"गंगा एक्शन प्लान" के सूत्रधार प्रो. बी.डी. त्रिपाठी की चेतावनी
अनर्थ हो जाएगा!!
प्रो. बी.डी. त्रिपाठी देश के जाने-माने पर्यावरण विशेषज्ञ हैं। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के वनस्पति शास्त्र विभाग में पिछले 30 वर्षों से गंगा, पर्यावरण आदि विषयों पर वह अध्ययन-अध्यापन एवं अनुसंधान कर रहे हैं। प्रो. त्रिपाठी को राष्ट्रपति द्वारा "पर्यावरण मित्र" का पुरस्कार भी मिल चुका है। गंगा के प्रदूषण मुक्ति अभियान के लिए केन्द्र सरकार द्वारा बनाए गए "गंगा एक्शन प्लान" से उनका प्रारंभ से ही जुड़ाव रहा है। 1981 में संसद में श्री एस.एम. कृष्णा ने गंगा में बढ़ते प्रदूषण पर जो पहला प्रश्न पूछा था, वह प्रो. त्रिपाठी के अनुसंधान पर ही आधारित था। प्रो. त्रिपाठी ने उसी समय चेताया था कि गंगा में प्रदूषण बढ़ रहा है, सरकार और समाज इस ओर ध्यान दे। प्रो. त्रिपाठी राष्ट्रीय पर्यावरण संरक्षण परिषद के अध्यक्ष भी हैं और प्रयाग उच्च न्यायालय द्वारा "गंगा एक्शन प्लान" के तकनीकी विशेषज्ञ भी नियुक्त किए गए हैं। यहां प्रस्तुत है उनसे "गंगा एक्शन प्लान" और टिहरी बांध के पर्यावरणीय पहलुओं पर हुई बातचीत के मुख्य अंश -
वैज्ञानिक प्रयोगों द्वारा यह सिद्ध किया जा चुका है कि गंगाजल अद्भुत विशेषताओं से युक्त है। इसके जल में आक्सीजन की मात्रा बहुत ज्यादा होती है तथा इसमें बैक्टीरियोफाज पाया जाता है, जिससे इसके जल में कीड़े नहीं पड़ते। पड़ते भी हैं तो यह बैक्टीरियोफाज उन्हें समाप्त कर देता है। यानी इसमें प्रदूषण को दूर करने की अपनी ताकत है, जो किसी अन्य नदी में नहीं पाई जाती। इसीलिए हमारे पुरखों ने गंगा जल को औषधि कहा, इसके गुण गाए।
टिहरी बांध के अधिकारियों का यह कहना कि एक पाइप द्वारा गंगा की अविरल धारा जारी है, मुझे तरस आता है। यह तो वैसे ही हुआ कि मानो वरुणा नदी में आठ-दस बाल्टी गंगा जल छोड़कर हम कहें कि लीजिए साहब, वरुणा नदी अब गंगा हो गई। यह कहते हुए उन्हें शर्म भी नहीं आती।
सरासर झूठ बोला जा रहा है। गंगा का मूल प्रवाह ही वास्तव में रोक दिया गया है। इसका प्रभाव विनाशकारी होगा। वस्तुत: हमारे पापों की सजा गंगा को मिल रही है। लेकिन शीघ्र ही लोगों को समझ में आएगा कि हम अनर्थ की ओर बढ़ रहे हैं। इसका असर उत्तर भारत, विशेषत: उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल की कृषि पर भी होगा। यहां के पौधे गंगा जल की गुणवत्ता से वंचित होंगे। जल की गुणवत्ता का पौधे पर काफी असर होता है।
जहां तक "गंगा एक्शन प्लान" का विषय है, 1981 में प्रधानमंत्री (स्व.) श्रीमती इंदिरा गांधी के समय इसकी शुरुआत हुई थी। इन्दिरा गांधी 1981 में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में 68वीं विज्ञान कांग्रेस का उद्घाटन करने आई थीं। उनके साथ भारतीय कृषि वैज्ञानिक एवं योजना आयोग के सदस्य डा. एम.