वाराणसी। गूगल सर्च कर दुनिया के हर सवालों को जवाब देने वाले कंप्यूटर दा लोगों के सामने भी लाख टके का एक सवाल अनुत्तरित है कि असि (अस्सी) नदी गई कहां। हरहराती वरुणा नदी अचानक मैला ढोने वाले बडे नाले में तब्दील कैसे हो गई। लगभग 35 करोड लोगों को जीवन देने वाली गंगा का यह हाल हुआ कैसे। इस सवाल से ही जुडे दूसरे सवाल का जवाब भी गायब है कि क्या कोई इस बात की गारंटी दे सकता है कि आने वाले दिनों में गंगा का हाल भी असि नदी जैसा नहीं हो जाएगा। सवाल खडे होने की वजहें बिल्कुल साफ हैं। यह शहर पहले ही अपनी एक नदी खो चुका है। बात सुनने में हैरतअंगेज भले ही लगे पर सच यही है कि बनारस के भूगोल से असि का इतिहास तकरीबन मिट चुका है। हैरत की कुछ वजहें और भी हैं। मसलन कुआं, सडक, खेत, खलिहान यहां तक कि पगडंडियों व नाला-नालियों तक का हिसाब रखने के लिए पटवारी से लगायत कलेक्टर तक के भारी भरकम अमले की ऐन नजर के सामने से अचानक एक मुकम्मल नदी असि गायब हो गई, .कैसे, सवाल का जवाब नदारद है। असि नदी के अवसान की दर्द भरी दास्तान कोई पौराणिक युग की घटना नहीं है। यह सब कुछ हुआ है चार पांच दशक के अंदर। अब वरुणा नदी भी उसी राह पर है। कमाल यह भी है कि इन्हीं दो नदियों के नाम पर इस शहर का नाम वाराणसी रखा गया, आज यही दो नदियां धरातल से हटकर इतिहास में अमर होने के मुहाने पर खडी हैं।
अब बारी गंगा की- किसी भी बडी नदी को प्रवाहमान रखने के लिए प्रकृति का अपना एक सिस्टम होता है। छोटी नदियां उससे संगम कर उसे प्रवाह प्रदान करती हैं। गंगा के साथ भी ऐन यही है। बिल्कुल सामान्य समझ वाली बात है कि वाराणसी नगर के सामनेघाट छोर पर असि नदी का जल गंगा को फोर्स देता था। इससे नगर की गंदगी आगे बढ जाती थी। पुन: आदिकेशव घाट छोर पर वरुणा नदी का जल गंगा में संगम कर गंदगी को और आगे बढा देता था। अब असि रही नहीं। वह नगवा नाले के रूप में हो गई। इससे उस गंगा का पूरा प्रवाह ही बाधित हो गया जो टिहरी के चलते वैसे ही तमाम बाधाओं का सामना कर रही है। पानी की भारी किल्लत ने अब गंगा को अपनी चपेट में ले लिया है। अफसोस यह कि स्थानीय प्रशासन गंगा के मसले को केंद्र का मामला बताकर बडे आराम से पल्ला झाडता रहा है लेकिन स्थानीय असि व वरुणा नदी के मामले में .जो कि पूरी तरह स्थानीय अफसरों की जिम्मेदारी है, एकदम मौन साध लेता है। उदासीनता और कर्म बोध के प्रति गैर जिम्मेदाराना रूख ने जल समृद्ध काशी को अब जल कंगाली के उस मुहाने पर लाकर खडा कर दिया है जहां से उबरने के लिए एक भगीरथ प्रयास की आवश्यकता महसूस होती है। संत समाज का अविरल-निर्मल गंगा अभियान इसी दिशा में एक प्रयास है। विशेषज्ञों की अनदेखी से हाल खराब बीएचयू में गंगा रिसर्च सेंटर के संस्थापक प्रो. यूके चौधरी कहते हैं कि विशेषज्ञ लगातार चेताते रहे हैं कि काशी की नदियों का भविष्य खतरे में है। असि तो नाला में तब्दील हो चुकी है, यदि गंगा और वरुणा को नहीं बचाया गया तो काशी को भी नहीं बचाया जा सकेगा। बकौल प्रो. चौधरी 15 वर्षो से वह शासन प्रशासन को अगाह करते आ रहे हैं कि नदियों का आपसी तालमेल जिस अनुपात में बिगडेगा, उससे जुडी काशी की स्थिरता व भूमिगत जल उपलब्धता उसी अनुपात में बिगडती चली जाएगी। इसके बाद भी हुक्मरानों की तंद्रा भंग नहीं हुई। नतीजा, काशी में सिमटती सिकुडती और बडे नाले के रूप में तब्दील हो रही यह नदियां सबके सामने हैं।
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Tuesday, 12 June 2012
एक दिवंगत नदी के सबक.
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