Wednesday, 29 December 2010
Unicolour meeting point of Ganga, Yamuna Similar Water Colour Due To High Pollution Makes Identification of Their Meeting Point Difficult
TOI visited the Sangam on Monday to get a feel of the existing situation. It was found that the water of both the river has drastically changed the colour. “ We all know that the colour of Ganga has always been muddish while that of Yamuna is dark green and the same was quiet visible till last year. But this year it is very hard to make out the difference the meeting point,” Papu Nishad, a boatman said.
Recently, the media had reported that Ganga is turning blackish in colour and that was due to the effluents of paper mills situated along the Dhela, Kosi and Ramganga rivers, the tributaries of the Ganga in Uttarakhand.
“After getting the news, our department checked the sample of water at Moradabad and found that it was polluted because of which the river could have changed its colour. Later, the pollution control board wrote to authorities concerned. The effluents are being checked and the level of pollution has come down, but since the volume of water in Ganga has declined, the amount of silt has increased.
These two factors, acting simultaneously, are responsible for the present colour of water in Ganga,” an official of UP pollution control board said.
The pollution in Yamuna and its tributaries is also increasing. More the pollution, more are the chances that the river water would lose its original colour i.e. dark green, said A K Rai, who has done extensive research on the pollution of Ganga in Kanpur. “I have come back to Allahabad after five years with my friends to see the different colours of the two rivers. But after coming to Sangam, I am confused as to where is the meeting point of the two rivers. The water of both Ganga and Yamuna is more or less the same colour,” said an AU alumni.
LOST IDENTITY: (Above and inset) The meeting point of the two rivers (Sangam) where it is hard to identify the difference in colour
असि : नदी से नाला, अब नाली
Monday, 27 December 2010
तय करिए अब वाराणसी का नया नाम
वाराणसी : भौतिक सुख के चरम स्पर्श को लालायित रहने वाले हमारे मन ने न सिर्फ परिजनों को दुखी किया वरन पर्यावरण को भी भारी क्षति पहुंचाई है। इन सबमें सबसे भयानक मानवीय प्रवृत्ति, अतिक्रमण ने बला की हद तक काशी के भूगोल संग इतिहास को बदला है। हम अपनी एक नदी अस्सी, जिसे कुछ लोग असि, असी भी कहते हैं, का अवसान देख चुके हैं। यह नदी अब दो फीट, वह दो फीट जिसमें मुकम्मल 24 इंच ही होते हैं, की नाली में कन्वर्ट हो चुकी है। दूसरी नदी वरुणा भी उसी डगर पर है। वरुणा का हश्र देखना हो तो नगर के पुराना पुल पर आपका स्वागत है। सन 1955 से मई 1956 के बीच 15 लाख 50 हजार रुपये मात्र की लागत से बनकर तैयार यह पुल किसी दौर में वरुणा की भव्यता को प्रतिबिंबित करता था। तत्कालीन मुख्यमंत्री डा. सम्पूर्णानंद ने दूर से आने वाले लोगों के लिए तब इसका निर्माण करवाया था जब सारनाथ में प्रथम बौद्ध महोत्सव आयोजित होना था। तत्कालीन सिंचाई मंत्री पंडित कमलापति त्रिपाठी ने इस पुल को बैराज का स्वरूप प्रदान करने का अनुरोध किया ताकि इस नदी से सिंचाई व्यवस्था का लाभ लिया जा सके। मुख्यमंत्री ने अनुरोध स्वीकारते हुए पुल को वैसा ही आकार दिया और इस तरह 7 फाटकों वाली यह सुंदर रचना आज हमारे सामने है।
पेच कहां फंसा : दरअसल बैराज बनना अपने आप में इस बात का प्रमाण है कि इस नदी में कभी कितना पानी रहा होगा। आखिर सिंचाई परियोजना हवा में तो चल नहीं जायेगी। आज मंजर बदल चुका है। आप पुराना पुल पर खड़े हो जायें, बैराज के बंद फाटकों के एक तरफ वरुणा में नाले नालियों व सीवर का पानी लबालब दिखलाई देगा वहीं पुल के दूसरी ओर बैराज फाटकों से रिसता बदबूदार झागयुक्त दो-चार बाल्टी पानी घिसटता हुआ गंगा की ओर बहता दिखेगा। आखिर एक मुकम्मल नदी चली कहां गई। यदि वरुणा के सभी सीवर, नालों व नालियों को बंदकर दिया जाय तो यह फटी हुई धरती के अलावा कुछ नहीं। उद्गम से लेकर संगम तक वरुणा का ऐसा कबाड़ा आखिर हो कैसे गया। जानकार बताते हैं कि तमाम प्राकृतिक बरसाती जलस्त्रोत कंक्रीट निर्माण के चलते नष्ट हो गये, शहर की गंदगी ने वाटर होल को पैक कर दिया और नदी के कचड़े ने पानी को जमीन में जब्त करने की हैसियत से महरूम कर दिया। अगर आपको याद हो, कुछ बरस पूर्व चौकाघाट के ध्वस्त हुए पुल का मुकम्मल मलबा आज भी नये पुल के नीचे नदी में ही दफन है। पुल के साथ ही गिरे एक कई चक्का ट्रक को हफ्तों बाद निकाला जा सका था, मलबा आज भी नदी में है। ऐसी ही तमाम दास्तानें हैं जिन्होंने मिल जुलकर नदी का कबाड़ा कर दिया।
