हैं। कागज पर दर्ज 60 बीघे रकबे का तालाब मौके पर 6 बीघे भी नहीं है। तालाब की कब्जा हुई जमीन पर बाग है, खेत है, मकान है, लेकिन तालाब नहीं है। “अब यह उपयोग में नहीं है’’ - यह कहकर अन्य उपयोग हेतु तालाबों, चारागाहों आदि सार्वजनिक उपयोग की भूमि के पट्टे करने में उत्तर प्रदेश के ग्राम प्रधानों ने खूब उदारता दिखाई है। सरकारी योजनाओं, लेखपालों और चकबंदी विभाग ने भी इसमें खूब भूमिका निभाई है। रिकार्ड खंगाले जायें, तो इतने कस्बे, सरकारी दफ्तर और उद्योग उत्तर प्रदेश के झील-तालाबों के हिस्से की जमीन मारकर बैठे दिखाई देंगे, कि गिनती मुश्किल हो जायेगी। निजी तालाब भी इसी अधिकार के शिकार होते रहे हैं।


ऐसे ही शिकार हुए तालाबों के एक मामले में सुप्रीम कोर्ट के आदेश ने रास्ता दिखाया। उस आदेश को आधार बनाकर उत्तर प्रदेश की राजस्व परिषद ने जो शासनादेश जारी किया, वह ऐतिहासिक भी है, और प्रेरक भी।

मामला है-सिविल अपील संख्या- 4787/2001, हिंचलाल तिवारी बनाम कमलादेवी, ग्राम उगापुर, तालुका आसगांव, जिला - संतरविदास नगर, उ. प्र. इस मामले में तालाबों की सार्वजनिक उपयोग की भूमि के समतलीकरण कर यह करार दिया गया था कि वह अब तालाब के रूप में उपयोग में नहीं है। इसी बिना पर तालाबों की ऐसी भूमि का आवासीय प्रयोजन हेतु आवंटन कर दिया गया था। इस मामले में दिनांक-25.07.2001 को पारित हुए आदेश कोर्ट ने जंगल, तालाब, पोखर, पठार तथा पहाड़ आदि को समाज की बहुमूल्य मानते हुए इनके अनुरक्षण को पर्यावरणीय संतुलन हेतु जरूरी बताया है। निर्देश है कि तालाबों को ध्यान देकर तालाब के रूप में ही बनाये रखना चाहिए। उनका विकास एवम् सौन्दर्यीकरण किया जाना चाहिए, जिससे जनता उसका उपयोग कर सके। आदेश है कि तालाबों के समतलीकरण के परिणामस्वरूप किए गए आवासीय पट्टों को निरस्त किए जायें। आवंटी स्वयं निर्मित भवन को 6 माह के भीतर ध्वस्त कर तालाब की भूमि का कब्जा ग्रामसभा को लौटायें। यदि वे स्वयं ऐसा न करें, तो प्रशासन इस आदेश का अनुपालन सुनिश्चित कराये।

यूं तालाब/पोखर के अनुरक्षण के संबंध में उत्तर प्रदेश राजस्व परिषद का पूर्व में भी एक आदेश था। किंतु सुप्रीम कोर्ट के उक्त आदेश का संज्ञान लेते हुए परिषद ने नये सिरे से 08 अक्तूबर को एक महत्वपूर्ण शासनादेश जारी किया। जिसकी याद दिलाते हुए परिषद के अध्यक्ष आदित्य कुमार रस्तोगी ने 24 जनवरी 2002 को पुनः पत्र जारी किया। तद्नुसार आवासीय प्रयोजन के लिए आरक्षित भूमि को छोड़कर किसी अन्य सार्वजनिक प्रयोजन की आरक्षित भूमि को आवासीय प्रयोजन हेतु आबादी में परिवर्तित किया जाना अत्यन्त आपत्तिजनक है। शासनादेश शीतकालीन भ्रमण के दौरान ऐसे मामले की जानकारी खुद करने, उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करने तथा सुप्रीम कोर्ट निर्णयानुसार कार्यवाही करने हेतु राजस्व विभाग के अधिकारी यानी लेखपाल, कानूनगो, तहसीलदार व उप जिलाधिकरियों को जिम्मेदारी देता है। ऐसी भूमि की सुरक्षा के लिए परिषद राहत कार्यों तथा पंचायती राज विभाग की योजनाओं के तहत् सार्वजनिक भूमि पर वृक्षारोपण, तालाबों की मेड़बंदी और उन्हें गहरा करने की जिम्मेदारी भी राजस्व विभाग को देता है।