एस. स्वामीनाथन भी थे। उस समय दोनों लोगों ने मुझे बुलाकर गंगा में बढ़ते प्रदूषण पर जानकारी ली थी। इन्दिरा जी ने उस समय कहा था कि हर हाल में गंगा में बढ़ता प्रदूषण रुकना चाहिए। दिल्ली लौटकर उन्होंने उत्तर प्रदेश, बिहार व प. बंगाल के मुख्यमंत्रियों को इस सन्दर्भ में पत्र लिखा ताकि गंगा में प्रदूषण रोकने के लिए एक समग्र कार्यक्रम शुरू हो सके। बाद में श्री राजीव गांधी ने गंगा को प्रदूषण मुक्त करने का मुद्दा कांग्रेस के चुनाव घोषणा पत्र में डाला और 1984 में कांग्रेस सरकार बनने के बाद "गंगा एक्शन प्लान" बना। इसके अन्तर्गत केन्द्र सरकार ने 500 करोड़ रुपए भी तत्काल स्वीकृत कर दिए और काशी, कानपुर और पटना में बड़े-बड़े मल व्ययन संयन्त्र (सीवेज ट्रीटमेन्ट प्लान्ट) के निर्माण का कार्य प्रारम्भ कर दिया गया। उस समय मैंने इस योजना की खामियों की ओर सरकार का ध्यान आकृष्ट किया और पत्र लिखकर कहा कि, "जल्दबाजी में गंगा प्रदूषण नियंत्रण का कार्य प्रारम्भ मत करिए। इस सन्दर्भ में कोई योजना बनाने के पूर्व वैज्ञानिकों की टीम से विचार-विमर्श अवश्य हो, ताकि जो भी कार्यक्रम बने वह परिणामकारी हो।" लेकिन मेरी बात अनसुनी कर दी गई। परिणाम यह निकला कि करीब 5-6 वर्षों के बाद वाराणसी मल व्ययन संयन्त्र के महाप्रबंधक ने हस्तक्षेप करने पर उच्च न्यायालय को बताया कि, " उद्योगों से जो भारी प्रदूषक तत्व गंगा में डाले जा रहे हैं, हमारा संयन्त्र इस प्रदूषण को दूर कर पाने में अक्षम है।" तब उच्च न्यायालय ने तकनीकी विशेषज्ञ के रूप में मुझसे सलाह ली थी। मैंने न्यायालय के समक्ष तब यही कहा था कि, "ये सही बात है कि यह संयन्त्र गंगा में औद्योगिक प्रदूषण को दूर कर पाने में अक्षम है। लेकिन इसकी जानकारी तो सरकार को हमने पहले ही दे दी थी।" मैंने न्यायालय के समक्ष यह भी कहा कि, "यह जानते हुए भी कि प्रदूषण कम होने की बजाय बढ़ रहा है, सरकार ने 500 करोड़ रुपए का व्यय गंगा-प्रदूषण रोकने के नाम पर क्यों किया?" मेरे इसी तर्क पर उच्च न्यायालय ने "गंगा एक्शन प्लान" के द्वितीय चरण का 1200 करोड़ रुपया, जो स्वीकृत किया जा चुका था, रोकने का आदेश दिया। न्यायालय ने छह सदस्यीय समिति बनाकर यह भी कहा कि जो भी कार्यक्रम आगे बनेगा, इस समिति की संस्तुति पर ही बनेगा। लेकिन सरकारी रवैया ढुलमुल ही रहा।
मुझे दु:ख होता है कि सरकार ने गंगा के सवाल पर सदैव अदूरदर्शिता ही दिखाई है। वैज्ञानिकों- विशेषज्ञों के प्रामाणिक अनुसंधानों को दरकिनार कर योजनाओं का क्रियान्वयन किया गया है। टिहरी बांध के विषय में भी मैंने विरोध किया, कई अन्य वैज्ञानिकों ने विरोध जताया। इसके विपरीत कुछ वैज्ञानिकों की टोली ने सर्वोच्च न्यायालय में रपट दाखिल की थी कि टिहरी बांध से पर्यावरण पर कोई बुरा प्रभाव नहीं पड़ेगा। मैं मानता हूं कि ऐसी रपटें देने वाले ये लोग वैज्ञानिक नहीं, सरकार के आश्रित- जीवी हैं। सरकार जब चाहती है अपने उपकृत वैज्ञानिकों द्वारा मनमाफिक रपट बनवा लेती है। मैं किसी का नाम नहीं लेना चाहता लेकिन ये जरूर कहूंगा कि जिन लोगों ने कभी गंगा को देखा नहीं, कभी गंगा पर जिन्होंने कोई अनुसंधान कार्य नहीं किया, सरकार की नजरों में वही आज गंगा- विशेषज्ञ हैं, वैज्ञानिक हैं।
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