हालात यह हैं कि जिन दो नदियों वरुणा व असी के नाम पर नगर का नाम वाराणसी पड़ा था, उनमें से एक नदी असी का अवसान हो चुका है, वरुणा भी उसी डगर पर है। गंगा का हाल हम सब देख ही रहे हैं। आखिर कोई भगीरथ इस शहर में सामने आयेगा भी ..या कि फिर अब इस शहर का नाम ही बदला जाए
तय करिए अब वाराणसी का नया नाम
वाराणसी : भौतिक सुख के चरम स्पर्श को लालायित रहने वाले हमारे मन ने न सिर्फ परिजनों को दुखी किया वरन पर्यावरण को भी भारी क्षति पहुंचाई है। इन सबमें सबसे भयानक मानवीय प्रवृत्ति, अतिक्रमण ने बला की हद तक काशी के भूगोल संग इतिहास को बदला है। हम अपनी एक नदी अस्सी, जिसे कुछ लोग असि, असी भी कहते हैं, का अवसान देख चुके हैं। यह नदी अब दो फीट, वह दो फीट जिसमें मुकम्मल 24 इंच ही होते हैं, की नाली में कन्वर्ट हो चुकी है। दूसरी नदी वरुणा भी उसी डगर पर है। वरुणा का हश्र देखना हो तो नगर के पुराना पुल पर आपका स्वागत है। सन 1955 से मई 1956 के बीच 15 लाख 50 हजार रुपये मात्र की लागत से बनकर तैयार यह पुल किसी दौर में वरुणा की भव्यता को प्रतिबिंबित करता था। तत्कालीन मुख्यमंत्री डा. सम्पूर्णानंद ने दूर से आने वाले लोगों के लिए तब इसका निर्माण करवाया था जब सारनाथ में प्रथम बौद्ध महोत्सव आयोजित होना था। तत्कालीन सिंचाई मंत्री पंडित कमलापति त्रिपाठी ने इस पुल को बैराज का स्वरूप प्रदान करने का अनुरोध किया ताकि इस नदी से सिंचाई व्यवस्था का लाभ लिया जा सके। मुख्यमंत्री ने अनुरोध स्वीकारते हुए पुल को वैसा ही आकार दिया और इस तरह 7 फाटकों वाली यह सुंदर रचना आज हमारे सामने है।
पेच कहां फंसा : दरअसल बैराज बनना अपने आप में इस बात का प्रमाण है कि इस नदी में कभी कितना पानी रहा होगा। आखिर सिंचाई परियोजना हवा में तो चल नहीं जायेगी। आज मंजर बदल चुका है। आप पुराना पुल पर खड़े हो जायें, बैराज के बंद फाटकों के एक तरफ वरुणा में नाले नालियों व सीवर का पानी लबालब दिखलाई देगा वहीं पुल के दूसरी ओर बैराज फाटकों से रिसता बदबूदार झागयुक्त दो-चार बाल्टी पानी घिसटता हुआ गंगा की ओर बहता दिखेगा। आखिर एक मुकम्मल नदी चली कहां गई। यदि वरुणा के सभी सीवर, नालों व नालियों को बंदकर दिया जाय तो यह फटी हुई धरती के अलावा कुछ नहीं। उद्गम से लेकर संगम तक वरुणा का ऐसा कबाड़ा आखिर हो कैसे गया। जानकार बताते हैं कि तमाम प्राकृतिक बरसाती जलस्त्रोत कंक्रीट निर्माण के चलते नष्ट हो गये, शहर की गंदगी ने वाटर होल को पैक कर दिया और नदी के कचड़े ने पानी को जमीन में जब्त करने की हैसियत से महरूम कर दिया। अगर आपको याद हो, कुछ बरस पूर्व चौकाघाट के ध्वस्त हुए पुल का मुकम्मल मलबा आज भी नये पुल के नीचे नदी में ही दफन है। पुल के साथ ही गिरे एक कई चक्का ट्रक को हफ्तों बाद निकाला जा सका था, मलबा आज भी नदी में है। ऐसी ही तमाम दास्तानें हैं जिन्होंने मिल जुलकर नदी का कबाड़ा कर दिया।
हालात यह हैं कि जिन दो नदियों वरुणा व असी के नाम पर नगर का नाम वाराणसी पड़ा था, उनमें से एक नदी असी का अवसान हो चुका है, वरुणा भी उसी डगर पर है। गंगा का हाल हम सब देख ही रहे हैं। आखिर कोई भगीरथ इस शहर में सामने आयेगा भी ..या कि फिर अब इस शहर का नाम ही बदला जाए
गंगा-वरुणा को मैला कर रही तीन फैक्ट्रियों पर ताला
वाराणसी : नियम को ताक पर रखकर साड़ी छपाई व रंगाई के दौरान बिना शोधन के केमिकल गंगा व वरुणा नदी में बहाना तीन फैक्ट्रियों पर भारी पड़ गया। जिला प्रशासन के नेतृत्व में टीम ने मंगलवार को शिवपुर थाना क्षेत्र में संचालित तीनों फैक्ट्रियों पर ताला जड़ दिया।
एडीएम (सिटी) अटल राय ने बताया कि प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने जनपद में संचालित 9 फैक्ट्रियों की सूची सौंपी थी। इन फैक्ट्रियों द्वारा बिना शोधन के गंगा व वरुणा नदी में केमिकल बहाया जा रहा था। संबंधित मजिस्ट्रेटों को अपने-अपने क्षेत्र में संचालित फैक्ट्रियों के खिलाफ कार्रवाई के लिए कहा गया था लेकिन आदेश का अनुपालन नहीं हुआ। संज्ञान में आने के बाद प्रदूषण नियंत्रण इकाई के अधिकारियों ने एसीएम (चतुर्थ) सभाजीत तिवारी के नेतृत्व में मय फोर्स शिवपुर रेलवे फाटक के समीप शमशेर सिंह के कंपाउंड में संचालित तीन फैक्ट्रियों मेसर्स साई प्रिंट्स, मेसर्स शिल्पी प्रिंट्स व मेसर्स शकील प्रिंट्स पर छापा मारा। सिर्फ एक फैक्ट्री का संचालक मौके पर मिला। अन्य दो फैक्ट्रियों पर ताले लगे थे। तीनों फैक्ट्रियों को टीम ने जल (प्रदूषण निवारण एवं नियंत्रण) अधिनियम 1974 की धारा 33-ए के तहत सीज कर दिया। एडीएम (सिटी) ने बताया कि एक सप्ताह के भीतर अन्य छह फैक्ट्रियों के खिलाफ भी कार्रवाई की जाएगी। शिवपुर में छापेमारी के दौरान क्षेत्राधिकारी कैंट किरण यश, एएसओ एसबी फ्रेंकलिन, एसएन सिंह समेत अन्य अधिकारी मौजूद थे।
Friday, 24 December 2010
वरुणा बनी मला ढोने वाली नदी-
Saturday, 18 December 2010
वरुणा नदी की भी अजब कहानी
Thursday, 16 December 2010
वरुणा के लिए 171 करोड़ का प्रोजेक्ट
Wednesday, 15 December 2010
पेड़ों की कटाई रोको