जिलाधिकारियों व मंडलायुक्तों से स्वयंमेव निगरानी की भूमिका में आने की अपेक्षा करते हुए परिषद कहता है कि राजस्व विभाग के जो अधिकारी ऐसा न करें, भूराजस्व अधिनियम की धारा 218 के तहत् उनके विरुद्ध कार्यवाई की जा सकती है अथवा डी जी सी राजस्व के माध्यम से निगरानी का प्रार्थना की जा सकती है। मंडलायुक्तों की यह जिम्मेदारी है कि वे समय-समय पर इस बाबत् संबंधित जिलाधिकारियों से सूचना एकत्र कर अपनी आख्या के साथ राजस्व परिषद को एफ डी ओ में शामिल कर भेजते रहें। पंचायतीराज संस्थानों, जिला परिषद समितियों, जिला ग्रामीण विकास एजेंसियों, अधिवक्ता संघों आदि सभी पक्षों को सुप्रीम कोर्ट तथा परिषद के संबंधित आदेश से अवगत कराने, प्रचारित करने की अपेक्षा शासनादेश में की गई है। स्पष्ट है कि उत्तर प्रदेश राजस्व परिषद का उक्त शासनादेश सार्वजनिक उपयोग की भूमि को कब्जा मुक्त कर सिर्फ सुरक्षा सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी प्रशासन पर नहीं डालता, उसे उसके मूल स्वरूप में लौटाने का दायित्व भी सुनिश्चित करता है। इस आदेश का उपयोग कर प्रतापगढ़ जिले के एक जिलाधिकारी ने तालाबों की कब्जा मुक्ति की बड़ी मुहिम छेड़ी थी। जिलाधिकारी के हटने पर वे फिर कब्जा होने शुरू हो गये। क्यों? क्योंकि प्रशासन उसे मूल स्वरूप में लौटाने के बजट आधारित कार्य कराने से चूक गया। जनता तालाबों के उपयोग से ज्यादा अपने लालच में फंसी रही।

उत्तर प्रदेश के जिला बागपत के गांव डौला की तर्ज पर कई स्थानों पर निजी प्रयास के जरिए कब्जा मुक्ति की अच्छी कोशिशें हुई जरूर, किंतु ज्यादातर जगह प्रशासन आज भी अपेक्षा करता है कि कब्जा मुक्ति के इस प्रशासनिक दायित्व की याद दिलाने कोई उसके पास न आये। कब्जा मुक्ति के निजी प्रयास करने वालों को सहयोग करना या प्रोत्साहित करना तो दूर, प्रशासन निरुत्साहित ही ज्यादा करता है। अच्छा बस! इतना ही है कि अब तालाबों की सूची तथा रकबा आदि संबंधित जानकारियां कम्पयूटरीकृत की जा चुकी हैं। आर टी आई का माध्यम हमारे पास है। कोशिश करें, तो प्रशासन कार्रवाई को बाध्य होगा ही। उत्तर प्रदेश के हाईकोर्ट ने भी कई बार प्रशासन को इस बाबत् तलब किया है। रिपोर्ट मांगी है। किंतु दी गई कागज पर दी जानकारियां जमीनी हकीकत से आज भी मेल नहीं खाती हैं। चूंकि जमीनी जानकारी देने से पहले उस कब्जामुक्त कराने की जिम्मेदारी भी जानकारी देने वाले अधिकारी की है और उसने वह जिम्मेदारी नहीं निभाई है। प्रशासन इस जिम्मेदारी को निभाने को तब तक बाध्य नहीं होगा, जब तक कि समाज अपनी सार्वजनिक भूमि को कब्जामुक्त कराने की जिम्मेदारी निभाने आगे नहीं आयेगा। शासन ने रास्ता दिया है। प्रशासन को कार्यवाही करनी है। समाजसेवकों का काम उसे बाध्य करना है। समाजसेवक आगे आयें। समाज उनकी ताकत बढायें। कम से कम जो तालाब और जितना रकबा मौके पर बचा है, उसे तो बचायें। उत्तर प्रदेश ही नहीं, देश को भी पानीदार बनाने का यही रास्ता है।

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