वाराणसी। कभी पानी की दौलत से आबाद काशी नगरी के अब बेपानी होने का खतरा मंडराने लगा है। असि नदी नाले में लुप्त हो चुकी है, वरुणा नाला बनने के कगार पर है तो गंगा भी पाताल की ओर रुख करती जा रही हैं। हालात यही रहे तो वह समय दूर नहीं जब हमारे सामने एक तरफ होगा विशाल नाला तो दूसरी तरफ अकाल जैसे हालात।
विशेषज्ञ लगातार चेताते आ रहे हैं कि गंगा को बचाना ही संभावित संकटों का एक मात्र विकल्प है। यहां बताते चलें कि जो ढाल वर्षा जल को नदी की ओर निस्तारित करे वह भू-भाग उस नदी का बेसिन होता है। यह निस्तारण सतही और भूमिगत जल के रूप में होता है।
ये प्रमुख रूप से चार होते हैं। एक बेसिन की ढाल, दूसरा बाढ़ क्षेत्र का ढाल, तीसरा किनारे का ढाल और चौथा नदी के तल का ढाल। इसे गंगा की शक्ति भी कहते हैं। ये चारो ढाल ही वातावरण को संतुलित करने के साथ नदी की व्यवस्था को भी नियंत्रित करते हैं। अब इसे काशी नगरी और गंगा के संदर्भ में देखा जाए तो पहले यह नगरी तीन नदियों से घिरी थी। पूरब में गंगा, दक्षिण में असि और उत्तर में वरुणा। ढाल के हिसाब से ही ये तीनों नदियां अपने-अपने बेसिन क्षेत्र को पानी से लबालब किये रहती थी। गर्मी के दिनों में जब इनका जलस्तर गिरता था तो इनके बेसिन क्षेत्र के तालाब, कुंड, कुएं अपना पानी देकर गंगा के जलस्तर को बरकरार रखते थे। बेहिसाब जल दोहन और शहर भर का अवजल गिराए जाने से असि नदी का स्वरूप बदल कर नाले में तब्दील हो गया। इस नदी की भूमि पर देखते-देखते कंक्त्रीट की इमारतें खड़ी हो गई।
कमोवेश गंगा और वरुणा भी दिनों दिन इसी गति की शिकार होती जा रही है। पहले गंगा का दोहन सीमित था तो प्रदूषक तत्वों का गंगा की ओर निस्तारण भी कम हुआ करता था। कुंड, तालाब, कुएं आदि गंगा के वॉटर बैंक हुआ करते थे, जो गर्मी के दिनों में भूमिगत जल के रूप में अपनी सेवा देकर गंगा के जलस्तर को गिरने नहीं देते थे तो बेसिन क्षेत्र भी स्वाभाविक रूप से संतुलित था। इधर के दिनों में गंगा के बेसिन क्षेत्र को बिना व्यवस्थित किए अवैज्ञानिक तरीके से जहां गंगा जल का दोहन शुरू हुआ तो प्रदूषक तत्वों का भार भी बेहिसाब बढ़ा। गंगा के वॉटर बैंकों का वजूद भी समाप्ति के कगार पर हैं। ऐसे में बेसिन क्षेत्र भी असंतुलित और अव्यवस्थित होता जा रहा है, जो सूखती गंगा, भूमिगत जलस्तर में गिरावट और अव्यवस्थित पर्यावरण के रूप में हमारे सामने है।
1.5 मीटर की रफ्तार से घट रहा भूमिगत जलस्तर-बीएचयू में गंगा अन्वेषण केंद्र के संस्थापक रहे प्रो. यूके चौधरी ने बताया कि गंगा बेसिन से 1.5 से 2.00 प्रतिशत की रफ्तार से मृदा क्षरण बढ़ता जा रहा है। गंगा बेसिन का भूमिगत जल स्तर 1.5 से 2.5 मीटर प्रतिवर्ष की रफ्तार से गिरता जा रहा है।
गंगा बेसिन की उर्रवा शक्तियां उसी अनुपात में घटती जा रही हैं जिस अनुपात में गंगा नदी का जल स्तर घटता जा रहा है। बताया कि यहां यह जान लेना भी जरूरी होगा कि सतही जल के निस्तारण क्त्रिया को रोकना बाढ़ नियंत्रण होता है और भूमिगत जल के भंडार को बढ़ाना अकाल नियंत्रण होता है। यदि वर्षा के पूर्व कुंड, तालाब और कुएं को एक बार फिर वजूद में ला दिया गया तो भूमिगत जल भंडार इस स्तर तक बढ़ाया जा सकता है कि अनावृष्टि का कोई प्रभाव गंगा बेसिन पर न पड़े। और फिर जब भूमिगत जलाशय के स्तर में वृद्धि होगी तो नदी के न्यूनतम जल प्रवाह की जरूरत स्वत: पूरी होने लगेगी। यही संतुलन पर्यावरण को भी संतुलित बनाएगा।
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