हाथों में पर्यावरण के नारे लिखी तख्तियां लेकर सड़क पर उतरे नन्हे सितारे
वरुणा के जीर्णोद्धार को हरी झंडी
वाराणसी, जागरण टीम : आखिर शहर से अटूट रिश्ता रखने वाली वरुणा नदी की भी सुन ली गई। अब उसका कायाकल्प होगा। शासन स्तर से इस नदी का जीर्णोद्धार कर इसे नया रूप देने व इसमें परिवहन सुविधा बहाल करने के लिए सर्वे को हरी झंडी दे दी गई है। इस बाबत कमिश्नर को रिपोर्ट देने को कहा गया है। इसके साथ ही नगर को यातायात की समस्या से निजात दिलाने के लिए नए फ्लाईओवर की जरूरतों व विकास की अन्य परियोजनाओं की बाबत अलग से सर्वे रिपोर्ट प्रस्तुत करने का प्रशासनिक अमले को निर्देश दिया गया है। यह जानकारी राज्य सलाहकार परिषद के अध्यक्ष सतीश चंद्र मिश्र ने मंगलवार को यहां दी। वह वाराणसी नगर के विकास को मिले 871 करोड़ रुपये की 28 परियोजनाओं का हाल जानने के लिए सीएम के दूत के रूप में यहां पहुंचे थे। कमिश्नरी सभागार में समीक्षा बैठक के बाद विकास कार्यो की धीमी प्रगति से खासे नाराज श्री मिश्र ने मीडिया से बातचीत में दावा किया कि पाण्डेयपुर व चौकाघाट फ्लाईओवर का निर्माण कार्य 31 मार्च तक हर हाल में पूरा कर लिया जाएगा। हर हफ्ते डीएम व कमिश्नर वर्क चार्ट के आधार पर मानीटरिंग करेंगे और शासन को रिपोर्ट देंगे। पेयजल की पाइप लाइन, सीवर लाइन के साथ ही खोदाई का कार्य वर्षा से पहले पूरा करने के निर्देश दिए गए हैं। नगर निगम की चुटकी लेते हुए कहा कि सड़क के किनारों पर आज की ही तरह गंदगी कभी नहीं दिखनी चाहिए। रोज इसी तरह पूरे नगर की सफाई होनी चाहिए। सड़क के किनारे अतिक्रमण, नालियां जाम होने जैसी स्थिति पाए जाने पर नाराजगी जताई। चेताया, बराबर अभियान चलाकर साफ-सफाई पर ध्यान दें, किसी भी कीमत पर अनाधिकृत कब्जा न होने पाए। सालिड वेस्ट मैनेजमेंट परियोजनाओं को पूर्ण करने के लिए अप्रैल 2011 तक का नगर निगम को टारगेट दिया। एक अन्य सवाल के जवाब में कहा कि वर्ष 2014 तक विद्युत उत्पादन में उत्तर प्रदेश सरप्लस स्टेट हो जाएगा। विश्वनाथ मंदिर समेत सभी घाटों के सुंदरीकरण समेत विकास से जुड़ी विभिन्न योजनाओं की बराबर मानीटरिंग करते रहने की अधिकारियों को हिदायत भी दी गई है। समीक्षा बैठक में मुख्यमंत्री के प्रमुख सचिव राजप्रताप सिंह, प्रमुख सचिव नगर विकास आलोक रंजन, प्रमुख सचिव लोक निर्माण रवींद्र सिंह, आयुक्त अजय कुमार उपाध्याय, डीएम रवींद्र समेत अन्य आला अधिकारी भी थे
Sunday, 12 December 2010
जलवायु परिवर्तन का जानलेवा असर बच्चों पर
जलवायु परिवर्तन का जानलेवा असर बच्चों पर
रिपोर्ट के मुताबिक जलवायु परिवर्तन का सर्वाधिक बुरा असर गरीब मुल्कों पर पड़ेगा-खासकर उपसहारीय अफ्रीकी देशों और दक्षिण एशिया के देश इसकी गंभीर चपेट में होंगे। विश्व के इन हिस्सों में जलवायु परिवर्तन का दुष्प्रभाव दूरगामी होगा-बीमारियों की प्रकृति में बदलाव आएगा,बीमारों की तादाद बढ़ेगी और पहले से ही कमजोर सामाजिक तथा स्वास्थ्य-ढांचे पर बोझ और ज्यादा बढ जाएगा।
रिपोर्ट में कहा गया है कि प्रति वर्ष 90 लाख बच्चे पाँच साल की उम्र पूरी करने से पहले मृत्यु का शिकार हो जाते हैं।इनमें से ज्यादातर मौतें (98 फीसदी) कम और मंझोली आमदनी वाले मुल्कों में होती हैं।एक तथ्य यह भी है कि सर्वाधिक गरीब और हाशिए पर रहने वाले समुदायों में पाँच साल से कम उम्र के बच्चों की मृत्यु की तादाद अपेक्षाकृत बहुत ज्यादा है।ज्यादातर बच्चों की मौत गिनी-चुनी बीमारियों और स्थितियों मसलन-कुपोषण, न्यूमोनिया, खसरा, डायरिया, मलेरिया और प्रसव के तुरंत बाद होने वाली देखभाल के अभाव जैसी स्थितियों में होती है।
वैश्विक स्तर होने वाली बच्चों की मृत्यु की विशाल संख्या में उपसहारीय अफ्रीका(40 लाख 70 हजार) और दक्षिण एशिया(30 लाख 80 हजार) का हिस्सा बहुत ज्यादा है।विश्व के इन हिस्सों में मौजूद भयंकर गरीबी, बीमारी और प्राकृतिक संसाधन पर निर्भरता की स्थिति अगामी सालों में जलवायु-परिवर्तन के बीच बच्चों के जीवन के लिए पहले से कहीं ज्यादा खतरनाक माहौल पैदा करेगी।
रिपोर्ट में ध्यान दिलाया गया है कि बच्चों की मृत्यु का प्रत्यक्ष और सबसे बड़ी कारण भले ही बीमारी हो लेकिन इसके साथ-साथ कुछ अप्रत्यक्ष और ढांचागत कारण भी हैं जिससे बीमार बच्चों का समय रहते ठीक हो पाना संभव नहीं हो पाता।ऐसे कारणों में शामिल है-स्वास्थ्य सुविधाओं का पर्याप्त मात्रा और समुचित रीति से ना उपलब्ध हो पाना, स्वच्छ पेयजल और साफ-सफाई का अभाव,गरीबी,जचगी के संबंध में वैज्ञानिक जानकारी का अभाव और सामाजिक असमानता।जलवायु परिवर्तन इन्हीं स्थितियों की गंभीरता में इजाफा करके बच्चों की जिन्दगी के लिए भारी खतरा पैदा करेगा।
रिपोर्ट में इस बात पर दुःख प्रकट किया गया है कि बच्चों की जिन्दगी पर जलवायु परिवर्तन के खतरे के संबंध में पर्याप्त प्रमाण होने के बावजूद इस पर अब भी नीतिगत स्तर पर सार्वजनिक बहस नहीं होती और ना ही कोई राजनीतिक पहलकदमी के प्रयास दिखते हैं।रिपोर्ट में चेतावनी के स्वर में कहा गया है कि सरकारों और व्यापक जन-समुदाय को यह बात समय रहते समझ लेनी होगी कि दांव पर खुद मानवता का भविष्य लगा है।
