वाराणसी, संवाददाता : गंगा का पानी अब स्नान की कौन कहे, आचमन योग्य भी नहीं रहा। गंगा की ऐसी दशा से आस्थाएं आहत हो रही हैं। ऐसे में संत समाज इसकी रक्षा के लिए अन्न-जल त्यागने पर विवश हो उठा है। इसके बाद भी ऐसी कोई सूरत नजर नहीं आ रही जो ऐसी स्थिति से निजात दिला सके। गंगा का पानी मैला से काला होता देख इस पवित्र नदी के अविरल-निर्मल होने की रही-सही उम्मीदों पर अब पानी फिरता जा रहा है। साथ ही गंगा को राष्ट्रीय नदी का दिया गया दर्जा और इससे जुड़े अरबों के एक्शन प्लान सिर्फ सफेद हाथी साबित हो रहे हैं। अब तो गंगा निर्मलीकरण अभियान से जुड़े विशेषज्ञ भी स्वीकारने लगे हैं कि गंगा की दशा काफी चिंताजनक है। स्थिति की गंभीरता का अंदाजा इससे भी लगाया जा सकता है कि राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण के वैज्ञानिक सदस्य व पर्यावरण विज्ञानी प्रो. बीडी त्रिपाठी ने भारत सरकार को पिछले दिनों बाकायदे पत्र लिख कर ताकीद की है कि गंगा की निर्मलता अविरलता खतरे में है। इसके संरक्षण की दिशा में त्वरित व ठोस कदम न उठाए गए तो इसे मैला ढोने वाली नदी में तब्दील होने से नहीं रोका जा सकेगा। प्रो. त्रिपाठी का मानना है कि गंगा की बिगड़ती दशा के पीछे प्रॉपर प्लॉनिंग का अभाव है। बताया कि गंगा का पानी मैला से अब काला होता जा रहा है। यह इस बात का संकेत है कि इसमें पेपर व टेक्सटाइल्स मिलों का केमिकल युक्त पानी अधिक मात्रा में गिराया जा रहा है। प्रवाह के दौरान नदी में जहां-जहां गहराई अधिक होगी वहां पानी कुछ ज्यादा ही काला नजर आएगा। पिछले दिनों करायी गई जांच में पाया गया कि घुलित कार्बनिक पदार्थो के साथ-साथ इसके ठोस भी काफी मात्रा में मौजूद हैं। ये जल जीवों के साथ ही जन स्वास्थ्य की दृष्टि से भी खतरे की घंटी है। जांच के ही दौरान गंगा के पानी में घुलित आक्सीजन (डीओ) की मात्रा जहां कम से कम छ: मिलीग्राम प्रति लीटर होनी चाहिए वहीं इसकी मात्रा घट कर एक मिलीग्राम तक जा पहुंची है। इसी तरह बीओडीएल भी मिनिमम तीन मिलीग्राम से बढ़ कर 25 से 35 मिलीग्राम तक पहुंच चुका है। इसके लिए गंगा के अपस्ट्रीम में मिलने वाली उत्तराखंड की दो सहायक नदियों (ढेला व रामगंगा) को सबसे बड़े कारण के रूप में देखा जा रहा है। इन दोनों नदियों में काफी मात्रा में पेपर व टेक्सटाइल मिलों का केमिकल युक्त पानी बिना ट्रीटमेंट किए गिराया जाता हैं। वही पानी अब गंगा को और प्रभावित कर रहा है। दूसरी तरफ माकूल प्रबंध का अभाव और आबादी विस्तार के चलते स्थानीय स्तर पर भी गंगा में मलजल का विस्तार 250 एमएलडी तक जा पहुंचा है। ऊपर से बांध व नहरों के जरिए बेहिसाब जल दोहन से इसके पाट सिकुड़ते जा रहे हैं और नदी छिछली होती जा रही है। चिंता की बात तो यह है कि पानी का स्तर गिरने से प्रदूषकों की मात्रा बढ़ती जा रही है। साथ ही गंगा की पाचन क्षमता भी घटती जा रही है। गंगा शोध व प्रबंधन संस्थान का शुभारंभ अब 26 अप्रैल को गंगा की मजबूत निगहबानी के साथ ही इस पवित्र नदी पर शोध, तकनीकी प्रशिक्षण के मसौदे को 12 मार्च को मूर्तरूप देने की योजना फिलहाल टल गई। यह आयोजन अब 26 अप्रैल को होगा। संस्था के संस्थापक सदस्य प्रो. यूके चौधरी के अनुसार गंगा पर शोध व प्रबंधन के लिए देश के प्रमुख साधु-संतों, विचारकों और विशेषज्ञों के संयुक्त प्रयास से काशी की धरती पर दुर्गाकुण्ड के निकट ब्रंाानंद कालोनी में गठित महामना मालवीय इंस्टीच्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी फार गंगा मैनेजमेंट का शुभारंभ 12 मार्च को होना था लेकिन समारोह के कई संतों व विशेषज्ञों की व्यस्तता के चलते तिथि अब आगे बढ़ा दी गई है।
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