रिपोर्ट के अनुसार जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न स्थितियों और बच्चों की सेहत पर होने वाले असर के बीच के संबंध को समझना मसले पर राजनीतिक समझ बनाने की दिशा में पहला कदम है।एक उदागरण डायरिया का लिया जा सकता है।
अनुमान के मुताबिक सिर्फ जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न होने वाली स्थितियों के कारण प्रति व्यक्ति 6000 डॉलर सालाना से कम आमदनी वाले देशों में डायरिया की घटना में 2020 तक 2 से 5 फीसदी की बढोतरी होगी। एशिया और अफ्रीका के कुछ हिस्सों में डायरिया के मामलों में 10 फीसदी तक की बढ़ोतरी हो सकती है।इसके अलावा जल-संक्रमण से होने वाली अन्य बीमारियों की तादाद में भी बढ़ोतरी होगी।
अतिसार या डायरिया जिसके उपचार को विकसित मुल्कों में चुटकी का खेल माना जाता है,आश्चर्यजनक तौर पर विकासशील और पिछड़े देशों में बच्चों के लिए जानलेवा साबित होती है।रिपोर्ट के अनुसार सालाना 20 लाख बच्चे सिर्फ डायरिया से मरते हैं और इसमें जलवायु-परिवर्तन से उत्पन्न स्थितियों के कारण होने वाली डायरिया से मरने वाले बच्चों की तादाद 85 हजार है।
रिपोर्ट के अनुसार डायरिया के ज्यादातर मामलों में मूल कारण साफ-सफाई की कमी और स्वच्छ पेयजल का अभाव है।दुनिया में तकरीबन 1 अरब 30 करोड़ लोगों को स्वच्छ पेयजल नसीब नहीं है और अगर जलवायु परिवर्तन के फलस्वरुप विश्व का तापमान 2 डिग्री संटीग्रेड और बढ़ गया तो 1 अरब 30 करोड़ अतिरिक्त आबादी साफ पेयजल से महरुम होगी। इससे डायरिया और जल के संक्रमण से होने वाली बीमारियों का प्रकोप तेज होगा।
रिपोर्ट में बताया गया है कि जलवायु परिवर्तन के कारण बाढ़ की स्थिति उत्पन्न होने पर भजल संदूषित होता है।संदूषित भूजल के कारण स्वच्छ पेयजल की समस्या और गंभीर होगी।दूसरे,जलवायु परिवर्तन के कारण सूखे की स्थिति भी बढ़ेगी और सूखे की स्थिति में स्वच्छ पेयजल के अभाव से पहले से ही ग्रस्त लोग मात्र संदूषित पानी के आसरे होंगे। ऐसे में डायरिया की आशंका बलवती होगी।
रिपोर्ट में सप्रमाण बताया गया है कि जलवायु परिवर्तन, आबादी की बढ़ोतरी,जमीन के इस्तेमाल के बदलते तरीके और निर्वनीकरण की स्थितियां एक साथ मिलकर मलेरिया और डेंगू जैसी कई बीमारियों के प्रकोप में इजाफा करेंगी और इसका सर्वाधिक शिकार बच्चे होंगे।गौरतलब है कि सालाना 10 लाख बच्चे सिर्फ मलेरिया की चपेट में आकर मरते हैं।इनमें पाँच साल से कम उम्र के बच्चों की तादाद 80 फीसदी होती है।
जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न स्थितियों के कारण बच्चों की सेहत पर खतरे को भांपते हुए रिपोर्ट में सरकारों से आग्रह किया गया है कि वे कोपेनहेगेन सम्मेलन में ग्रीनहाऊस गैसों के उत्सर्जन में 80 फीसदी की कटौती के मसौदे पर सहमत हों।
तूफानों के सामने को रहें तैयार, ग्लोबल वार्मिंग से बढ़ी ताकत
तूफानों के सामने को रहें तैयार, ग्लोबल वार्मिंग से बढ़ी ताकत
ग्लोबल वार्मिंग (वैश्विक तापमान) बढ़ने का मतलब है कि हमारी पृथ्वी लगातार गर्म होती जा रही है। इससे आने वाले दिनों में सूखा, बाढ़ ओर मौसम की मिजाज बुरी तरह बिगड़ने की आशंका है। वैज्ञानिकों का कहना है कि इस समय दुनिया का औसत तापमान 15 डिग्री सेंटीग्रेड है। वर्ष 2100 तक इसमें 1.5-6 डिग्री तक बढ़ोतरी हो सकती है। ग्लोबल वार्मिंग का प्रमुख कारण औद्योगीकरण, जंगलों का तेजी से कम होना, पेट्र्रोलियम पदार्थों से उत्सर्जित प्रदूषण, फ्रिज-एयरकंडीशन का बढ़ता प्रयोग आदि है।
तूफानों के सामने को रहें तैयार, ग्लोबल वार्मिंग से बढ़ी ताकत
तूफानों के सामने को रहें तैयार, ग्लोबल वार्मिंग से बढ़ी ताकत
ग्लोबल वार्मिंग (वैश्विक तापमान) बढ़ने का मतलब है कि हमारी पृथ्वी लगातार गर्म होती जा रही है। इससे आने वाले दिनों में सूखा, बाढ़ ओर मौसम की मिजाज बुरी तरह बिगड़ने की आशंका है। वैज्ञानिकों का कहना है कि इस समय दुनिया का औसत तापमान 15 डिग्री सेंटीग्रेड है। वर्ष 2100 तक इसमें 1.5-6 डिग्री तक बढ़ोतरी हो सकती है। ग्लोबल वार्मिंग का प्रमुख कारण औद्योगीकरण, जंगलों का तेजी से कम होना, पेट्र्रोलियम पदार्थों से उत्सर्जित प्रदूषण, फ्रिज-एयरकंडीशन का बढ़ता प्रयोग आदि है।
गर्म हो रहे बादल पृथ्वी को कर रहे हैं और गर्म
गर्म हो रहे बादल पृथ्वी को कर रहे हैं और गर्म
बादलों के गर्म होने के बाद पृथ्वी का तापमान और बढ़ने लगेगा। इस प्रक्रिया को क्लाउड फीडबैक कहा जाता है। यदि ऐसा ही चलता रहा तो अगले सौ वर्षों में पृथ्वी का तापमान काफी बढ़ जाएगा, जिसका सामना करना आसान नहीं होगा। नासा के टेरा सेटेलाइट द्वारा लिए गए चित्रों में बादलों की बदलती प्रवृत्ति स्पष्ट नजर आ रही है।
डेसलर ने बताया कि यह एक दुष्चक्र है। गर्म तापमान का मतलब है कि बादल और अधिक गर्म हो रहे हैं। उन्होंने बताया कि प्रतिदिन मानवीय गतिविधियों में आ रहे बदलाव ने पूरे पर्यावरण को ही बिगाड़ कर रख दिया है। इसके बावजूद मानव जाति भारी समस्या को समझना नहीं चाहती और सचेत होने के बजाय वह निर्भीक है। इस कारण लगातार मौसम में परिवर्तन हो रहा है और ग्लेसियर्स के बर्फ तेजी से पिघल रहे हैं, जिसके कारण समुद्र के जलस्तर में भी काफी वृद्घि हुई है
घाटों का शहर है वाराणसी
वाराणसी में 100 से अधिक घाट हैं. शहर के कई घाट मराठा साम्राज्य के अधीनस्थ काल में बनवाये गए थे. अधिकतर घाट स्नान-घाट हैं, कुछ घाट अन्त्येष्टि घाट हैं. कई घाट किसी कथा आदि से जुड़े हुए हैं, जैसे मणिकर्णिका घाट, जबकि कुछ घाट निजी स्वामित्व के भी हैं. पूर्व काशी नरेश का शिवाला घाट और काली घाट निजी संपदा हैं. वाराणसी में अस्सी घाट से लेकर वरुणा घाट तक सभी घाटों की क्रमवार सूची इस प्रकार से है:
अस्सी घाट
गंगामहल घाट
रीवां घाट
तुलसी घाट
भदैनी घाट
जानकी घाट
माता आनंदमयी घाट
जैन घाट
पंचकोट घाट
प्रभु घाट
चेतसिंह घाट
अखाड़ा घाट
निरंजनी घाट
निर्वाणी घाट
शिवाला घाट
गुलरिया घाट
दण्डी घाट
हनुमान घाट
प्राचीन हनुमान घाट
मैसूर घाट
हरिश्चंद्र घाट
लाली घाट
विजयानरम् घाट
केदार घाट
चौकी घाट
क्षेमेश्वर घाट
मानसरोवर घाट
नारद घाट
राजा घाट
गंगा महल घाट
पाण्डेय घाट
दिगपतिया घाट
चौसट्टी घाट
राणा महल घाट
दरभंगा घाट
मुंशी घाट
अहिल्याबाई घाट
शीतला घाट
प्रयाग घाट
दशाश्वमेघ घाट
राजेन्द्र प्रसाद घाट
मानमंदिर घाट
त्रिपुरा भैरवी घाट
मीरघाट घाट
ललिता घाट
मणिकर्णिका घाट
सिंधिया घाट
संकठा घाट
गंगामहल घाट
भोंसले घाट
गणेश घाट
रामघाट घाट
जटार घाट
ग्वालियर घाट
बालाजी घाट
पंचगंगा घाट
दुर्गा घाट
ब्रह्मा घाट
बूंदी परकोटा घाट
शीतला घाट
लाल घाट
गाय घाट
बद्री नारायण घाट
त्रिलोचन घाट
नंदेश्वर घाट
तेलिया- नाला घाट
नया घाट
प्रह्मलाद घाट
रानी घाट
भैंसासुर घाट
राजघाट
आदिकेशव या वरुणा संगम घाट
कभी गंगा भी एक नदी हुआ करती थी
जले हजारों दीप, रामेश्वर वरुणा घाट हुआ जगमग
हरहुआ : कार्तिक पूर्णिमा पर रामेश्वर वरुणा घाट पर सुबह जहां हजारों श्रद्धालुओं ने स्नान कर धाम में भगवान शिव व मां तुलजा भवानी का दर्शन-पूजन किया। वहीं शाम को वरुणा घाट व धाम के मंदिरों में हजारों की संख्या में श्रद्धालुओं दीप जलाकर देव दीपावली मनायी, जिससे पूरा क्षेत्र जगमग हो उठा। इस अवसर पर क्षेत्रीय युवाओं ने वरुणा को स्वच्छ बनाने का संकल्प लिया। चंदौली के सांसद रामकिसुन ने भी दीपदान कर वरुणा महोत्सव में भाग लिया। इस अवसर पर स्कूली बच्चों ने वरुणा पदी की आरती उतारी व महिलाओं ने मंगलगीत गाये। देर रात तक सांस्कृतिक कार्यक्रमों भजन-कीर्तन व लोकगीतों का आयोजन हुआ। जिसमें हजारों की संख्या में ग्रामीणों व विशिष्टजनों ने भाग लिया।
वरुणा का अस्तित्व बचाने को १७१ करोड़ का खाका तैयार
वाराणसी। नाले के रूप में तब्दील हो रही वरुणा नदी के कायाकल्प की विस्तृत कार्ययोजना बनाई गई है। सप्ताह भर में अंतिम रूप देकर इसे जल्दी ही प्रदेश सरकार के जरिये केंद्र को भेजा जाएगा। |
Friday, 19 November 2010
फ्लोराइडयुक्त पानी से जल्द आ रहा है बुढा़पा
उत्तर प्रदेश में नक्सलवाद से प्रभावित विन्ध्याचल मण्डल के मिर्जापुर और सोनभद्र जिले के लोग फ्लोराइड युक्त पानी पीने से उम्र के पहले ही बूढे़ हुए जा रहे हैं।
इसके अलावा दोनों जिलों के लोग अन्य बीमारियों के शिकार भी हो रहे हैं। ऐसा भूमिगत जल के प्रदूषित होने के चलते हुआ है। यहां पानी धीमे जहर के समान होता जा रहा है। जिसके चलते जहां एक ओर लोगों की हड्डियां कमजोर हो रही हैं और उन्हें कई बीमारियों से जूझना पड़ रहा है, वहीं दूसरी ओर असमय बुढा़पे ने भी उन्हें दबोच लिया है।
स्वास्थ्य विभाग की ओर से कराए गए जांच चौकाने वाले हैं। जो तथ्य सामने आए हैं वह स्थिति की गंभीरता की ओर इशारा करते हैं। नक्सल प्रभावित अर्ध पहाडी़ आदिवासी बहुल दोनों जिले पहले से ही मलेरिया की दृष्टि से अतिसंवेदनशील हैं। अब फ्लोराइड युक्त पानी एक नई समस्या बनकर उभरा है।
विशेषज्ञों ने समय रहते इसके निदान पर जोर दिया है। वर्ना स्थिति बदतर बनने में देर नहीं लगेगी। स्वास्थ्य विभाग ने मिर्जापुर और सोनभद्र जिले में 43 हजार 566 हैण्डपम्पों और कुओं के पानी के परीक्षण कराए गए हैं। रिपोर्ट में भविष्य की स्थिति और भयावह होने की आशंका व्यक्त की गई है। यह स्थिति मिर्जापुर और सोनभद्र दोनों जिलों में है। यहां भूजल में फ्लोराइड की मात्रा पांच से लगभग 30 फीसदी तक पहुंच गई है।
इन जिलों में प्रदूषण के कारण भूमिगत जल प्रदूषित हुआ है। स्वास्थ्य विभाग और जल निगम के मुताबिक भूजल में फ्लोराइड नामक रसायन की निर्धारित मात्रा दो फीसदी ही होनी चाहिए लेकिन यह काफी अधिक हो गई है। मिर्जापुर में जहां पानी में फ्लोराइड की मात्रा पांच से छह फीसदी पहुंच गई है, वहीं सोनभद्र में छह गुना अधिक यानी पानी में फ्लोराइड की मात्रा 30 फीसदी हो गई है।
अमर शहीदों की भावभीनी याद, जले अनेक दीप
Wednesday, 17 November 2010
varuna prabodhini Ekadasi 17 november 2010
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Sunday, 14 November 2010
बनारस में पोलीथिन के उपयोगिता को कम और लगभग समाप्त कैसे किया जा सकता है ,
एक प्रयास आपका ....
सावधान ! आपके हाथ में है मौत का थैला
सावधान ! आपके हाथ में है मौत का थैला .
आप और हम जिस महा नगर में निवास करते है वह आज पोलीथिन के दुष्प्रभाव से दम तोड़ रहा है ।
इसके किए जिम्मेदार हम आप और हम सबकी लापरवाही ही है ।
हमारी इस लापरवाही और अज्ञानता का सबसे अधिक खामियाजा मूक जानवर विशेषकर हमारी संस्कृति की प्रतिक गायो को भुगतना पड़ता है । हम अपने घर के कचरे को पोलीथिन में कर सड़क पर तोफेक देते है मगर हमें ये नही मालूम होता की खतरों से अनजान येजन्वर इन खाद्य सामग्रियो को खाने के दौरान पोलीथिन भी खा जाते है जो इनके आत में जाकर फस जाता है और जानवरों की मौत हो जातीहै।
इसके अतिरिक्त हमारे घरो में और व्यापारिक प्रतिष्ठानों से यही मुसीबत का थैला जब बहार निकलता है तब यह महानगर के पहले से ही जर्जर पड़े नालियों में जाकर अवरोधक का काम करता है और फ़िर शुरू होता है इस निर्जीव सेदिखने वाले पोलीथिन का सजीव तांडव , जल जमाव , जल बहाव में अवरोध और संक्रमित बीमारियो के रूप में । इसके आलावा कूड़े के ढेर में पड़े पोलीथिन जो कभी न सड़ने गलने के कारन वर्षो पड़ा रह कर प्रदुषण फैलता है को जला दिया जाता है और लोगो को लगता है की समाप्त हो गया पोलीथिन नाम का दुश्मन ,लेकिन क्या आपको ये पता है की पोलीथिन को जलने से जो गैस निकलती है वो ख़ुद इंसान के लिए कितनी खतरनाक होती है ,ये गैस अत्र शोध कैंसर और दमा जैसे जानलेवा बीमारिया फैलाती है ,
इन सब दुश्परिनामो को देखकर यदि ये कहा जाए की जिस पोलीथिन में आप सामान लेकर आते है वो मौत का ऐसा थैला है जो शायद आपको तो बक्श दे मगर पर्यावरण को जिस तरह दूषित कर रहा है वो आपके भावी पीढ़ी आपके बच्चे के लिये असमय मौत और विकलांगता भरे जीवन का आधार जरुर तैयार कर रहा है ।
फ़ैसला आपको करना है , आप अपनी पीढ़ी को बचाना चाहते है या बर्बाद करना ,यदि बचाना चाहते हो तो तय कीजिये आज से पोलीथिन का इस्तेमाल बंद । और यदि बर्बाद करना चाहते है तो निसंदेह उठा लीजिये मौत के इस थैले को जिसका नाम है पोलीथिन ।
--डा. दीप्ती, वाराणसी
पृथ्वी को बचाएं, पॉलीथीन का बहिष्कार करें
पृथ्वी को बचाएं, पॉलीथीन का बहिष्कार करें
आज प्लास्टिक और पॉलीथीन पर्यावरण एवं प्राणी जीवन के लिए एक बहुत बड़ी समस्या है। सर्वाधिक नुकसान तो पॉलीथीन की थैलियों से हुआ है। इससे पशुओं की हानि बहुतायत में हो रही है। पॉलीथीन के बैग में तो हम सामान ले आते हैं और उसे कूड़े के ढेर में फेंक देते हैं। इसे जानवर लालच में आकर खाते हैं जिससे उनकी मौत तक हो जाती है। पॉलीथीन का कचरा खत्म होने में बहुत समय लगता है तथा इसे लोग कूडे़-कचरे से चुनकर रीसाइकिलिंग के लिए कबाडि़यों को बेच देते हैं। पॉलीथीन को जलाने से कार्बन-डाईआक्साइड, कार्बन-मोनोऑक्साइड एवं डाईऑक्सीन्स जैसी विषैली गैसें उत्सर्जित होती हैं। इनसे श्वांस, त्वचा रोग आदि की बीमारियां होने की आशंका बढ़ जाती है।
एक अध्ययन के मुताबिक पॉलीथीन एवं प्लास्टिक के अधिक संपर्क में रहने वाली स्ति्रयों के गर्भ में शिशु का विकास रुक जाता है तथा अविकसित संतान पैदा होने का खतरा बढ़ जाता है। इसमें प्रयोग होने वाला बिस्फेनॉल रसायन शरीर में डायबिटीज व लीवर एंजाइम को असामान्य कर देता है। इसके दुष्प्रभाव से लाखों जीवों की मौत एक वर्ष में हो जाती है। ओजोन की परत में छेद का मुख्य कारण प्लास्टिक को ही माना जा रहा है। नास्त्रेदमस की भविष्यवाणी के अध्ययन करने वालों ने बताया है कि उसमें मानव जाति का संहार आग से जलने से बताया है। हो सकता है उसकी भविष्यवाणी सच हो जाए, क्योंकि आज संसार के हर घर में ज्वलनशील प्लास्टिक का सामान है जो बहुत जल्दी आग पकड़ता है।
अब समय आ गया है प्लास्टिक के बहिष्कार करने का। हमें पुन: कागज के बैगों की तरफ़ जाना होगा। इससे लोगों को रोजगार भी मिलेगा और पर्यावरण की रक्षा भी होगी। पर्यावरण को बचाना हमारा मुख्य ध्येय होना चाहिए। पृथ्वी की हरीतिमा को हमें बचाना है। पर्यावरण के प्रदूषण को खत्म नहीं कर सकते तो कम अवश्य किया जा सकता है। हम प्लास्टिक का उपयोग स्वयं ही कम करें तथा अपने मित्रों को भी इसका उपयोग कम करने की सलाह दें।
जागो, इसके पहले कि पॉलीथीन आपको हमेशा के लिए सुला दे
जागो, इसके पहले कि पॉलीथीन आपको हमेशा के लिए सुला दे
इंसान ने अपनी सुविधाओं के लिए हमेशा से कई ऐसी चीजे बनाई हैं, जो कुछ सालों बाद उसके ही जी का जंजाल बन गये है, पॉलिथीन की थैलियाँ भी उनमे से ही एक हैं. ये लाल, पीली, हरी, नीली थैलियाँ आपकों हर जगह दिखाई देंगी, चाहे वो किराने वाले की दुकान हो, बड़े-बड़े सुपरबाज़ार हों, सब्जी मंडी हों या छोटा सा पान का ठेला. ये थैलियाँ जहाँ हमारे पर्यावरण के लिए घातक हैं, वही हमारे स्वास्थ्य पर भी इनका बुरा असर पड़ता हैं. आज का पढ़ा लिखा इंसान सब कुछ जानते हुए भी आँख मूंदकर इनका बेहिसाब इस्तेमाल कर रहा है.
क्या है पॉलिथीन
पॉलीथीन एक पेट्रो-केमिकल उत्पाद है, जिसमें हानिकारक रसायनों का इस्तेमाल होता है। रंगीन पॉलीथीन मुख्यत: लेड, ब्लैक कार्बन, क्रोमियम, कॉपर आदि के महीन कणों से बनता है, जो जीव-जंतुओं व मनुष्यों सभी के स्वास्थ्य के लिए घातक है।
कितनी घातक हैं ये पॉलिथीन की थैलियाँ
मिटटी को खतरा ये पॉलिथीन की थैलियाँ जहाँ हमारी मिटटी की उपजाऊ क्षमता को नष्ट कर इसे जहरीला बना रही हैं, वहीँ मिटटी में इनके दबे रहने के कारण मिटटी की पानी सोखने की क्षमता भी कम होती जा रही है, जिससे भूजल के स्तर पर असर पड़ा है.
सीवरेज की समस्या सफाई व्यवस्था और सीवरेज व्यवस्था के बिगड़ने का एक कारण ये पॉलीथीन की थैलियाँ हैं जो उड़ कर नालियों और सीवरों को जाम कर रहीं हैं.
स्वास्थ्य पर खतरा पॉलीथीन का प्रयोग सांस और त्वचा संबंधी रोगों तथा कैंसर का खतरा बढ़ाता है। इतना ही नहीं, यह गर्भस्थ शिशु के विकास को भी रोक सकता है.
जानवरों को खतरा ये थैलियाँ जहाँ मानव स्वास्थ्य के लिए नुकसानदेय है, वहीँ थल व जल में रहने वाले जीव-जंतुओं के जीवन को भी खतरे में डाल रहीं है. पशुओं के द्वारा खा लेने पर ये उनके पेट में जमा हो रही हैं और उनकी जान के लिए खतरा बन रही है. हर साल इन थैलियों को खाकर लाखों जानवर मारे जाते हैं। कई जानवरों के पेट से ऑपरेशन कर करीब ५०-१०० किलो तक पॉलिथीन निकाली गई है.
कैसे रोके ये खतरा
नई पहल
हिमाचल प्रदेश उत्तरी भारत का पहला राज्य है, जिसने पॉलीथीन कचरे से एक किलोमीटर से अधिक लंबी सड़क को पक्का करने के लिए उपयोग में लाया है. अभी तक हिमाचल प्रदेश में 1,381 क्विंटल पॉलीथीन कचरा एकत्रित किया जा चुका है. इस पॉलीथीन कचरे का उपयोग लगभग 138 किलोमीटर सड़क के निर्माण में किया जाएगा.
ये एक बहुत अच्छी पहल है. जहाँ इससे ये पॉलीथीन कचरा उपयोग में आएगा, वहीँ हमारे गांवों को कुछ किलोमीटर सड़क मिल जाएगी. अन्य राज्यों को भी इससे कुछ सीख लेनी चाहियें.
कानून बनते हैं और टूटते हैं, लेकिन पर्यावरण को बचाने और उसकी देखभाल का जिम्मा हम सब के ऊपर है। सरकार तब तक बहुत कुछ नहीं कर सकती, जब तक कि हम स्वयं ये दृढ संकल्प न ले ले कि आज से हम पॉलिथीन उपयोग में नहीं लायेंगे. यदि सभी लोग पॉलीथीन के खिलाफ जागरूक होकर अभियान छेड़ दें और इसका इस्तेमाल खुद ही त्याग दें, तो वो दिन भी जरुर आएगा जब किसी भी दुकान पर ये जहरीली थैलिया नहीं दिखाई देंगी. यदि आज हम पर्यावरण की देखभाल नहीं करेंगे तो वह दिन भी दूर नहीं जब इस दुनिया का अंत करीब आ जायेगा और हम सब सिर्फ हाथ मलते रह जायेंगे.
तो क्यों ना हम आज से ही ये प्रण लें कि इन जहरीली थैलियों का उपयोग और नहीं. बूंद-बूंद से ही घड़ा भरता है.
तो उठो और जागो, इसके पहले कि पॉलीथीन हमें हमेशा के लिए सुला दे……..
हरियाणा में पॉलीथीन पर पूर्ण प्रतिबंध लगा
हरियाणा में पॉलीथीन पर पूर्ण प्रतिबंध लगा |
राज्य के वनमंत्री अजय सिंह ने बुधवार को संवाददाताओं को बताया कि, " किसी भी व्यक्ति द्वारा 40 माइक्रोन चौड़ाईवाले और 12 गुणा 18 इंच आकार के प्लास्टिक के बैग का इस्तेमाल करने पर रोक लगा दी गई है। साथ ही इस तरह के बैग को बनाने, रखने, वितरण करने या बेचने पर भी पाबंदी लगाई गई है।"
40 माइक्रॉन से कम गेज वाली पॉलीथीन पर प्रतिबंध लग सकता है।
पॉलीथीन की मोटाई के तय मापदंडों से पतली पॉलीथीन को इकट्ठा करना काफी मुश्किल होता है। इससे पर्यावरण को तो नुकसान होता ही है, इधर- उधर घूमने वाले जानवर इन पन्नियों को खाकर बीमार होते हैं। देशव्यापी अध्ययन और सर्वेक्षणों में यह बात सामने आई है कि मोटे पॉलीथीन को एकत्रित करना और उसकी री-साइकिलिंग अपेक्षाकृत आसान है। इसके तहत केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय 40 माइक्रॉन से कम गेज वाली पॉलीथीन को प्रतिबंधित करने का प्रस्ताव बनाया है जबकि वर्तमान में बाजार में 20 माइक्रॉन से कम गेज वाली पॉलीथीन का कारोबार बहुतायत में हो रहा है।
गंगा नदी के किनारे पॉलीथिन पर प्रतिबंध
इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने उत्तरप्रदेश सरकार को गंगा नदी के आसपास के इलाकों में पॉलीथीन के इस्तेमाल पर लगे प्रतिबंध को लागू कराने के लिए प्रभावी कदम उठाने को निर्देशित किया।
इस आशय का आदेश जारी करते हुए न्यायाधीश अशोक भूषण और न्यायाधीश अरुण टंडन की एक खंड पीठ ने सरकार से प्रतिबंध को लागू कराने के लिए नियम बनाने और इस मामले पर 25 नवम्बर को होने वाली अगली सुनवार्इ पर अदालत को इस बारे में सूचित करने के लिए कहा।
अदालत ने एक जनहित याचिका पर सुनवार्इ करते हुए यह आदेश पारित किया जिसमें गंगा नदी में प्रदूषण के बढ़ते स्तर पर अदालत से हस्तक्षेप करने की माँग की गई थी।
कहीं हमारी नदियां विषाक्त न हो जाएं
कहीं हमारी नदियां विषाक्त न हो जाएं
on मार्च 23,2009
नई दिल्ली। दुनिया भर में बढ़ रही पानी की किल्लत के बीच जल स्रोतों में बढ़ते प्रदूषण के कारण विशेषज्ञों को इस बात का भारी अंदेशा है कि कहीं हमारी नदियां विषाक्त न हो जाएं। उनकी राय में जल प्रबंधन में पारंपरिक विवेक और तकनीक तथा जन सहयोग जोड़े बिना कुछ ठोस हासिल नहीं किया जा सकता।
जाने माने गांधीवादी और जल, जंगल, जमीन मुद्दे पर आंदोलन चला रहे राजगोपाल टीवी ने कहा कि हमें नदियों और पानी के साथ खिलवाड़ तुरंत बंद करना होगा अन्यथा हमारी नदियां जो अभी तक हमें पानी के रूप में जीवन प्रदान कर रही हैं भविष्य में जहर उगलना शुरू कर देंगी। उन्होंने कहा कि दक्षिण एशिया नदियों और पानी के मामले में काफी समृद्ध क्षेत्र माना जाता है लेकिन यहां पानी को लेकर इतनी हायतौबा क्यों है, यह एक विचारणीय विषय है।
राजगोपाल ने कहा कि पानी पर सरकार के एकाधिकार को खत्म करना होगा। पानी के क्षेत्र में निजी कंपनियों ने स्थिति को और बिगाड़ा है क्योंकि बहुरराष्ट्रीय कंपनियों ने जमीन के नीचे उपलब्ध जल का अंधाधुंध इस्तेमाल शुरू कर दिया है। राजगोपाल ने कहा कि यदि जल संबंधी मुद्दे को सही ढंग से नहीं सुलझाया गया तो विशेषज्ञों के अनुसार अगला विश्वयुद्ध पेट्रोल के लिए नहीं पानी के लिए होगा। गांधीजी कहा करते थे कि प्रकृति को समझो, उसके साथ चलो। उसे गुलाम बनाने की कोशिश मत करो।
राजगोपाल ने सुझाव दिया कि हमें पानी के प्रबंधन के लिए राजस्थान जैसे क्षेत्रों तथा देश के अन्य स्थानों में इस्तेमाल किए जाने वाले पारंपरिक विवेक और तकनीक को अपनाना होगा। पानी की कमी का समाधान कोई अंतरराष्ट्रीय विशेषज्ञ नहीं दे सकते। इस मामले में हमें जन सहयोग और जनभागीदारी बढ़ानी होगी।
जल मामलों के विशेषज्ञ और 'साउथ एशिया नेटवर्क आन डेम, रिवर्स एंड पीपुल्स संस्था' से संबद्ध हिमांशु ठक्कर ने कहा कि जल एक ऐसी चीज है जो लोगों को जोड़ती है लेकिन आज जल विवाद का विषय क्यों बन गया यह प्रश्न विचारणीय है। उन्होंने कहा कि हमारे देश में जब नदी का पानी एक गांव से दूसरे गांव में जाता है या एक शहर से दूसरे शहर जाता है तो कोई विवाद नहीं होता। लेकिन यही नदी जल जब एक राज्य से दूसरे राज्य या एक देश की सीमा से दूसरे की सीमा में जाता है तो विवाद क्यों शुरू हो जाता है।
ठक्कर ने कहा कि जल पर सरकार का एकाधिकार इसका सबसे बड़ा कारण है। उन्होंने कहा कि नदी जल बंटवारा, बांध, सिंचाई जैसे जल से जुड़े मुद्दों पर हर जगह सरकार ही पहल करती है और जन भागीदारी इनसे बिल्कुल कट गई है। सरकार लोगों को पानी से अलग कर रही है। उन्होंने इस बात को स्वीकार किया कि यदि हमारे देश में पानी के मामले में पारंपरिक विवेक और जनभागीदारी को प्रोत्साहन दिया जाए तो जल संबंधी समस्याएं काफी हद तक सुलझ सकती हैं।
नदियों को आपस में जोड़ने के बारे में पूछने पर ठक्कर ने कहा कि इस मामले में देखना होगा कि क्या इसका वैज्ञानिक आधार है। नदियों को जोड़ने के बारे में प्रमुख तर्क यह है कि कुछ में 'सरप्लस' पानी होता है और कुछ में कम। उन्होंने कहा कि इस तर्क में अधिक दम नहीं है क्योंकि 'सरप्लस' जल की नदियों वाले क्षेत्र में भी सिंचाई के लिए पानी नहीं मिलता और सूखा पड़ता है जैसे उत्तरप्रदेश तथा बिहार। इसके विपरीत कावेरी जैसी कम पानी वाली नदियों के कुछ क्षेत्र में अधिक पानी की फसल यानी धान की दो बार पैदावार होती है।
जल मामलों के विशेषज्ञ और नर्मदा नदी की समस्याओं पर पुस्तकें लिख चुके अमृतलाल वेगड़ ने कहा कि पानी की समस्या के मामले में सबसे उपयुक्त कहावत है 'एक अनार सौ बीमार'। आज हर आदमी को पानी की आवश्यकता है, लेकिन पानी की मात्रा लगातार घट रही है। उन्होंने कहा कि आजादी के समय की तुलना में हमारी आबादी लगभग चार गुना बढ़ी है। इस हिसाब से यदि आजादी के समय देश में 50 इंच वर्षा होती थी तो आज 200 इंच वर्षा होनी चाहिए। लेकिन आज तो 50 इंच से भी कम वर्षा होती है। वेगड़ ने कहा कि वर्षा की समस्या दूर करने के लिए सबसे जरूरी है जंगल की कटाई रोकना।
गंगा का जल स्तर सुनिश्चित करे सरकार : उच्च न्यायालय
इलाहाबाद। गंगा में बढ़ते प्रदूषण और जल स्तर में लगातार हो रही गिरावट के संदर्भ में दायर एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने गंगा के दोनों किनारों के आस-पास पॉलीथीन उत्पादों पर रोक लगाने का आदेश दिया है।
न्यायालय ने अपने निर्णय में गंगा बेसिन प्राधिकरण को निर्देश जारी करते हुए नदी के किनारे पॉलीथीन पर प्रतिबंध को सुनिश्चित करने को कहा है। न्यायमूर्ति अशोक भूषण और न्यायमूर्ति ए. टंडन की पीठ ने उत्तर प्रदेश एवं उत्तराखंड सरकारों को गंगा में पर्याप्त जलस्तर सुनिश्चित करने को कहा है। साथ ही दोनों राज्य सरकारों को सचिव स्तरीय बातचीत के जरिए गंगा के जल स्तर और प्रदूषण सहित विभिन्न मुद्दे पर विचार-विमर्श कर ठोस कदम उठाने के निर्देश भी दिए हैं।
न्यायालय ने इलाहाबाद और कौशाम्बी में गंगा एवं यमुना नदी में मशीन से किए जा रहे अवैध खनन पर तत्काल प्रभाव से रोक लगा दी है और अवैध खनन की शिकायतों को लेकर दोनों जिलों के जिलाधिकारियों से खनन संबंधित रिपोर्ट न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत करने को कहा है।
इसी तरह उच्च न्यायालय ने इलाहाबाद नगर निगम को गंगा नदी में शहर के गंदे पानी के प्रवाह को तुरंत रोकने के आदेश दिए हैं। स्थानीय रसूलाबाद और दारागंज के विद्युत शवदाह गृहों के बंद होने के कारण पूछते हुए निगम को इस बारे में 21 मई तक अपना जबाब देने को कहा है। अदालत की अगली सुनवाई 21 मई को होगी।